शब्द से परेशानी

शब्द से परेशानी

            वटेसरकाका अपने आप में ही अखबार हैं। अखबारनवीश तो इनके आगे-पीछे घूमते नजर आते हैं कभी-कभी। सुबह की चाय पर इनका दर्शन नहीं होता, उस दिन मैं खुद ही चला जाता हूँ इनका हालचाल लेने।

भारतीय परम्परा भी कुछ ऐसी ही बात कहती है—आसपड़ोस का सदा ख्याल रखना चाहिए। भले ही मॉर्डन विचारधारा ठीक इसके विपरीत सिद्धान्त वाली है— दुनिया के सारे खबरों से अपडेट रहो, किन्तु पड़ोसी तो दूर अपने ही मकान के दूसरे कमरे में क्या हो रहा  है, अपना ही सहोदर किस हाल में है—जानना कोई जरुरी नहीं समझा जाता। इस सिद्धान्त को ही अमलीज़ामा पहनाने के ख्याल से लोग सिंगल-डबल BHK में सिमट गए हैं । हम दो हमारे दो से बाहर कोई वास्ता ही नहीं। एकोमोडेशन और स्पेश इस हिसाब से रखा जाता है कि कोई आए ही नहीं। आए भी तो रुके नहीं। रोटियाँ गिन-गुथ कर ही बनती हैं। भले ही गूंधा हुआ आटा फ्रिज़ में रखना पड़े।

            मुझ पर नज़र पड़ते ही काका प्रसन्न हो गए— आओ बबुआ, आओ। कभी-कभी मैं जानबूझ कर देर कर देता हूँ तुम्हारे यहाँ पहुँचने में, ताकि इसी बहाने तुम्हारा मेरे यहाँ आना हो जाए और हमें भी चाय पिलाने का मौका मिल जाए। हालांकि आज ये बात नहीं थी। सुबह से ही दिमाग कुछ सोच-विचार में उलझा हुआ है। मेरे घर में अदरख कल ही खतम हो गया था । कड़ाके की सर्दी में बाहर निकलने का मन नहीं किया, तो सोचा बिना अदरख वाली चाय ही पी लूँ एक दिन,किन्तु दिमागी फितूल को बाहर निकाले वगैर घर से न निकलूँ। अच्छा हुआ कि तुम आ गए। तुम्हारी काकी चाय बना रही है और आहिस्ते-आहिस्ते मुझे कोस भी रही है...।

            सो क्यों?

            वो इसलिए कि आजकल मैं सोचने ज्यादा लगा हूँ और करने कम। तुम्हारी काकी को इसी बात पर आपत्ति है। उनका कहना है कि जिसका दिमाग ज्यादा और शरीर कम चलता है, उसे कोई न कोई बड़ी बीमारी हो जाती है। डाबीटीज होना तो तय है। खैर छोड़ो, इन सब सिद्धान्तों पर तुम्हारी काकी का पेटेन्ट है। मुझे इससे क्या मतलब। मैं तो सुबह से ही सोच में पड़ा हूँ इस बात की खबर से कि जातिसूचक शब्दों से हमारे सरकार बहादुरों को क्यों परेशानी होती है ? वोट तो जाति देखकर ही दिया जाता है न। योग्यता और कार्य से तो कोई मतलब होता नहीं जनता को।  सुनते हैं कि पड़ोसी राज्य में फ़रमान जारी कर दिया गया है कि कोई भी वाहन पर जातिसूचक शब्द लिखा हुआ यदि दिखा, तो तत्काल ही वाहन जप्त कर लिया जायेगा—एकदम से शराबजप्ती वाले अन्दाज में। शराब जप्त करके, ऊपर से नीचे तक के साहबों के बंगलों पर पहुँच जाता है। रेकॉर्ड के लिए थोड़ी-बहुत शराब सीलकर गोदामों में रख दी जाती हैं। और विचाराधीन कैदी की दुर्गति की तरह, इसकी भी सद्गति हो जाती है। ज्यादातर शराब चूहे पी जाते हैं। सोचने वाली बात है कि अनाज कुतरते-कुतरते चूहों का जी जब भर जाता है, तब उन्हें भी शराब पीने की तलब होने लगती है। बिना फाउण्डेशन के जैसे मकान नहीं बनता उसी तरह बिना चिखना के दारु का दौर भी नहीं चलता। शराब की क्वायलीटी के अनुसार ही चिखना की भी क्वायलीटी होती है— चने के घुघनी से लेकर पिश्ता,काजू,बादाम तक। और इन दोनों की क्वायलीटी डिपेन्ड करती है कुरते-जैकेट की क्वायलीटी पर। महुए वाली की तुलना में अंगूरवाली तो अच्छी होनी ही चाहिए न !  

