सरयू
की धारःअभियान्त्रिकी पर कटार
सदियों की प्रतीक्षा समाप्त हुयी, श्रीराम के भव्य मन्दिर-निर्माण का रास्ता साफ हुआ । भूमिपूजन-शिलान्यास
का कार्य भी सम्पन्न हो गया । किन्तु आगे के काम में कुछ अड़चनें आ रही हैं।
श्रीराममन्दिर की मजबूत नींव बनाने की चुनौती है। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान
केन्द्र(इसरो) के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि अयोध्या की पुनीत नदी सरयू अपनी
धारा पाँच बार बदल चुकी है और अगले ५००वर्षों में भी पुनः बदलाव की आशंका है।
मन्दिर की प्रस्तावित भूमि के नीचे ६० मीटर तक बालू है। ऐसे में सबल सुदीर्घ नींव
की स्थापना आधुनिक अभियान्त्रिकी की गर्दन पर चुनौतीपूर्ण कटार की तरह है।
आईआईटीएनों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है। ये वही आईआईटी है जिस पर देश को नाज़
है—युवाओं के सपनों का आईआईटी ।
प्रसंग को
जरा पीछे ले चलता हूँ। एक वास्तुसलाहकार होने के नाते समय-समय पर सिविल
ईन्जीनियरों की मण्डली में व्याख्यान और कक्षा का अवसर मिलते रहता है। अब से कोई पचीस
वर्ष पहले ऐसे ही एक कक्षा में जब मैंने कहा था कि कदम-कदम पर बेरोक-टोक बन रहे
मोबाईलटाबर भविष्य के लिए बड़े घातक हो सकते हैं, तो
प्रबुद्ध ईन्जीनियरों ने दबे जुबान हँसी उड़ायी थी। इधर हाल के दिनों में विदेशी
वैज्ञानिकों द्वारा इस सम्बन्ध में कई आपत्तिजनक सूचनायें आयी हैं— पर्यावरण और जनस्वास्थ्य
सम्बन्धी। इनके रेडियेशन से काफी खतरा है। यहाँ तक कि ये कैंसरस भी हो सकते हैं।
ऐसा ही एक
और प्रसंग का भुक्तभोगी हूँ— एक वास्तुशिविर के दौरान एक
जानेमाने अखबार के व्यूरोचीफ मेरी खिंचाई करने पहुँच गए। प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र
को कोरी कल्पना और अन्धविश्वास सिद्ध करने के चक्कर में पत्रकारिता धर्म को ताक पर रखकर बहस ‘ मोड ’ में आ गए। हर बात पर परास्त हो रहे, घंटों के
तर्क-वितर्क से भी उन्हें सन्तुष्टि न मिली। अन्ततः मैंने यही निवेदन किया कि आपके
माध्यम से मैं सरकार को ये संदेश देना चाहता हूँ कि भारतीय वास्तुशास्त्र के
प्रत्येक आन्तरिक विधाओं को आईआईटी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
हम आधुनिक
विचारक प्रायः पश्चिमोन्मुख हैं। मैकाले शिक्षानीति के अनुयायी प्रायः
पश्चिमोन्मुखी होते हैं—इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं
है। जानकारों का मानना है कि ये शिक्षानीति बहुत ही सुनियोजित ढंग से भारतीय
संस्कृति को बरबाद करने के लिए ही बनाई गयी थी । हमारे यहाँ शिक्षा की जो परिपाटी
है, वो व्यावहारिक जीवन में कितना उपयोगी है , विचारणीय है, वशर्ते की हम विचार करने को राज़ी हों।
वर्षों पहले एक राष्ट्रभक्त ने ऐसे कई सवाल उठाये थे, जो
मैकाले के कथाकथित वंशजों को जरा भी रास न आया। अन्ततः षड़यन्त्रकारियों ने उस
राष्ट्रभक्त का ही खात्मा कर दिया।
भारतीय
इतिहास के सही जानकारों का मानना है कि पूर्वी समुद्रतट पर एक विशाल मन्दिर के
गुम्बद में एक ऐसा यन्त्र लगा हुआ था, जो समुद्रीमार्ग से
समीप आने वाले जहाजों की दिशा ही मोड़ दिया करता था । लाख चेष्टा के बावजूद वे तट
पर जहाज का लंगर डाल ही नहीं पाते थे। भारतीय प्राचीन मन्दिरों की अवस्थिति और संरचना की
समझ आधुनिक अभियन्ताओं के लिए चुनौती है और रहेगी भी —— इसे
अब तो कम से कम स्वीकार कर ही लेना चाहिए हमें। प्रायः प्राचीन मन्दिर किसी न किसी
नदी और समुद्रतट पर ही अवस्थित हैं हजारों-हजार वर्षों से। कितनी बाढ़, कितने भूकम्प का सामना किया होगा इन मन्दिरों ने। आधुनिक अभियन्ताओं
द्वारा बनाये गए भवन, पुल इत्यादि की मियाद कितनी होती है,
ये जगज़ाहिर है। सुर्खी-चूना और छोआ को आउटडेटेड करार करते हुए,
सरिया-कॉन्क्रीट की ढलाई का इज़ाद होने पर इसके विशेषज्ञों ने दावा
किया था कि इसकी मियाद सौ वर्ष होगी, किन्तु २०-२५ वर्ष
खेपना भी मुश्कित हो रहा है। जबकि इस बीच भी काफी रख-रखाव की जरुरत पड़ती है।
जंगरोधी सरिया और नये-नए रसायनों के प्रयोग का अन्धाधुन्ध विज्ञापन हम रोज देखते
हैं, प्रयोग भी करते हैं और झक्क मारते हैं। भारत के विभिन्न स्थलों पर बने पुराने
लौहस्तम्भों को देख कर कम से कम इन जंगरोधी विज्ञापनबाजों को तो शर्म आनी चाहिए।
मगर अफसोस कि ये पूँजीवादी व्यवस्था और नीति का युग है–– जहाँ
जनबूझ कर मजबूत चीजें बनाई ही नहीं जाती। हाँ पैकिंग मजबूत और खूबसूरत जरुर होता है।
कला हो या
तकनीकि या विज्ञान सबको सांयन्स ने लीलने का पुरजोर प्रयास किया है। मैं दावे के
साथ कहना चाहूँगा कि ये सांयन्स विज्ञान कदापि नहीं है। विज्ञान का अंग्रेजी
अनुवाद सांयन्स होना भी नहीं चाहिए। विज्ञान तो वस विज्ञान है और इसके समग्र
स्वरुप पर प्राचीन भारतीयों का एकाधिकार रहा है। वास्तुशास्त्र भी एक सुसम्पन्न
विज्ञान है। इसे ठीक से समझने-समझाने की आवश्यकता है। हलांकि हमारे बहुत से
सद्ग्रन्थ नष्ट हो गए हैं, फिर भी शताधिक वास्तुशास्त्र अभी भी उपलब्ध हैं।
इन्हें आधुनिक अभियन्त्रणा के पाठ्यक्रम में अवश्य-अवश्य समाहित होना चाहिए।
पश्चिम वाला चश्मा उतार कर आईआईटियनों को कात्यायन शूल्वसूत्रम् से लेकर मयमतम् तक
का अध्ययन-मनन करना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी को फिर किसी
राममन्दिर के निर्वाण के लिए जूझना न पड़े। अस्तु ।
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