मोक्ष की अवधारणा
“मोक्ष”
लुभाने के वजाय, भ्रमित करते रहा है सदा। हो सकता है कि इसकी महिमा-गरिमा को ठीक से
समझ ही नहीं पाया होऊँ। अन्यथा बड़े-बड़े सन्त महात्माओं का चरमलक्ष्य— मोक्ष
भ्रमित क्यों करता!
हाँ, इतना अवश्य सुना है कि कुछ
ऐसी भी महान विभूतियाँ हुयी हैं, जिनके समक्ष स्वर्ग और मोक्ष भी नतमस्तक है। ये
गुण विशेषकर भक्तों में ही पाया जाता है, जो सदा इन दोनों को ठुकराते रहते हैं—
न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न
मे।
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।।
आचार्यशंकर को पराम्बा के श्रीमुख के सामने ज्ञान-विज्ञान,स्वर्ग, मोक्ष सब व्यर्थ
प्रतीत हुआ। भक्तप्रवर तुलसी ने भी कुछ ऐसी ही अवहेलना की है मोक्ष की— धर्म न
अर्थ न काम रुचि पद न चहौं निर्वाण....।
दार्शनिकों ने हेय, हेतु,
हान और हानोपाय की अवधारणा से चिन्तन की शुरुआत करके, जीवन-मृत्यु के अबाध
कष्ट से मुक्त होने की बात सुझायी है। यानी कि संसार में बारम्बार जन्म लेना
(विविध योनियों में) और पुनः-पुनः मृत्यु को प्राप्त होना ही सर्वाधिक हेय है और
इससे सदा-सर्वदा के लिए स-प्रयास मुक्त हो
जाना ही मोक्ष है।
मोक्ष लब्ध हो जाने के बाद सम्भवतः
कोई दायित्व, कोई कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता। किसी तरह के पाप-पुण्य जनित लोहे
वाली वा सोने वाली बेड़ियों का बन्धन बाँध नहीं पाता। इस कष्टमय बन्धन से मुक्ति
के कारण ही शायद इसके प्रति ललक रहती होगी को।
ध्यातव्य है कि सिर्फ मनुष्य
योनि को ही कर्मयोनि माना गया है। चौरासीलाख में शेष सभी योनियों को भोगयोनि कहा
गया है। एकमात्र इस कर्मयोनि में ही विहित (समुचित) कर्म करके, मोक्षप्राप्ति का
प्रयास किया जा सकता है।
किन्तु इन सारी बातों के बाद
भी, ये पलायन जैसा लगता है। ये ठीक उसी तरह का पलायन है जैसे कोई कर्मचारी बारबार
छुट्टी लेकर भाग जाना चाहे, जबकि उसे नियुक्त किया गया है कार्यालय के किसी विशेष
कार्य-सम्पादन हेतु। अतः ये विचार ही बिलकुल कामचोर जैसा है। स्वार्थी जैसा है—स्वयं
मुक्त हो जाएं। कोई झंझट, कोई प्रपंच न रह जाए। कोई व्यथा न रहे। कोई द्वन्द्व न
रहे।
जरा ठीक से सोचें तो—पति
मोक्षसाधना में रम गया। मोक्ष लब्ध हो गया। किन्तु क्या पत्नी-पुत्रादि का
सांसारिक क्लेश दूर हो गया इससे? नहीं न।
“सिद्धि
हेतु स्वामी गए ये गौरव की बात,किन्तु चोरी-चोरी गए, यही बड़ा व्याघात...सखी वे
मुझसे कह कर जाते....। ” कविवर
गुप्त जी की यशोधरा क्या कह रही है! वस्तुतः गौतम पत्नी
यशोधरा की मनोव्यथा है ये, जो साधना हेतु पलायन करने वाले को सवालिया संदेश दे रही
है। हालांकि यहाँ बुद्ध की ओर से विचार नहीं कर रहा हूँ,बल्कि यशोधरा की ओर से सोच
रहा हूँ। अतः बुद्ध को पलायनवादी ही कहूँगा,स्वार्थी ही कहूँगा। और वो इसलिए कि
श्रीकृष्ण वाली समग्रता नहीं दीख रही है बुद्ध में। कृष्ण भगोड़े नहीं हैं। उन्हें
तो सबकुछ जैसे को तैसे ही स्वीकार है। इसलिए कृष्ण बड़े अबूझ हैं। उनकी इस अबूझपने
ने ही परवर्ती भक्तों में टुकड़े-टुकड़े में कृष्ण पाने की विवशता पैदा की। यही
कारण है कि सूर के कृष्ण, मीरा के कृष्ण, गोपी के कृष्ण, उद्धव के कृष्ण और अर्जुन
के कृष्ण —ये सब एक नहीं हैं। गोकुल वाले कृष्ण से मथुरा वाले, द्वारका वाले कृष्ण
की कोई तुलना ही व्यर्थ है। एक ही कृष्ण का अनेक स्वरुप है ये सब। अव्यक्त कृष्ण
और व्यक्त कृष्ण में साम्य हो कर भी साम्य नहीं है। इसीलिए कृष्ण की साधना कोई
साधारण साधना नहीं है।
सृष्टि-सिद्धान्त से स्पष्ट
है कि ईश्वर ने हमें कुछ विशिष्ट हेतु से ही सृजित किया है, तो क्या मेरा ये
कर्त्तव्य नहीं बनता कि परमसत्ता की उस हेतु को मैं तन-मन से पूरा करता रहूँ!
