दलाल/विचौलिया/ट्रान्सफॉर्मर

 

दलाल/विचौलिया/ट्रान्सफॉर्मर

दलाल,विचौलिया और ट्रान्सफॉर्मर में क्या सम्बन्ध है—जरा बतलाओं तो बबुआ!”— वटेसरकाका के इस अजीब सवाल पर मैं जरा सकपका गया। दरअसल काका कुछ जानने-पूछने नहीं, बल्कि कहने-जताने-समझाने आते हैं। उनके हर सवाल, हर जिज्ञासा में कुछ न कुछ रहस्य छिपा होता है, जो मुझे बहुत भाता है। उनके अजीबोगरीब सवालों के बीच से ही जानकारियों का सोता फूटता है, जो मुझ जैसे अल्पज्ञों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होता है। अतः मैंने अन्यमनस्क भाव से जवाब दिया—इस आई.ए.एस. क्वायलिटी के सवाल का जवाब मैं भला कैसे दे सकता हूँ? इतना ही काबिल होता, तो किसी सरकारी दफ्तर की कुर्सी न गरमाता

मेरी बातों पर सिर हिलाते हुए काका उचरने लगे— मैं यक़ीनन कह सकता हूँ कि तुम्हारे पास इसका समुचित उत्तर है ही नहीं। ऐसे प्रश्नों के उत्तर सिर्फ उन्हीं लोगों के पास हुआ करते हैं, जिन्होंने देश-दुनिया की खाक छानी हो। जीवन का मृदु कम, कटु अनुभव ज्यादा संजोया हो—एकदम से श्रीलाल शुक्ल के रागदरवारी वाले शनिचर के अन्दाज में। ऐसे सवालों के जवाब के लिए ज़ुनून और जीवटता दोनों की जरुरत होती है। जबकि इन दोनों में तुम्हारे पास एक भी नहीं है। कोई एक भी होता तो काम चल जाता।  मगर चिन्ता न करो, इस कतार में तुम अकेले इन्सान नहीं हो। बहुत लोगों के पास इनकी कमी है। यही कारण है कि आजकल बात-बात में हो-हल्ला, शोर-शराबा, गाली-गलौज, यहाँ तक कि मडर-सडर भी होते रहते हैं। ये सब होते रहने वाला मामला है। इसीलिए पुलिस-प्रशासन भी साइलेंटमोड में रहने का आदी हो गया है। कभी-कभी उसके लिए ये सब सिरदर्द भी बन जाता है; किन्तु राजनयिकों के लिए तो सदा चाँदी ही चाँदी है ऐसे मामले। वे भला कब चाहते हैं कि देश-दुनिया में शान्ति-सौहार्द्र का माहौल बना रहे ! भले ही सन्तों की दृष्टि में शान्ति–आनन्द बड़ी अच्छी चीज है, पर नेताओं की नज़र में  इससे बुरी कोई चीज हो ही नहीं सकती। विरोध की चिंगारी से  हिंसा की ज्वाला नहीं भड़केगी तो नेताओं की राजनैतिक रोटियाँ कच्ची ही रह जायेंगी न ! और इतना तो तुम भी समझते ही होओगे कि कच्ची रोटियाँ किसी काम की नहीं। रोटी ठीक से सिंकी-सिंकायी हों तो बिना दाल-सब्जी के भी खायी जा सकती है, जबकि कच्ची रोटी सॉश-जेली के साथ भी खाना मुश्किल है। पिछले कुछ दिनों से तुम देख ही रहे हो कि देश का माहौल एकदम से बदला हुआ है। गड़े-सड़े मुर्दे भी उखड़ रहे हैं और बदबूदार लाशों का  तुरता-तुरत डिस्पोजल भी हो रहा है। पुरानी अलावों को बुझाने और ध्वस्त करने का जोरदार मुहिम चल रहा है...।  

मैंने बीच में ही टोका—ये तो अच्छी बात है— मेक–इन-इण्डिया वाला शेर दहाड़ेगा तो सबकी सिट्टी-पिट्टी बन्द हो जायेगी। लोकल जब वोकल होने लगेगा, तो सबको राहत मिलेगी। आत्म-निर्भरता बढ़ेगी। इसमें बुराई ही क्या है?

