धरती की चालःहम क्यों बेहाल?

 



धरती की चालःहम क्यों बेहाल?

            धरती, धरा, धरित्री, पृथ्वी, मेदिनी आदि कई नाम हैं इसके। प्राणीमात्र को धारण करने का दायित्व है इस पर। पौराणिक प्रसंगानुसार महाराज पृथु से भी सम्बन्ध है, इस कारण पृथ्वी नाम पड़ा और महिषासुर के मेद (चर्बी) से निर्मित होने के कारण मेदिनी नाम की सार्थकता सिद्ध है। पुराण इसे विष्णुपत्नी के रुप से स्वीकारता है—   

समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डले।

विष्णुपत्निं ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्शंक्षमस्वमे ।।

प्रातः शैय्या त्याग के पश्चात् पृथ्वी पर पांव धरते हैं, आघात करते हैं, इसके लिए क्षमायाचना का विधान है हमारे शास्त्रों में। पर्वत इसके स्तनमण्डल हैं, समुद्र इसके वस्त्रावरण हैं—ऐसी पवित्र चिन्तना रही है हमारी।

यहाँ समुद्र समस्त जलस्रोतों का प्रतीक है, यानी नदियाँ भी इसी लाक्षणिक शब्द-योजना में समाहित हैं। पर्वतों को स्तन मानना बहुत गहन संकेत है। वस्तुतः पृथ्वी को हमारे यहाँ माता कहा गया है—माता यानी गर्भधारण से लेकर जनन, पोषण, वर्द्धन पर्यन्त सभी दायित्व माता पर है।

वस्तुतः हमारी परम्परा रही है—हर चीज का मानवीकरण करके, देखने-समझने की। कला, विज्ञान, धर्म, नीति, अर्थ सबकुछ पौराणिक कथाओं-गाथाओं-आख्यानों में समाहित हैं— कुछ इसी अन्दाज़ में। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश —ये ही पाँच आधार हैं सृष्टि-संरचना  के। पुराण इन्हें देव-तुल्य मानते हुए पूजने की बात करते हैं।  आधुनिक लोग इस संकेत को ठीक से समझ नहीं पाते, इस कारण वेद-पुराणादि की उपेक्षा करते हैं।

सच पूछें तो हम पूजा के अर्थ को भी ठीक से समझ नहीं पाये हैं, पूजन-क्रिया तो बहुत दूर की बात है। अक्षत-फूल चढ़ा देना, धूप-दीप दिखला देना ही पूजा है हमारी समझ में।

गूढ़ अर्थ के इस अनर्थ ने ही, इस नासमझी ने ही मूर्तियाँ बनाकर पूजने की परिपाटी चला दी। और यही कारण है कि सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वरीय सत्ता की अवहेलना करते हैं, प्राणी-पदार्थ की अवहेलना करते हैं, जीवित का मोल नहीं समझते और मृतक की मूर्तियाँ बनाकर पूजने का ढोंग करते हैं।  कहने को तो हम सृष्टि के श्रेष्ठतम प्राणी हैं, किन्तु यदि श्रेष्ठतम यही है तो फिर निकृष्टतम क्या होगा?

सारे दुर्गुण तो हमारे अन्दर ही भरे पड़े हैं। ये विज्ञान और तकनीकि की दक्षता की जो डींगे हाँकते हैं न—वो भी हमारे किसी  न किसी दुर्गुण का ही संकेत देते हैं। हम चाँद पर जा रहे हैं, सूरज पर जाने का सपना देख रहे हैं। हमने बड़े-बड़े अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कर लिया है। प्रकृति के बहुत सारे रहस्यों को जान-समझ कर, उन्हें अधिक से अधिक मनोनुकूल करने  में जुटे हैं। सुख-सुविधा के सारे साधन हमने जुटा रखे हैं। चिरयुवा, दीर्घ जीवन का सपना ही नहीं, अमरता का दिवा स्वप्न भी है...।  

ये सब किसी न किसी भय और स्वार्थ प्रेरित बातें ही हैं, जिन्हें हम विकास समझने की नादानी कर रहे हैं। चुँकि हम भयभीत हैं—अपने आसपास के अपने ही जैसे लोगों से, इसलिए अस्त्र-शस्त्र के निर्माण में लगे हैं। बात सिर्फ इतनी ही है कि हम रहें, कोई और रहे न रहे। धरती से ऊपर आकाश की ओर हमारी नजरें हैं, वो इसलिए कि धरती काफी नहीं है मेरे लिए। कुछ और भी चाहिए। कुछ और...कुछ और की कोई सीमा नहीं है— न धन की, न मन की।