सृष्टि के प्रारम्भ में जगत-पिता
ब्रह्मा द्वारा नारद-सनकादि मानसी सृष्टि रची गयी, किन्तु सर्जना को आगे बढ़ाने
में वे कोई रुचि न दिखाये। विवश ब्रह्मा को मैथुनी-सृष्टि का अवलम्ब लेना पड़ा—एक
ही सर्जना को विखण्डित कर पुरुष और नारी—दो स्वरुपों का सृजन हुआ और यहीं से सारे प्रपंच का खेल शुरु हो
गया। चुँकि सृजन के दोनों खण्ड अपने आप में अधूरे हैं। इसीलिए पूरे होने की लालशा
हमेशा लगी रहती है। दोनों विकल हैं, क्योंकि एकल नहीं हैं। सकल का तो सवाल ही
नहीं।
प्राणी की इस विकलता ने ही
मोक्षमार्ग की खोज शुरु की होगी। मोक्ष—वह मंजिल जहाँ विलगाव न हो, अलगाव भी न हो।
जगत की सारी साधनाएं, सारी प्रक्रियाएं इस विलगाव के नाश के लिए ही तो हैं।
धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में
विषादग्रस्त अर्जुन को विविध रास्ते सुझाये श्रीकृष्ण ने। अर्जुन की प्रारम्भिक
मानसिकता को देखते हुए बात तो शुरु हुयी सांख्ययोग से जो वस्तुतः ज्ञानयोग का
हिस्सा है। किन्तु तुरत कर्मयोग की ओर मुड़ गयी और अन्ततः भक्तियोग पर आकर ठहर सी
गयी। श्रीमद्भगवद्गीता के अठारह अध्याय करीब-करीब छः-छः के टुकड़े में बंट गए।
किन्तु अन्त में परिणति क्या हुयी? गीता के अध्येता
भलीभाँति अवगत हैं—उपसंहार से।
यही कारण है कि
श्रीमद्भगवद्गीता किसी सम्प्रदाय विशेष के खूँटे से बँधा नही रहा। विभिन्न
धर्मावलम्बी भी गीता को हृदयंगम करने का प्रयास करते रहे हैं।
श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता
के उपसंहारक्रम (१८।
६६)
में अर्जुन से कहा है—सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं
त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
ध्यातव्य है कि भगवान के साथ
कर्मयोगी का ‘नित्य’ सम्बन्ध होता है। ज्ञानयोगी का ‘तात्त्विक’
सम्बन्ध होता है। किन्तु भक्त का सम्बन्ध ‘आत्मीय’
होता है। नित्य सम्बन्ध में संसार के अनित्य सम्बन्ध का त्याग है। तात्त्विक
सम्बन्ध में तत्त्व के साथ तत्त्वबोध है और आत्मीय सम्बन्ध में भगवान के साथ
अभिन्नता है। यही मूलतः प्रेम है। ज्ञानयोग का नीरस राग अलापते उद्धव को गोपियों
ने इस प्रेमयोग(लययोग)का मधुर स्वरस पान कराया था। उद्धव की सारी हेकड़ी ही गुम हो
गयी थी गोपियों के प्रेमालाप सुन कर। नित्य सम्बन्ध में शान्तरस है।
तात्त्विक सम्बन्ध में अखण्डरस है और आत्मीय सम्बन्ध में अनन्तरस है।
या कहें रसानन्द है। इस अनन्त रस की प्राप्ति हुए बिना जीव की भूख सर्वथा मिट ही
नहीं सकती। ध्यातव्य है कि अनन्तरस की प्राप्ति सिर्फ और सिर्फ शरणागति से ही हो
सकती है।
यमुनाजल में जलक्रीड़ा करती
नग्न गोपियों को जल से बाहर निकाल
कर,दोनों हाथ ऊपर उठाकर वरुण देवता के शाप-विमोचन हेतु सूर्यदेव से प्रार्थना करने
