भ्रष्टाचार का खिताब

 

भ्रष्टाचार का खिताब

वटेसरकाका की पैनी नज़रों से बचना बड़ा मुश्किल है। टी.वी., अखबार से कोई मतलब नहीं रखते, ऍनरॉयड फोन को अफीम की डिबिया कहते हैं। चौक-चौराहे, गली-नुक्कड़ पर बैठकी की प्रवृत्ति भी नहीं है। फिर भी पता नहीं कैसे ताजा-तरीन खबरों से बिलकुल अपडेट रहते हैं।

सुबह की चाय के साथ बात निकल गयी धरम-ईमान की। इसके गिरते ग्राफ पर मैंने चिन्ता व्यक्त की, जिसपर मुस्कुराते हुए काका ने कहा — “ जानते हो बबुआ ! ट्रान्सपरेंसी इन्टरनेशनल की ताजा रिपोर्ट— ‘ ग्लोबल करप्सन बैरोमीटर फॉर एशिया ’ के अनुसार भ्रष्टाचार के मामले में हमारा भारत अब एशिया महादेश में अब्बल दर्जे पर है। फिर से विश्वगुरु बनने का सपना देखने-दिखाने वाला किसी एक मामले में अब्बलई हासिल तो किया न— हमें इसी बात की खुशी है। आध्यात्मिक गुरु, तकनीकि गुरु, मैनेजमेन्टगुरु...के तर्ज पर भ्रष्टाचारगुरु का भी महत्त्व कोई कम थोड़े जो है ! हो सकता है कि आने वाले समय में मास वेकेन्सी आ जाय और भ्रष्टाचारगुरु एक्सपोर्ट होने लगें अपने देश से। इसी बहाने देश की बेरोजगारी तो सौल्भ होगी न। ”

ये आप कौन सा बैरोमीटर लिए बैठे हैं काकाजान? आध्यात्मिक गुरु और भ्रष्टाचार गुरु – भला ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं ?

