समधियों
की कुण्डली मिलान
कमरे में दाखिल होते ही जेब से एक पुर्जा निकाल
कर मेरे सामने रखते हुए वटेसरकाका ने कहा — “ जरा झटपट इन
दोनों कुण्डलियों का मिलान तो करो बबुआ। ”
पुर्जा उठाकर देखा। दोनों
कुण्डली किसी उम्रदराज पुरुष के थे। ऐसे में मेरा चौंकना स्वाभाविक था। लगता है
काका गलती से किसी और की कुण्डली उठा लाए हैं वैवाहिक-गणना-मिलान के लिए। अतः
टोकना लाजिमी है। मैं कहने को मुंह खोला ही था कि ‘री लॉकडाउन’ मोड में मुझे चुप कराते हुए
खुद ही बोलने लगे— “ यही कहना चाहते हो न कि दोनों कुण्डली
किसी प्रौढ़ पुरुष की है। और किसी पुरुष की किसी पुरुष से शादी-व्याह का विचार भला
कैसे होगा? तो जान लो कि तुम यहाँ दो तरफा गलती कर रहे हो। ”
हालांकि वटेसरकाका की बातें
शायद ही कभी गैर-जरुरी होती हों, किन्तु आज वाली बात तो मुझे भी सोचने पर मजबूर कर
दी। आँखिर ये कहना क्या चाहते हैं—गलती और वो भी दोतरफा !
मैं कुछ समझा नहीं काका
!
“तुम भला
क्यों समझोगे। तुम नयी पीढ़ी वालों की समझदानी थोड़ी छोटी वाली होती है। बातें
सिर्फ बड़ी-बड़ी करते हो। डीगें हांकने में अब्बल हो, परन्तु समझने वाली बुद्धि से
कोसों दूर ठहरे। ”— जरा ठहर कर काका ने आगे कहा — “ पहली गलती तो तुम्हारे जी.के. की ये है कि तुम्हें पता ही नहीं है नये वाले कानून के बारे
में, जिसमें कहा गया है कि एक लड़का एक लड़की ही नहीं, बल्कि दो लड़की या दो लड़के
भी ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ का लाभ
उठा सकते हैं। यानी कि पुरुष-पुरुष या कि स्त्री-स्त्री भी वैवाहिक-रिश्ते में बँध
सकते हैं। और जब ऐसा हो सकता है तो क्या वे नहीं चाहेंगे कि वे भी अपनी कुण्डली का
मिलान किसी अच्छे ज्योतिषी के पास जाकर करवायें ताकि भविष्य की सही जानकारी मिल
सके। तुम्हें शायद पता नहीं है कि इस भविष्य की चिन्ता ने ही मनुष्य के वर्तमान पर
पानी फेर दिया है। सारे ज्योतिषियों का धन्धा-पानी इसी भविष्य-पिपासा के कारण चल
रहा है। और हाँ ये लाइफ इन्श्योरेन्श वालों का धन्धा भी तो भविष्य के खतरे को लेकर
ही है। आदमी को यदि सच में ईश्वर पर पूरा-पूरा भरोसा हो जाता और सही तरीके से
ईमानदारी से अपना कर्म करता रहा होता, तो फिर ये भविष्य की आशंका ही उसे क्यों
सताती। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म
शुभाशुभम् – किए हुए कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। किन्तु ये भी है सत्य
है कि ईश्वर के विधान के बिना एक पत्ता भी नहीं डोलता। यानी कि हमसब कठपुतली से
ज्यादा कुछ नहीं हैं। तो फिर ये भूत-भविष्य का पचरा ही क्यों? क्यों न हम सिर्फ और सिर्फ वर्तमान जीवी बने रहें। ”
काका की बातों पर गौर करते
हुए मैंने हामी भरी। जरा रुककर, काका ने कहा— “ खैर, मैं
तुम्हें दर्शन पढ़ाने नहीं आया हूँ। इन सब बातों पर कभी इत्मिनान से बात करुँगा।