का प्रसंग बहुतों को अनुचित लगता है और कृष्ण पर लांछना लगाते हैं। वे सर्वगुह्यतम
शरणागति के रहस्य से अपरिचित हैं। इसलिए क्षमा और दया के पात्र हैं। फिर कहता
हूँ कि श्रीकृष्ण अबूझ हैं। कृष्ण को समझने के लिए ‘कृष्णा’ बनना पड़ेगा।
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य
’ का अर्थ सभी धर्मों का स्वरुपतः त्याग कदापि
नहीं है। प्रत्युत सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय का त्याग है। कथन का अभिप्राय ये है
कि किसी भी कर्त्तव्य कर्म का आश्रय न हो। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन
ने बड़े जोशीले अन्दाज में कहा है—
येषामर्थे
काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त
इमेऽवस्थिता
युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।।(१-३३)
जरा विचार करें—प्राणों का
त्याग करके कोई भला युद्धभूमि में खड़ा कैसे रहेगा? अतः स्पष्ट
है कि प्राणों का त्याग नहीं बल्कि प्राणों की आशा का त्याग ही अभीष्ट है
यहाँ। उसी भाँति धर्मों का सम्पूर्ण त्याग भला कैसे हो सकता है—धर्माश्रय के
त्याग की बात ही की जा रही है। यानी भक्त को दूसरे धर्मों की परवाह किए वगैर
शरण में चले जाना है, यानी शरणागति के पश्चात् कोई धर्म या कि कर्म शेष ही नहीं रह
जाता। माता की गोद में निर्भीक उछलता हुआ बालक गिरने-पड़ने की परवाह नहीं करता, क्योंकि
उसे देखना-सम्भालना माता का दायित्व है। अबोध बालक पूर्णतः माता पर निर्भर है।
असली भक्त भी अबोध बालक सदृश ही हो जाता है—यही असली शरणागति है।
सीधी सी बात है—भगवान की
शरणागति का जितना महत्त्व है, उतना किसी धर्म (कर्त्तव्य कर्म) का नहीं। और मजे की
बात ये है कि पूर्ण शरणागति प्रभुकृपा के वगैर हो भी नहीं सकती । किन्तु प्रभुकृपा
प्राप्ति के लिए योग्यता बनाना तो अपना ही कर्त्तव्य है न
!
भक्त अपनी शक्ति से भगवान के
सम्मुख होता है—शरणागति की तैयारी करता है निरंतर। और भगवान तो वचनवद्ध हैं। उनका
तो स्वभाव ही यही है —
यो
यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (४-११
) अर्जुन
को इस योग्य बनाने के लिए कृष्ण को इतना करना पड़ा—सत्रह अध्यायों के बाद, अन्त
में इस बात की चर्चा करते हैं—मोक्ष का रहस्य खोलते हैं।
ये शरणागति ही वस्तुतः गीता
का सार है। इस शरणागति में ही गीता के उपदेश की पूर्णता है। इसके बिना तो गीता
अधूरी है।
गीता तोतारट पाठ करने की चीज
नहीं है। गीता की वार्षिक जयन्ति मना लेना अभीष्ट नहीं है, प्रत्युत गीता
तत्त्वतः आत्मसात करने की चीज है। गीता का
कोई एक सिद्धान्त भी आत्मसात हो जाए, तो जीवनमुक्ति लब्ध हो जाए। अस्तु।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।
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