            काका की लच्छेदार बातों की तरह उनकी सोच भी लच्छेदार ही होती है। समस्या जताये जातिसूचक शब्द प्रयोग की और बात चली गयी शराब बन्दी की और उनके इस बात से मैं इस बात में उलझ गया कि मामला अपने राज्य का है या पड़ोसी राज्य का या फिर पूरे देश का। हालांकि किसी भी राज्य का हो, है तो राजकीय फ़रमान ही न, जो खरबूजे के रंग की तरह बदलता है।

            काका अपनी मूल बात पर आ गए ये जातिसूचक शब्द की बीमारी बिलकुल राजनैतिक है, जबकि शब्द सनातन है। ब्रह्मा ने चार वर्णों की रचना की थी सिर्फ। राजनैतिक ब्रह्माओं ने जातियों का सृजन कर लिया। कई तरह की सूचियाँ बन गयी। मूल बात ये है कि पीढ़ी दर पीढ़ी किसी खास काम को करते रहने का नतीजा हुआ कि आगे चलकर वो जातिबोधक हो गया—पंडा-पुरोहित को पंडा-पुरोहित भला न कहूँ तो क्या कहूँ? इसी तरह धोने वाले को धोबी और चमड़े वाले को चमार कहने में क्या हर्ज है? तेल वाला तो तेली ही कहलायेगा न?”

            हाँ सो तो सही कह रहे हैं काका। कर्म के आधार पर विभिन्न जातियों का इज़ाद हो गया। डॉक्टर,मास्टर,इन्जीनियर भी कुछ इसी तरह का कर्मबोधक सम्बोधन है। किन्तु इन पर वंशगत छाप की गारंटी नहीं है, इसलिए सामाजिक मुहर नहीं लग पाया है। हाँ अनगिनत जाति-निर्माण का एक और पोख्ता कारण है—अनुलोम-विलोम वैवाहिक सम्बन्ध। मूल चार से चार हजार होने में कितने समय लगे? किन्तु हाँ, एक बात जरुर कहूँगा कि कहने का लहज़ा सही होना चाहिए। अब डकटरवा, मस्टरवा, तेलीया, चमरा, पंडितवा कहने का क्या तुक है—इसका तो विरोध होना ही चाहिए। असल समस्या यहाँ से शुरु होती है काका कि प्राचीन सामाजिक वर्ण-व्यवस्था क्षैतिज थी, जिसे हमने अज्ञानवश हाइरेरकी मान लिया है। ब्राह्मण ये मान लिए हैं कि हम ऊँचे हैं और धोबी, चमार को ये मनवा दिया गया है तुम नीचे हो। जबकि सच्चाई ये है कि सृष्टि-संचालन में कोई ऊँचा-नीचा है ही नहीं। एक तल पर संतुलित सामाजिक व्यवस्था है—पाँच बड़ी-छोटी अँगुलियों की भाँति, एक ही शरीर के विभिन्न अंग-उपांग की तरह। और चुँकि ये गलती की जा चुकी है पूर्वकालों में, इसलिए ऊपर जाने की होड़ लग गयी है। कोई नीचे भला क्यों रहना पसंद करेगा ! हाँ एक और भूल हो चुकी है—चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः की व्याख्या हम समझ नहीं पा रहे हैं। पेंचकश से हथौड़े का काम नहीं लिया जा सकता और न तलवार से वटन लगाया जा सकता है। आधुनिक विज्ञान जेनेटिक ईन्जीनियरिंग की समझ पा लिया है, जो अभी बहुत ही बचकानी समझ है। लहू लाल ही है सबके शरीर में, किन्तु हार्मोनिक डिफरेंसकी गहन समझ अभी पैदा करने की जरुरत है, जिसके लिए फिर से अपने शास्त्रों का मनन-चिन्तन करना होगा, बिलकुल शोधी अन्दाज़ में।

मेरी बात पर काका ने स्वीकारात्मक सिर हिलाया— तुम्हारी बात सोलह आने सही है, किन्तु मुझे चिन्ता इस बात की है कि आने वाले समय में कहीं ऐसा फ़रमान न जारी हो जाए, जिसमें चोर को चोर,  घूसखोर को घूसखोर, पाकेटमार को पाकेटमार, घोटालेबाज को घोटालेबाज कहने की मनाही हो । ये सब भी तो कर्मबोधक सम्बोधन ही हैं न ! बिना अदरख वाली चाय पीकर, तुम भी जरा सोचो। मैं तो सोचते-सोचते थक गया हूँ।  

          


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