अभी सिर्फ इतना और बता दूँ कि तुम्हारी दूसरी वाली गलती भी इसी पहली वाली गलती जैसी
ही है, क्योंकि जमाने की हवा का रुख नहीं पहचानते। ”
मैं समझा नहीं।
“बिना समझाये
खुद से समझने की आदत ही कहाँ है तुम्हें। अरे बबुआ ! जमाने
की हवा ये कहती है कि लड़का-लड़की की कुण्डली मिलान से कहीं ज्यादा जरुरी है, होने
जा रहे समधियों के कुण्डली मिलान की। और हो सके तो सास-बहू की कुण्डली-मिलान भी
लगे हाथ कर ही लेनी चाहिए। हालांकि सास-बहू वाली बात भी अब बिलकुल पिछले जमाने
वाली बात हो गयी। मैके ही पक-पूक कर ससुराल गयी बहूएँ अब भला कहाँ चाहती हैं कि
खूसट सास-ससुर साथ में रहें। नये जोड़े हनीमून के बहाने जो निकलते हैं, सो सदा-सर्वदा
के लिए निकल ही जाते हैं। दोनों अपनी-अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में, लौट कर पीछे
देखना भी जरुरी नहीं समझते। ‘हम दो हमारे दो’ के जमाने में भला सास-ससुर का क्या काम ! ”
सास-बहू वाली कुण्डली-मिलान
की बात तो मुझे भी बहुत व्यावहारिक लगती है काका ! क्यों कि
ज्योतिष-शास्त्र कहता है कि नौकर-चाकर,यार-दोस्त, विजनेश पार्टनर आदि की भी
कुण्डली मिलान कर लेनी चाहिए। किन्तु बात अगर ऐसी है कि ये सब ‘ बैकडेटेड ’ बातें हो गयी हैं, तो फिर दोनों
समधियों की कुण्डली-मिलान का क्या औचित्य है ?
काका ने सिर हिलाते हुए कहा—
“जरुरी है, तभी तो कह रहा हूँ। भले ही ‘लव मैरेज’ में उतना जरुरी नहीं, किन्तु ‘ऐरेन्ज मैरेज ’ में तो
पहले यही जरुरी है, फिर लड़का-लड़की का कुण्डली-मिलान करना चाहिए, जब समधियों का
गणना ठीक बैठ जाए। तुम ही जरा सोचो—लड़की का बाप कहीं ‘देवगण’
हुआ और लड़के का बाप ‘राक्षसगण’
तो फिर पटरी खायेगी कभी ? या कहीं लड़की का बाप ‘महिषयोनि’ हुआ और लड़के का बाप ‘ व्याघ्रयोनि’ तो क्या गति होगी ? दान-दहेज का ऐसा चक्कर लगेगा कि बेचारा बेटी का बाप टें बोल देगा। देख ही
रहे हो कि लोग सारी औकात वेटे की शादी में ही दिखाते हैं। सारी मनोकामनाएं वेटे की
शादी में ही पूरी करते हैं। यहाँ तक कि अपनी शादी का बचा-खुचा शौक भी वेटे की शादी
में ही पूरी करना चाहते हैं। अब तुमसे भला क्या कहूँ, कहने में भी शरम आ रही है,
किन्तु ना भी कहूँ तो तुम जानोगे कैसे—ऐसे बहुत से ससुरों को बाल-दाढ़ी में खिजाब
लगाते देखा है घर में बहू के आ जाने पर। एक ऐसे महाससुर को भी देखा हूँ जो साप्ताहिक
रुप से ‘डेकाड्यूराबोलीन’ की
सूई लगवाते थे कम्पाउण्डर बुलाकर। खैर, अब
तो आयुर्वेदिक कम्पनियाँ भी तरह-तरह की सिद्ध मकरध्वजवटी बनाने लगी हैं और ‘वियाग्रा’ तो आम हो ही गया है। ”
लगता है ककूआ एकदम से सठिया
गया है—मैंने मन ही मन कहा और पंचांग निकाल कर पुर्जे की कुण्डलियों में नक्षत्र
ढूंढने लगा, ताकि उनके मनमाफिक समधी-मिलान का गणना विचार कर सकूँ।
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