काका ने तपाक से मेरी बात काटी — “राम के साथ रावण अमर हुआ कि नहीं? जबतक लोग राम को जानेंगे, तब तक रावण भी याद किया ही जायेगा। तो फिर अध्यात्म के साथ भ्रष्टाचार क्यों नहीं फिट बैठ सकता ?— इसके लिए कोई तर्क है तुम्हारे पास, तो बताओ। रावण राज में एक कालनेमी था, जो हनुमानजी को विलमाने का तिगड़म कर रहा था। आज जिधर देखो उधर ही कालनेमी दिख जायेंगे। बाबाओं और आध्यात्मिक गुरुओं की बाढ़ आयी हुयी है—एक से एक चोला, एक से एक बाना, एक से बढ़कर एक तौर-तरीके चेले-चाटियों को रिझाने-फँसाने के लिए। सत्संगियों की भीड़ देखते हो न—एकदम से टूट पड़ती है बाबाओं के पीछे। पिछले दिनों में कई बाबाओं के पोल खुले , किन्तु सत्संगियों की जुटान कहाँ कम हुयी। अन्धभक्ति ज्यों की त्यों बरकार है। गुरु का अपमान भला चेला कैसे बरदास्त करे ! सलाखों में सड़ते गुरुओं के लिए भी चेले बेचैन हैं। इसीलिए तो कहता हूँ कि बेरोजगारी के युग में कोई काम न मिले तो आला-सिरिंज ले लो, दो-चार दवाइयों का नाम रट्ट मारो और बन जाओ डॉक्टर। गांव-देहात को तो छोड़ो, सिविल सर्जन के नाक के नीचे भी हजारों क्वैक बड़े-बडे बोर्ड टांगे मिल जायेंगे। डिग्रीधारी से कहीं अधिक धाक उनकी ही रहती है। थोड़ी प्रशासनिक पहुँच बना लो, फिर क्या कहना। बाबाओं की भी ऐसी ही चाँदी है। उनका रास्ता और भी आसान है जनता-जनार्दन की कृपा से। शोहरत-दौलत सब कुछ सहज ही बाबाओं की मुट्ठी में आ जाता है। नेता बनने के लिए जरा लम्बा पापड़ बेलना पड़ता है। सबसे पहले तो ज़मीर बन्धक रखनी पड़ती है। क्योंकि ज़मीर के साथ नेतागिरी चल ही नहीं सकती। किन्तु एक बात है— सफल हो जाने पर कई-कई निकम्मी पीढ़ियों के लिए भरपूर इन्तज़ाम हो जाता है। हालिया रिपोर्ट कहता है कि भारत में नेता सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं। असली ताकत भी इन्हीं के हाथ है। गुण्डे, मवाली, दंगयी सब इनके ही पोसुए हैं। नेताओं के पुरजोर प्रयास के बावजूद भ्रष्टाचार में अभीतक न्यायाधीशों की गिनती सबसे कम है। इच्छाशक्ति का सर्वाधिक अभाव नेताओं में ही है। वो इसलिए कि ये सिर्फ एक ही इच्छा रखते हैं- कुर्सी की बेमियादी बरक्कत। दूसरी बात ये कि ये चाहते ही नहीं कि आमलोगों को सुख-शान्ति-समृद्धि लाभ हो। रिपोर्ट स्पष्ट करता है कि 50% लोगों ने स्वीकारा कि बिना रिश्वत दिए कोई काम होता ही नहीं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी है कि रिश्वत दिए जाते हैं इसलिए लिए जाते हैं। हर रिश्वत के पीछे दो हाथ होते हैं—देने वाले का और लेने वाले का । किन्तु क्या ये पूरा सत्य है ! गौरतलब है कि सन् 2004 में दागी सांसदों का अनुपात 22 फीसदी था, जब कि 2019 आते-आते 43 फीसदी हो गया। मामूली तरक्की है ! अकेले बिहार के हालिया चुनाव पर नज़र डालें तो पाते हैं कि 68फीसदी आपराधिक मामले वाले विधायक हैं। सोचने वाली बात है कि ऐसे दागियों से निरीह-बेदागों की भलाई की उम्मीद कैसे रखी जा सकती है ? ये ऐसा कानून भला क्यों बनने देंगे, जिससे सच में भ्रष्टाचार का निवारण हो। अन्ना के आन्दोलन का क्या हस्र हुआ हम भलीभांँति जानते हैं। देश में कितने लोकपाल बने ! हमारी जाँच एजेन्सियाँ कितनी सक्रिय हो पाती हैं, कितनी ईमानदारी से काम करती हैं—अभी हाल के मायानगरी मामले ने ज़ाहिर ही कर दिया । सबकुछ जान-समझ कर भी हम धोखे में, बहकावे में, भुलावे में आ ही जाते हैं। वोट के समय जाति-धर्म का मतलब समझ आने लगता है, बाकी समय तो सब चलता है।शादी भले ही दूसरी जाति में कर लो, पर वोट दो अपनी ही जाति को। लोग बिलकुल अन्धे होकर वोट करते हैं। चुनावी फन्डिंग की ट्रान्सपरेंसी और रिकॉल की बातें चर्चा में आती जरुर हैं, किन्तु उन पर अमल कहाँ हो पाता है...।”

काका की लम्बी टिप्पणी पर हामी भरते हुए मैंने कहा—बिलकुल सही कह रहे हैं काका। कम से कम ये दो-तीन काम भी हो जाए तो सारी समस्याओं का हल निकल आए। बनियों के हाथ बिके नेता और नेता के हाथ बिका हुआ देश—रिकॉल और फन्डिंग ट्रान्सपरेंसी के नियम से ही दुरुस्त हो सकता है। किन्तु इसके लिए सबसे पहले जरुरी है हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति । वोट मांगने आए दागियों को धक्के मार कर दूर भगाने की दृढ़ता की जरुरत है। जुगाड़-टेकनोलॉजी को ध्वस्त करने की जरुरत है। और इन सबके लिए जरुरी है—औंधेमुंह गिर रही पत्रकारिता के ग्राफ को दुरुस्त करने की। विकट परिस्थिति में कवि, लेखक और पत्रकार ही सही रास्ता दिखा सकता है। लोकतन्त्र का सर्वाधिक सबल स्तम्भ यही है। इसे तो निर्भीक होना ही होगा। अस्तु।



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