 सच्चाई ये है कि हमारे अन्दर श्रेष्ठतम बनने की सारी सम्भावनायें विद्यमान हैं—ठीक उसी तरह जैसे प्रत्येक बीज में वृक्ष बनने की सम्भावनायें निहित हैं। किन्तु क्या हर बीज बृक्ष बन ही जाता है ? नहीं न ! तो फिर हर मानव महामानव भला कैसे बन सकता है? और हर मानव जब महामानव नहीं बन सकता तो, अनजाने में महादानव बनने की ओर अग्रसर हो जाता है। हम सब यही कर रहे हैं।

 

धरती ने थोड़ी सी चाल बदली तो भूचाल आ गया। हम बेहाल होने लगे—अरे ! ये क्या हो रहा है ? पता नहीं क्या होगा आगे? हमारे सारे सपने कहीं धरे के धरे न रह जाएं !  

सीधी सी बात है—हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसे में प्रकृति हमारे साथ क्यों न खेले ? अकेले-अकेले खेल में कोई मजा है क्या ?

हरे-भरे जंगलों को तहस-नहस करके, पहाड़ों को तोड़-फोड़ करके कंकरीट के जंगल खड़े कर लिए। कृषि-योग्य भूमि को भी हड़पते हुए वस्तियाँ वसा ली। सड़कें और रेललाइनों की जाल विछा ली। बड़ी-बडी फैक्ट्रियाँ बना लीं हमने। सिंचाई और विजली के नाम पर नदियों के अस्तित्व से खिलवाड़ किया। विकास के नाम पर धरती से लेकर अन्तरिक्ष तक को छलनी कर दिया। अशान्त कर दिया।

और जब सबकुछ अशान्त ही हो गया, फिर हम भला शान्त कैसे रह सकते हैं?

सुनते हैं कि धरती ने अपनी आदत बदल ली, अपनी चाल बदल ली। शायद कुछ तेजी से चलने लगी। मूर्ख आदमी तेज चले और धरती तेज न चले—ये भला कैसे हो सकता है?

हम अबतक यही जानते आए हैं कि हमारी पृथ्वी नारंगी की तरह गोल है। अपनी घूर्णनगति के परिणाम स्वरुप अपने अक्ष पर करीब 24 घंटे में एक बार घूम जाती है, जिसके कारण ही हमें दिन-रात का आभास होता है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार ये नक्षत्र दिवस है, जो सूक्ष्म रुप से 23घंटा, 56मिनट, 4.09 सेकेंड होता है। इसी में 3 मिनट, 55.01 सेकेन्ड जोड़कर सौरदिवस की मान्यता है। इस कालगणना के अनुसार 365.256363004 दिन में अपने अण्डाकार परिभ्रमण-पथ पर संचरण करती हुयी धरती सूर्य की परिक्रमा करती है, जिसके कारण ऋतु परिवर्तन का आभास होता है। यही हमारा एक वर्ष है। उक्त कालगणना में दशमलव के बाद की कालगणना का समायोजन हम प्रत्येक चार वर्षों पर फरवरी महीने में एक दिन जोड़ कर लेते हैं, किन्तु इसके बाद भी कुछ त्रुटियाँ रह ही जाती है।

अरे मूर्ख मानव ! तू तो दानव से भी बदतर है। त्रुटियाँ अभी और है, जो तुम्हें धीरे-धीरे समझ आयेंगी या हो सकता है—समझ आने से पहले ही तुम्हारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाए, क्योंकि तूने अपने विनाश के सारे दरवाजे खोल रखा है।

लिप इयर मनाने वाला इन्सान, अब लिप सेकेन्ड और अनलिप सेकेन्ड मनाने की बात सोच रहा है,क्योंकि धरती ने अपनी गति थोड़ी बढ़ा दी है— यानी दिन 1.4602 मिली सेकेन्ड छोटा हो गया है। पिछले 50 वर्षों में 27 लिप सेकेन्ड जोड़े जा चुके हैं। जोड़ने-घटाने का ये खेल पता नहीं कहाँ ले जायेगा धरती को...धरती वालों को—वैज्ञानिक इसी में बेहाल हैं और आमलोग अपने आप में बेहाल हैं—किसी को मारने में,किसी को दबाने में, कुछ  हड़पने में...।

बेहाल न हों। इससे कुछ होने-जाने को नहीं है। आइये अपनी धरती माता की रक्षा के विषय में कुछ सोचें-विचारें ।

                    

 

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