कुछ न कुछ होते रहना चाहिए

 

कुछ न कुछ होते रहना चाहिए


वटेसरकाका ने बड़े पते की बात कही — “ पानी का बहाव बन्द हो जाए, तो उसमें दुर्गन्ध आने लगता है। नये जमाने वालों ने कुएं को भी बन्द पानी वाला ही समझ लिया है, इसीलिए बेरोक-टोक बहने-रिसने वाले नलके का चलन हो गया है,जिनका पचास प्रतिशत पानी तो बरबाद ही हो जाता है, कुव्यवस्था के कारण। कुएँ भरे जा रहे हैं और टोटियाँ लगायी जा रही हैं। बात दरअसल ये है कि लोकतन्त्र में हमेशा कुछ न कुछ होते रहना चाहिए। सकारात्मक करने की आदत और औकात न हो तो नकारात्मक ही सही, पर कुछ न कुछ होते रहना जरुरी है। दंगे-फसाद,तोड़-फोड़,हड़ताल-सड़ताल इसीलिए होते रहते हैं।

काका की बातों पर हठात मेरा ध्यान चला गया। बहुत सी योजनायें बनती ही इसीलिए है कि कुछ भाई-भतीजों का काम चले। कुछ सरकार में घुस जाते हैं, कुछ बाउण्ड्रीवाल पर खड़े मोर्चा सम्भालते हैं। असली चौआ-छक्का तो वे ही लगाते हैं। ये नल-जल-योजना भी इसी कमीशनखोरी की उपज है। शहर से लेकर गांवों तक ये योजना बड़े जोरशोर से चल रही है। नेताओं, अफसरों से लेकर ठीकेदारों तक के तोंदिल घेरे तेजी से बढ़ रहे हैं। सबका अपना-अपना हिसाब है,अपना-अपना तरीका है। ऐक्चुअल कमीशन खाने के कई वर्चुअल तरीके ईज़ाद हो गए हैं। कहाँ-कहाँ पकड़ोगे ! बिना कमीशन लिए वीडीओ साहव रिपोर्ट करने से रहे। नेता तो पहले ही छाली मार जाते हैं। एक दिन एक ठेकेदार अपना रोना रो रहा था—क्या करुँ, 80-85% तो यूँ ही चला जाता है, ईमानदारी से काम क्या करुँ खाक !

सरकारी योजनाओं में ज्यादातर खाक ही होता है। आम की हालात वैसी की वैसी ही बनी रहती है। गरीबी, बेरोजगारी, लूट-मार सब यूँ ही चलते रहता है। बहुत पहले ही हमारे एक ईमानदार प्रधानसेवक ने दावे के साथ कहा था कि जितना भेजता हूँ, जगह पर बामुश्किल उसका 15 प्रतिशत ही पहुँच पाता है, बाकी भ्रष्टाचार के पेट में समा जाता है। मजे की बात ये है कि भ्रष्टाचार का ये ग्राफ ऊपर से नीचे की ओर चलता है। जितना ऊपर उतना भ्रष्ट। इधर नये वाले प्रधानसेवक ने कुछ ऐसी-ऐसी नायाब योजनायें बनायी हैं कि बेचारे बिचौलियों के लिए आफत आ गयी है। उनके सारे रोजगार चौपट हो रहे हैं। और आप जानते ही हैं कि बिचौलिये में बगुले से लेकर गैंडे तक सब आते हैं।

काका ने अपनी बात आगे बढ़ाई — “ अभी ये किसानों वाली नई लहर देख रहे हो न, वो भी उसी कुछ करते रहने की कड़ी है। किसान-बिल से किसानों का सीधा कोई विरोध भी नहीं है और जो विरोध दीख रहा है वो उनके तथाकथित रहनुमाओं की कृपा-व्यापार का प्रतिफल है। धारा 370 की दुकान का शटर गिर गया, रामलला वाली अंगीठी भी बुझ गयी। बहुतों के अरमानों की राख पर लीप-पोत कर भूमिपूजन भी हो गया। एन.सी.आर. भी ठंढा पड़ गया। कितने किसान पिछले 15-20 सालों में आत्महत्या कर लिए, कितने मर-खप गए। उस दिन कान पर जूँ नहीं रेंगी। परन्तु अब नये कानून को लेकर हायतौबा मच रही है । जानेमाने दुकानदारों द्वारा किसान बिल का एडीटेड एडीशन पढ़ाया जा रहा है। इसमें रिवार्ड वापसी गैंग भी हैं, टुकड़े-टुकड़े गैंग भी । और भी कुछ-कुछ। इधर एक और ग्रूप ने भी बिगुल फूँक दिया है—यमराज के छोटे भाई ने। ”

यमराज के छोटे भाई ने? मैं समझा नहीं।

तुम भला कैसे समझोगे ।”—मेरी बात पर काका ने व्यंग्यात्मक लहज़े में कहा— “डॉक्टरों को यमराज का छोटा भाई कहते हैं। ऐसा इसलिए कि यम तो सिर्फ प्राण ही लेता है और ये महानुभाव पहले जी भर कर धन मोचन करते हैं, फिर प्राण भी ले लेते हैं— यमो हरति वै प्राणान्, त्वं तु प्राणान्धनानि च...। ”

