दान-धर्म का शोरशराबा

 दान-धर्म का शोरशराबा

वटेसर काका एकदम से लालचोगा धारण किए मन्दिर की ओर जाते हुए दिखे। हालाँकि किसी को कहीं जाते वक्त टोक-टाक नहीं करना चाहिए। पुराने लोग  कहते हैं कि इससे यात्रा बिगड़ जाती है—एकदम बिल्ली के रास्ता काटने जैसा हो जाता है। किन्तु मुझे आजतक ये बात समझ नहीं आयी कि बिल्ली को रास्ते से क्या सम्बन्ध है ! फिर भी शकुनशास्त्र को बिलकुल नकारा तो नहीं जा सकता न ! इसपर अन्वेषण करना चाहिए।  अतः थोड़े झिझक और थोड़ी सी भूमिका के साथ, खिड़की के झाँकते हुए मैंने सवाल किया—क्या बात है काका ! बड़े तड़के निकल पड़े आज,  मेरे घर चाय पीए वगैर ही !!

काका भी कम नहीं। एकदम पलट पड़े। मैंने दरवाजा खोलकर उन्हें अन्दर आहूत किया। मुस्कुराते हुए बोले — तुम भी बहुत चतुर हो। चाय पिलाकर अक्षय पुण्य लूटना चाहते हो।

मैं समझा नहीं। ऐसा क्या है, चाय तो आप बराबर हमारे हाथ की पीते हैं, फिर आज अक्षय पुण्य की बात कहाँ से आ गयी?

हाथ झटकाते हुए तपाक से बोले— जानते नहीं आज क्या है? तुम आधुनिक लोगों में यही खामी है। सनातन रीति-रिवाज, धरम-करम भी भूल-भाल जाते हो। तुम्हें जानना चाहिए कि आज अक्षयदिवस है। कार्तिक शुक्ल नवमी तिथि को अक्षयनवमी के नाम से जाना जाता है। इस दिन लोग आँवले की पूजा करते हैं। आंवले की माला बना कर भगवान विष्णु को अर्पित करते हैं। आंवले के वृक्ष-तले भोजन बनाकर, प्रसाद ग्रहण करते हैं। शास्त्र कहते हैं कि इस दिन का किया गया कर्म अक्षय फलदायी होता है। भतुआ (स्वेत कुष्माण्ड) दान करने का नियम भी है। विशेष बात ये है कि दान का ये कर्म गुप्तरीति से होना चाहिए। इसीलिए भतुये (भूरा) को थोड़ा सा काट कर गुफानुमा बनाते हैं और उसी में भर कर, सोना-चांदी, रत्नादि छिपाकर दान करते हैं। कबीर ने बड़े रोचक संदेश दिए हैं—दाहिने हाथ से दान करे तो बांए हाथ को पता भी न चले—सच पूछो तो ये सब इसी शास्त्रवचन का इशारा है। किन्तु अब तो जमाना बदल गया है। हम थोड़े प्रबुद्ध हो गए है यानी कि होशियार हो गए हैं। यही कारण है कि धर्म-कर्म की नयी परिभाषा, नये विधि-विधान रच लिए हैं—बिलकुल अपने मनमाफिक। सोचने वाली बात है कि किसी काम को किसी ने जाना ही नहीं तो वो काम किस काम का ? अब तो लोग ट्टटी-पेशाब करते हुए भी सेल्फीशूट करके खटाक से पोस्ट कर देते हैं कि आज हमने ये भी किया है। फिल्मी दुनिया के होनहार डाइरेक्टर बेडरुम सीन को ज्यादा अहमियत देते हैं। पहले के निर्देशक बेवकूफ हुआ करते थे कि ऐन मौके पर ही लाइट डीम कर देते थे और नादान दर्शक की उत्सुकता बनी ही रह जाती थी कि क्या हुआ यहाँ पर। कुछ समझदार और अनुभवी दर्शक ही समझ पाते थे इस गुप्तज्ञान को। जबकि आज का किशोर भी अच्छी तरह जानता-समझता है। क्योंकि मॉर्डन डाइरेक्टर सबकुछ सिखा-बता दिए हैं कि हनीमून और सुहागरात में क्या होता है...।

मैंने टोका—आप तो अक्षयनवमी की बात बता रहे थे। ये फिल्मी बखिया क्यों उघेड़ने लगे?

