गोवर्द्धनपूजाःपर्यावरण-उपासनाःकृष्ण की अद्भुत व्यवस्था
प्रसंग पौराणिक है,कथा भी
लगभग सर्व विदित है। मैं सिर्फ स्मरण दिला रहा हूँ। आज का ही वह दिन था— कार्तिक
शुक्ल प्रतिपदा। महीनों पूर्व से गोकुल में धूमधाम से तैयारियाँ चल रही थी। परम्परा
थी- देवराज इन्द्र की पूजा की। ये वही देवराज है,जो सर्वाधिक कमजोर मन और अति चंचल
चित वाले हैं। ऐशोआराम की जिन्दगी गुजारने वाले। सोमपान कर मस्त रहने वाले। चिर
यौवना,परम सुन्दरी,सदा षोडशवर्षीया अप्सराओं के नृत्य में मदमस्त रहने वाले। अति
कामुकता ने इन शचि-पति को सहस्राक्ष बना दिया था— महर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या के
साथ इन्होंने छल पूर्वक(छद्मरुप से)भोग किया, जिसके कारण शापित होकर- योनि-प्रेमी
के पूरे शरीर में एक हजार योनियाँ ही योनियाँ हो गयी। बाद में कृपा वश उन योनियों
को आँख में बदलने का वरदान भी मिल गया और
इस प्रकार देवराजा का एक नाम—सहस्राक्ष प्रसिद्ध हो गया । किन्तु योनि हो कि आँख, है
तो कल्पनीय – कैसी लगती होगी - उनकी वह काया! संसार
में कहाँ क्या हो रहा है , इसके लिए अवकाश बहुत ही कम रहता है उनके पास। उनकी
खुमारी सिर्फ दो बार टूटती है- जब कोई गहन तपस्या करने लगता है, तो उनका सिंहासन
डोलने लगता है और अपने सहयोगी-सहयोगिनियों का सहयोग लेकर, उसे सताने, धमकाने, भ्रष्ट
करने पर आतुर हो जाते हैं। और दूसरी बार तब नशा टूटता है, जब राज्य छिन जाता है
असुरों, दैत्यों आदि द्वारा। तब, कभी विष्णु, कभी शिव के शरण में जाते हैं।
उन्हीं विष्णु का द्वापर में
जब अवतार हुआ तो, इन्द्र को सबक सिखाने का अच्छा अवसर मिल गया कृष्ण को। कृष्ण की यह
सोच - एक पन्थ बहुकाज वाला था। इन्द्र का मद भंग करना, पर्यावरण संरक्षण हेतु जनता
को प्रेरित करना, परम्परागत चली आ रही कुछ रुढ़ियों को भी तोड़ना इत्यादि।
नदियों,पहाड़ों,पर्वतों,पेड़-पौधों
की पूजा उपासना आर्यावर्त की बहुत ही पुरानी
परम्परा रही है। इनकी सजीवता का ज्ञान और भान हमें बहुत पहले से था। इसके
पीछे गहन रहस्य-संकेत भी है- एकोऽहं
बहुस्यामः...एक
ही तो अनेक हुआ है। जड़ और चेतन तो सिर्फ बाहरी तौर पर कहने-समझने की बात है। वस्तुतः
जड़ है कहाँ कुछ ? जो भी है, चेतन ही नहीं, परमचेतन का ही विस्तार है। सत्य की
सत्ता के अतिरिक्त कहीं कुछ है ही कहाँ !
अब भला, सत्य को असत्य और
असत्य को ही सत्य मान बैठे हम, तो इसमें कोई क्या करेगा? छोटी सी, इस एक बात को
समझाने के लिए ही अनेक बातों को समायोजित करना पड़ा। इतने सारे ग्रन्थ लिखने पड़े।
इतने सारे उपदेशक आये, चले गये और आते भी रहेंगे भविष्य में । किन्तु कोई केवल कह
या लिख भर ही तो सकता है। जानना तो स्वयं हमें ही होगा। इसमें कोई क्या सहायता कर
पायेगा !
जान लेगा जो, सद्यः पाशमुक्त
होकर पशुपति हो जायेगा, बुद्ध हो जायेगा, महावीर हो जायेगा, ईशु, मुहम्मद, नानक, कबीर,
साईं, जरथुस्र, लाओत्से, सुकरात कुछ भी हो जा सकता है, क्यों कि ये सभी उस ‘एक’ के
ही तो अनेक नाम भर है। और इस नाम में आखिर रखा ही क्या है? रखा तो है उस ‘नामी’
में।
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