ये आप क्या कह रहे हैं काका? डॉक्टर को तो भगवान का दूजा रुप मानते हैं लोग।

मैं बिलकुल सही कह रहा हूँ। भगवान का दूजा रुप होते होंगे पहले कभी। अब तो सर्चलाईट लेकर ढूढ़ना होगा उस रुप को। नयी पीढ़ी को शायद ही पता हो, बड़ी योजनाबद्ध तरीके से हमारे चरक-सुश्रुत सिद्धान्तों का गला घोंटा गया है। आयुर्वेद को निरस्त करके, एलोपैथी का ढिढोंरा पीटा गया—उस एलोपैथी का जिसके पास मूल रुप से चार-छः दवाईयाँ ही हैं सिर्फ। और वो भी भयंकर साइड एफेक्ट वाली। कोई भी अंग्रेजी दवा बिना साइड एफेक्ट की हो ही नहीं सकती—ये तुम गांठ बाँध लो बबुआ। ये साक्षात यमदूत एक ओर नयी-नयी बीमारियाँ पैदा कराते हैं, तो दूसरी ओर उसके इलाज के नाम पर धन का दोहन करते हैं। ये सारा खेल बड़े पैमाने पर बड़े सांठ-गांठ के साथ चलता है। वैज्ञानिक से लेकर उद्योगपति तक इसमें शामिल हैं। आधुनिकता और विकास के नाम पर घातक रासायनिक प्रयोगों का बाजार गरम हुआ। अनेकानेक नई बीमारियाँ पैदा की गयी। हवा, पानी, मिट्टी सबकुछ विषैला कर दिया गया। आज कोई स्वस्थ है तो आश्चर्य की बात है। बीमार करने में कोई कसर नहीं छोड़ा गया है प्राणी-पदार्थों को। ”

आप तो एकदम से सूप-बढ़नी लेकर पड़ गए हैं इन पर— मेरे कहने पर काका थोड़े तैश में आ गए — “ मैं भला क्यों सूप-बढ़नी लिए फिरुँ इनके पीछे। ये पड़े हुए हैं हमारे पीछे— तोप-बन्दूक लेकर । नये नियम के तहत BAMS को सर्जरी का अधिकार दे ही दिया गया तो कौन सा ज़ुल्म हो गया? क्या इन्हें इसका फुलफॉर्म भी नहीं मालूम? जुल्म तो अब तक होते आया है आयुर्वेद के साथ। इसके डिग्रीधारियों के साथ। दरअसल इनका वर्चश्व हिल रहा है। इनका एकाधिपत्य छिन रहा है—इसी बात का खौफ है इन्हें। जरा इन मूर्खों से पूछो कि फादर ऑफ सर्जरी किसे कहा जाता है? तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि महर्षि सुश्रुत के बनाये-सिखाये शल्य-शालाक्य उपकरणों की बिलकुल ट्रू-कॉपी हैं—आधुनिक सारे सर्जिकल एक्यूपमेंट। शल्यक्रिया के उस पितामह को ही विसार कर ये घटिया खेल चल रहा है पिछले लम्बे समय से। हमारा आयुर्वेद तो मनुष्य के धड़ पर हाथी-घोड़े के सिर भी जोड़ देता था अपनी शल्यविधि से। च्यवन जैसे जराजीर्ण को भी चिर युवा बना देता था अपनी महौषधि से। टेस्ट्यूबबेबी हो या सरोगेसीमदर – सबकुछ हमारे मनीषियों को ज्ञात थे। हमारे विकसित विज्ञान से भयभीत होकर, ईर्ष्यावश तहश-नहश किया गया है उपद्रवियों द्वारा। और मजे की बात तो ये है कि अब अपने ही मूर्खाधिराजों द्वारा विरोध भी हो रहा है। ”

काका की बातों पर सोचने को मैं विवश हो गया। क्या ये आन्दोलनकारी सच में देशहित में, जनहित में किसानहित में बातें कर रहे हैं या सिर्फ अपनी कच्ची रोटियाँ सेंक रहे हैं बुझे अलाव पर?

काश ! हमारा आयुर्वेद फिर से पूर्व स्वरुप में विकसित हो पाता। हमारे किसान वगैर रासायनिक ज़हर के फसल उगाने लगते। दागी, भ्रष्ट नेताओं की चोचली बातों में न आते। विचौलियों, दलालों और कमीशनखोरों के तोंद फोड़ दिये जाते। घूसखोर अफसरों को कान पकड़ कर कुर्सी से नीचे ढकेल देते। ‘लोकतन्त्र में कुछ न कुछ होते रहता है’—इस जुमले को ही निरस्त करने की जरुरत है। लोकतन्त्र को भेड़तन्त्र बनने से रोकने की जरुरत है। अपने विवेक से काम लेने की जरुरत है। अस्तु।

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