धनतेरस का विकृत स्वरुप

धन-धन-धनतेरस धन-धन-धनतेरस रट्ट लगाते हुए वटेसरकाका कमरे में दाखिल हुए। ऐसे में कुछ पूछना-जानना लाज़मी है। मेरे मुंह से हठात निकल गया—लगता है काका कि किसी ने आपको भंग पिला दी हो। चुनाव का दौर तो खतम हो गया, ऐसे में मुफ़्त की शराब पिलाने वाले अब कहाँ मिलेंगे और वैसे भी आप तो शराब से कोसों दूर रहते हैं। हाँ, पिस्ता-वादाम वाली भाँग की शरबत मिल जाए तो कड़ाके की ठंढ में भी दो-चार गिलास देख लेते हैं।

            मेरी बेवाक टिप्पणी पर काका जरा सहमे। उन्हें भी भान हो गया कि किसी शब्द-जाल में उलझे हुए हैं। आदमी जब किसी बात के गहन प्रभाव में आ जाता है तो अनचाहे-अनजाने ही बड़बड़ाने लगता है। लगता है आज काका के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।  

खटिया पर इत्मिनान से विराजते हुए कहने लगे— पूँजीवादी सभ्यता के दौर में सबकुछ वनियों के हाथ बिक चुका है—सभ्यता-संस्कृति, खान-पान, धरम-ईमान सबकुछ। ये वनियें-व्यापारी जैसा चाहते हैं, दुनिया को नचाते रहते हैं। आम तो आम खास भी इनकी ही मुट्ठी में कैद रहते हैं। नेता-अभिनेता सब इनके गुलाम होते हैं। चुनाव में चन्दा सबसे ज्यादा इनकी ओर से ही आता है। फिल्में बनाने के लिए मुँहमांगी दौलत भी ये ही मुहैया कराते हैं। व्यापारी तो व्यापारी होता है—शुद्ध नहीं, विशुद्ध व्यापारी। अपने वणिक-धर्म से कोई समझौता नहीं, ज़मीर से समझौता भले हो जाए । सुनार बिना मिलावट के अपनी माँ के गहने भी नहीं बनाता और न ग्वाला बिना पानी मिलाये दूध अपने बाप को पिलाता है। कहता है—हाज़मा खराब हो जायेगा। जीवन-रक्षक दवाइयों का रोज़गार  हो या जीवन-भक्षक ड्रग का सब  व्यापारी के हाथ में ही है । इनकी कृपा-दृष्टि के अभाव में न तो चुनाव जीते जा सकते हैं और न फिल्में ही बनाई जा सकती हैं। कहते हैं न कि जहर से जहर कटता है, इसी थ्योरी पर भ्रष्टाचार से भ्रष्टाचार ढकने का उपाय किया जाता है—काका हाथरसी ने बहुत पहले ही सबक दे दिया है—रिश्वत लेते पकड़े जाओ, तो रिश्वत देकर छूटो...। पहले उत्पादक और उद्योगपति होते थे। अब सिर्फ उद्विग्न व्यापारी रह गए हैं। यही कारण है कि उत्पाद की गुणवत्ता गौण हो गयी। दादा की खरीदी सायकिल पोता चलाता था। गौरव के साथ लोग कहते थे, ये चीज मेरे दादाजी की है - अभी भी फिटफाट। अब तो एक जीवन में कितनी सायकिलें बदल जाती है, कोई ठिकाना नहीं। क्योंकि ज्यादातर चीजें रीसायकलिंग नेचर की हो गयी हैयूज एण्ड थ्रो वाली विकसित पूँजीवादी सभ्यता में इन्सान भी इसी कैटेगरी में माना जाता है। खासकर लोकतन्त्र में तो यूज एण्ड थ्रो का ही चलन है—वोट ले लो, चोट दे दो। चुनाव जीतने के बाद फिर कहाँ होश रहता है नेता को ! गरीबी, भूखमरी, अकाल, बाढ़, महामारी...सब पुराने अन्दाज में चलते रहते हैं। इस यूज एण्ड थ्रो की ही विशेषता है कि लाशों का भी व्यापार होता है।

मैंने टोका—किन्तु इन सब बातों से धनतेरस का क्या सम्बन्ध है काका ?

सम्बन्ध है, तभी तो कह रहा हूँ।—काका ने सिर हिलाते हुए कहा—धनतेरस का मौसम आते ही विज्ञापनों की बाढ़ आ जाती है। यहाँ तक कि बिना डाउन पेमेन्ट के कीमती से कीमती सामान भी ये वनियें तुम्हारे घर पहुँचाने को उतावले रहते हैं। भले ही उसका EMI भरने में विफल होकर, तुम डिप्रेशन में जाकर आत्महत्या क्यों न कर लो। औकात से बाहर पैर पसारने की लत इन चोंचलेबाज व्यापारियों की ही देन है।   

हामी भरते हुए भी मैंने आपत्ति जतायी—सो तो है, नेता और व्यापारी मौके की तलाश में रहता है और इस तलाश के क्रम में उसके पास दिल नहीं होता, इन्सानियत नहीं होती। ज़मीर होने का तो सवाल ही नहीं। होती है सिर्फ फितूरी दिमाग—जैसे भी हो लूट लो । किन्तु हम-आप क्या इसके लिए दोषी नहीं है? हम अपने दिमाग का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? क्यों फँस जाते हैं चोंचलेबाजों के फंदे में? क्यों भूल जाते हैं अपनी हैसियत? देखादेखी में बहक क्यों जाते हैं?

तुम्हारा कहना भी ठीक ही है—अपनी आवश्यकता और स्थिति का विचार तो हमें करना ही चाहिए। किन्तु इन पी.आर.एजेन्टों के चक्कर में सबकी बुद्धि मारी जाती है। कुएँ में ही भंग मिली हो,फिर क्या करोगे ! सजी-धजी दुकानों के चमक से आँखें चौंधिया जाती हैं और हम उलजलूल चीजें उठा लाते हैं बाजार से। अपनी जेब ढीली करके, व्यापारियों की तिजोरी भर देते हैं। सच्चाई ये है कि धनतेरस नाम का कोई सनातन त्योहार है ही नहीं और इस दिन का भौतिक धन से कोई वास्ता भी नहीं है। शास्त्रकारों ने शरीर को आद्यसुख का साधन कहा है और इसकी सुरक्षा हेतु ईश्वर का जो स्वरुप है वो हैं भगवान धनवन्तरि। उन्हीं की जयन्ती है कार्तिककृष्ण त्रयोदशी। हमें चाहिए कि उस दिन विधिवत इनकी पूजा-अर्चना करें और इसके साथ ही एक और विशिष्ट कर्म है—मृत्यु के देवता यम के नाम रात्रि में दीपदान। हालांकि ये काम अलग-अलग समाज में अलग-अलग रुपों में निपटाया जाता है। किन्तु धनवन्तरि जयन्ती का तो स्वरुप ही विकृत हो गया है।

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