पर्यावरण-पूजा-प्रणेता-श्रीकृष्ण

 पर्यावरण-पूजा-प्रणेता-श्रीकृष्ण

हम सभी प्रायः मूर्ति पूजक हैं। कुछ मूर्ति विरोधी यानी अमूर्त-उपासक भी और कुछ मूर्ति भंजक भी । हालाँकि मूर्त का भंजन नहीं करेंगे तो अमूर्त तक जायेंगे कैसे ? अमूर्त को पायेंगे कैसे ? अमूर्त को अमूर्त में विलीन करेंगे कैसे ? ये सारी चेष्टायें शरीर से परे होकर, आत्मा के रास्ते, परमात्मा तक पहुँचने की ही तो है ?

वस्तुतः अमूर्त तक पहुँचने का, पाने का या कहें होने का एक साधन मात्र है मूर्ति, जिसे नासमझसी पूर्वक कुछ और ही समझ लिया गया है। राम की मूर्ति, कृष्ण की मूर्ति, दुर्गा और काली की मूर्ति, अनगिनत देवी-देवताओं की मूर्ति , भूत-प्रेतों की मूर्ति।  यहाँ तक कि बुद्ध और महावीर की भी मूर्ति बना डाला है हमने। कुछ ने हाथ-पैर वाला मूर्ति तो नहीं बनाया, परन्तु काले पत्थर का एक चौखटा ही रख लिया चूमने को।

सोचने वाली बात है या ठीक से समझें तो हँसने वाली बात है— मूर्ति-पूजक तो पूजक हैं हीं, जिन्होंने मूर्ति-पूजा का घोर विरोध किया, आज हमने उनकी ही मूर्तियाँ बना डाली और उसी भाँति पूजने भी लगे। जिस भाँति न पूजने का सिद्धान्त दिया था उनके प्रवर्तकों ने, प्रणेताओं ने, धर्मगुरुओं ने, ठीक उसके विपरीत ही करने लगे हम।

मूर्ति बना लेना बड़ा आसान है। गढ़ लेना बहुत सरल है। कठिन तो है उसके आगे की बातें, जो हम कदापि कर नहीं पाते। कई-कई जन्म बीत जाते हैं।

मूर्ति पूजा का विरोध कोई नया नहीं है। ऐसा नहीं है कि वुद्ध और महावीर ने ही ये कदम उठाये। बहुत कम लोगों का ही ध्यान इस ओर जा पाता है कि द्वापर काल में ही कृष्ण ने अपने अवतरण के थोड़े ही दिनों बाद ऐसा कठोर कदम उठाया था। वर्षा अच्छी हो, खशहाली हो—इसके लिए लोग देवराज इन्द्र की पूजा किया करते थे, जिसका धोर विरोध किया कृष्ण ने और अपने बालहठ पूर्वक पुरवासियों को मना भी लिया। और फिर क्या हुआ आगे—इस रोचक कथा से लोग प्रायः अवगत हैं।

इन्द्रप्रीत (इन्द्र की पूजा) के विरोधियों को सबक सिखाने के लिए वरुण (मेघाधिपति, जलाधिपति) को आदेश दिया गया, जिन्होंने पुरजोर प्रयास किया गोकुल को बहा डालने का, डुबो डालने का । और ऐसे में पुरवासियों की रक्षा के लिए, इन्द्रप्रीत की अवहेलना के लिए कृष्ण ने सीधे गोवर्द्धन पर्वत को ही उठा लिया। गोकुल वासियों ने अपनी-लाठियों के सहारे टेका भी लगा दिया, क्यों कि उन्हें थोड़ी आशंका थी—कहीं पहाड़ गिर न जाये और मेरा प्यारा लल्ला घायल न हो जाये।

इन पौराणिक गाथाओं में छिपा है कृष्ण का अद्भुत पर्यावरण-प्रेम। और प्रेम की रक्षा तो अपरिहार्य रुप से होनी ही चाहिए न ?  

वस्तुतः पर्यावरण की महत्ता दर्शाने का प्रयास रहा है कृष्ण का। देवी-देवताओं की विविध पूजाओं  के रहस्य को यदि हम ठीक से जानने-समझने का प्रयास करें तो बात बिलकुल साफ समझ आ जाए। वैदिक परम्पराओं में मूलतः हम वरुण, पृथ्वी, अनल, अनिल आदि की ही तो पूजा करते हैं। सृष्टि के मूल तत्त्वों की ही येन-केन-प्रकेरण उपासना है वैदिक कर्मकाण्ड।

पीपल-वट की पूजा, पहाड़ और नदियों की पूजा अनन्त पर्यावरण-रक्षण-पूजन ही तो है, जिसे हम अपनी नासमझी में कुछ के कुछ समझ बैठे हैं।

वृक्षों की,पहाड़ों की नदियों की,धरती,वायु और आकाश की रक्षा करना हमारा धर्म है। परम कर्तव्य है। ध्यान देने की बात है कि ये सभी रहेंगे, तभी हम भी रहेंगे। अन्यथा नहीं। ये नष्ट हुए तो समझें हम भी नष्ट हो गए। क्यों कि हमारा अस्तित्व इन्हीं पर अवलम्बित है। अस्तु। 

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