काका जरा सम्हले— तुम जानते ही कि बात में बात का लरझा निकलता है जैसे मेनरोड से गलियाँ निकलती हैं।  मैं कह रहा था कि दान-धर्म को किसी ने जाना ही नहीं, देखा ही नहीं, अखबारों या कि कम से कम सोशलमीडिया के जमाने में वाट्सऐप-फेशबुक पर फोटो-शोटो पोस्ट ही नहीं हुआ तो वैसा दान-पुण्य किस काम का ! यात्रा जनित सुविधाएं इतनी हो गयी हैं कि तीर्थ भी पिकनिक हो गए । मन्दिरों और तीर्थों में भीड़ काफी बढ़ी है। तुम क्या समझते हो कि ये भक्तों की भीड़ उमड़ती है ! इस भ्रम में जरा भी न रहना।  मन्दिर-तीर्थ सबके सब पिकनिक-स्पॉट बन गए हैं। देख रहे हो इसे भुनाने के लिए हमारी सरकारें भी कितनी तत्पर रहती हैं। बाकायदा पर्यटन मन्त्रालय है इसके लिए। तीर्थयात्रा के बहाने ही कम से कम घूमना-फिरना, मिलना-जुलना थोड़ा-बहुत हो जाता है। बाकी समय तो स्क्रीनटच या फाइलडीलिंग से वक्त ही कहाँ मिलता है ! फोट-फाटो शूट करके अगले पर प्रभाव जमाना भी उद्देश्य रहता है कि हमने इतना कुछ कर लिया। मन्दिरों के बाहर शिलालेखों में दानदाताओं की सूची जरुर लगायी जाती है। शिलालेख न लगाये जाएँ तो हो सकता है कि नये मन्दिर भी खड़े न हों। तुम्हें ये भी पता होना चाहिए कि ये शिलालेखी नामों की भीड़ भक्तों के नहीं बल्कि ज्यादातर घूसखोरों, घोटालेबाजों और मनीलॉन्डरों की होती है। पसीने की कमाई से तो भीषण मंहगाई में रोटी के साथ दाल-सब्जी जुटाना भी मुश्किल है। हजारों-लाखों में दान भला कहाँ से करेगा कोई? आजकल तो भिखारी भी भीड़वाली जगह को ही पसन्द करते हैं। दान करते समय का फोटो बहुत काम का होता है। तुमने देखा ही होगा—घातक महामारी के समय दान-धर्म के कितने फोटो-वीडिओ हाईलाइट हुए सोशलमीडिया में। दरअसल काम अधिक , बातें कम का जमाना नहीं रहा । बातें अधिक, काम कम— में विश्वास बढ़ा है। ऐसे में गुप्तदान का भला क्या मोल रह जाता है? फिर भी पुराने सोच वाले लोग करते ही हैं, भले ही रीति नयी हो उनकी ।

आप बिलकुल सही कह रहे हैं काका। आपदा को भी भुनाने का ट्रेन्ड चल गया है। बाढ़, अकाल, महामारी सब भुनाये जाते हैं आज की दुनिया में। पिछले दिनों में विश्वव्यापी महामारी कोरोना भी कम भुनाया नहीं गया है। हर मौकापरस्त अपने-अपने ढंग से भुनाया है इसे। भुनाने की कला होनी चाहिए। असली गुप्तदान तो दिखावे और शोरशराबे के बीच कहीं दफन हो गया है।  

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