चुनावी चर्चे
कई दिनों बाद वटेसर काका का दर्शन हुआ—एकदम
से ‘मुंहलटकन मोड’ में। ऐसे में अ-दर्शन का
वजह जानना अपना कर्तव्य बनता है। नियमित हालचाल लेना—अधिकार-सूची में तो पहले से
ही है, क्योंकि प्रायः हर छोटी-बड़ी बात हम एक दूसरे को साझा करते रहते हैं।
हालाँकि नयी चलन सिर्फ
अधिकारों को याद रखने भर की है। कर्तव्य का बोझ लिए फिरना कोई बुद्धिमानी नहीं।
कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हमेशा परेशान रहता है और दूसरे को भी परेशानी में डालते रहता
है—ऐसा काका कहा कहते हैं। यही कारण है कि लोकतन्त्र में हमारे क्या-क्या अधिकार हैं—
नेता लोग प्रायः स्मरण दिलाते रहते हैं। जरा भी मौका मिले कि सरकारी सम्पत्ति और
जहाँ तक हो सके किसी विरोधी के निजी सम्पत्ति को भी सार्वजनिक तौर पर नष्ट कर देना,
लोकतन्त्र का पहला विशेषाधिकार है। वैसे भी ‘मौब’ पर तो कोई कानूनी कारवाई होती नहीं।
जनता का एक ही कर्तव्य होता है—
समय पर इन्हें सत्तासीन बना देना। फिर तो जैसे माँग में सिन्दूर पड़ते ही दुल्हन
दासी बन जाती है, वैसी ही जनता भी नेता की कठपुतली हो जाती है—जैसा जी करे नचाओ, रुलाओ
या हँसाओ। । कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र में जो कुछ है, सब अधिकारों
में ही समाहित है। “ अधिकार खोकर बैठ रहना ये महा
दुष्कर्म है, न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। ”— कवि की स्वर्णिम पंक्तियों का गूढ़
अर्थ निकाला है नेताओं ने। ऐसे-ऐसे अर्थ जिनके बारे में कवि ने सपने में भी नहीं
सोचा होगा।
खैर।
आज काका बड़े उदास दिख रहे थे। लगता है कोई गहरा सदमा उन्हें लगा है। पूछने पर
कहने लगे— “बड़ी आशा थी कि बुढ़ौती में कुछ रोजगार मिल जायेगा। दिन भर के थके-मादे
शरीर और मन के सुकून को दो-चार पाउच ढालने को मिल जायेंगे। परन्तु दिल्ली-वयार ने
सब उड़ा दिया। फिर वही ढाक के तीन पात। फिर वही सुशासन, फिर वही शराबबन्दी,फिर वही
पोशाक और सायकिल योजना । औरतों को तो सिर चढ़ा दिया सुशासन बाबू ने। शराबवन्दी
करके मन बढ़ा दिया। मर्दों की अब परवाह ही नहीं करती। अरे भाई ! कलाकन्द खाते-खाते मुंह छिलाने लगे, तो मनफेर में लकठऊवो खाना चाहिए। और
ये क्या गारन्टी है कि पहले किसी ने घास-भूसा खाया है तो अगला भी वही करेगा
! किसी ने गलती से खा लिया, तो उसका प्रायश्चित तो करवा ही रही है
बाद वाली सरकार। पहले वाली को प्रायश्चित करवाना बाद वाली का पहला कर्तव्य होता है—
ये बात तो पड़ोसी देश से सीख ही लेनी चाहिए। सुना था अबकी बार सरकार बदलकर, नये को
मौका दे दी जनता जनार्दन ने तो कम से कम दस लाख बेरोजगारों को रोजगार जरुर दे दिया
जायेगा और इतना ही नहीं काफी वक्त से रुखे गले की तरावट का उपाय भी लगे हाथ कर ही
दिया जायेगा। ऐक्जिटपोल के आश्वासन का जश्न मनाने के लिए कल ही सुना कि मुहल्ले से
सात बाइकें उड़ा ली गयी। उधर लाल चारदीवारी से बाहर आने को व्याकुल हैं शागिर्द लोग।
परन्तु सारी मुरादों पर पानी फिर गया।
इरादे नाकामयाब हो गए। ये जनता भी बडी अजीब है, नेताओं की तरह आश्वासन देकर, सफा
मुकर जाती है। वादाखिलाफ़ी अब जनता भी खूब सीख गयी है। और हाँ,इन औरतों पर तो
भरोसा करना ही बेवकूफी है। कहेंगी कुछ, करेंगी कुछ। इसीलिए मीडियावालों ने इन्हें
साइलेंट वोटरलिस्ट में डाल दिया है। क्या दिक्कत थी, बबुआ को पैतृक कुर्सी मिल ही
जाती तो कोई पहाड़ थोड़ी टूट पड़ता ! आँखिर नयी पीढ़ी को भी
तो गड्ढे और सड़क का फ़र्क समझना चाहिए। गड्ढे को पाट-पूटकर सड़क तो सभी बना देते
हैं। सड़क को गड्ढे में तबदील करने की कला तो कुछेक को ही मालूम है न। नाइन्साफी तो
इस बात की है कि इस बार करोड़ों ढकार गयी जनता। सिर्फ पूड़ी-आलूदम और पाउच पर वोट
डालने वाली जनता भी इस बार बड़े वाले गुलाबी नोटों पर बैठे गांधीबाबा का मान
जरा भी नहीं रखी। सोचो जरा इसका क्या नतीजा होगा? वादाखिलाफी
नेता का काम है। जनता भला ऐसी हरकत क्यों कर देती है? वोट
नहीं देना था, तो नोट और पाउच भी नहीं लेना चाहिए था।”
काका
की सिरफिरी बातों में मुझे कोई रस नहीं मिल रहा था। क्या काका सच में सठिया गए
हैं, जो ऐसी सरकार की कामना लिए बैठे हैं ! उधर बड़े वाले
राष्ट्र में तिपाई वाली सरकार के कारनामों की क्या काका को कोई खबर नहीं है क्या !
जिसने दिशा को दिशा दिखा दिया और सुशान्त को बिलकुल शान्त कर दिया ।
अब अर्णव पर सूप-बढ़नी लेकर पड़ी है। न जाने तीन मुंह वाली बोतल से कौन सा जिन्न
निकला कि सबको चुप करा दिया। न तोता बोला और न शेर दहाड़ा। फिर वही पुराने चर्चे चलने लगे—इवीएम-सीवीएम
वाली। चुनाव के पहले ही चुनावी चर्चे बन्द हो गए।
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