रोटियाँ कच्ची रह रही हैं—यही सबसे बड़ी ख़ामी है इसमें।”—काका ने मेरी बात काटी —पाँच सौ सालों से चला आ रहा मन्दिर-मस्जिद विवाद चुटकी बजाकर खत्म हो गया। ऐसे भी भला विवाद खतम किया जाता है ! विवाद और संवाद को हमेशा चलते रहना चाहिए। गति में ही प्रगति है। इसीलिए जानकारों ने कहा है कि पोखर के पानी की तुलना से नदी का पानी ज्यादा सेहतमन्द होता है, क्यों कि नदी चलती रहती है और पोखर स्थिर रहता है।

आप भी खूब हैं काका ! नदी-पोखर वाली बात विवाद-संवाद पर भला कैसे लागू हो सकती है ?

यही तो समझने वाली बात है। कितनी जुगत से, कितनी दूरदर्शिता से धारा 370 को बनाया गया था। बड़े-बड़े कलाबाजों की बुद्धि का उपयोग किया गया था। किन्तु मेक-इन-इण्डिया वाला शेर ऐसा दहाड़ा कि धड़ाधड़ कितनों की दुकानों के शटर गिरने लगे। भला तुम्हें इसकी परवाह क्यों होगी कि देश में पहले से ही भीषण बेरोजगारी है और ऊपर से सैकड़ो दुकानों का हठात बन्द हो जाना, कितनी चिन्ता की बात है। कम से कम मानवता के नाते तुम भी जरा सोचो कि उनके बीबी-बच्चों का परवरिश कैसे होगा? विदेशों में पढ़ रहे उनके होनहारों की तरक्की कैसे होगी? और जिनके ऊपर बीबी-बच्चों की जिम्मेवारी नहीं है, यानी कि जो जन्मजात कुँआरे हैं और आगे भी कुँआरे ही रहने की आशा बरकरार है, उन्हें भी अपने और अपनी कुर्सी की सेहत का ख्याल रखना है कि नहीं? नज़ला-ज़ुकाम का इलाज़ कराने बाहर के बड़े अस्पतालों में वे कैसे जा सकेंगे? दुर्दिन में लम्बी छुट्टियाँ मनाने का हवाईदौरा कैसे कर सकेंगे? फाईव या कहें सेवन स्टार से ऊपर तो कोई होटल-रिसॉर्ट है नहीं अपने यहाँ, ऐसे में हंड्रेडस्टार औकात वाला आदमी का गुजारा कैसे चलेगा? रेडकार्पेट वाला खुरदरी जमीन पर भला कैसे पांव धरेगा?”

काका की बातों का आशय कुछ-कुछ समझ आने लगा मुझे; किन्तु उनके रहस्यमय सवाल का समुचित जवाब मेरे बंजर दिमाग में अभी भी उपज नहीं पा रहा था। अतः टोकना पड़ा— काकाजी ! आपने तो सवाल किया था दलाल, विचौलिये और ट्रान्सफॉर्मर के आपसी सम्बन्धों का, किन्तु इसमें ये धारीदार शेर कहाँ से आ टपका? और इनके बीच देश-दुनिया की राजनीति कहाँ से आ घुसी?

यही सब कहने-समझाने तो मैं आया हूँ आज तुम्हारे पास। महीनों हो गए पश्चिमी सीमा पर ठना विवाद किसी भी संवाद से हल नहीं हो पा रहा है।  पंजाब की पराली से बात शुरु होकर बिहार की पनाली तक जाने की नौबत आ गयी है। परन्तु नतीज़ा सिफ़र बटा सिफ़र...। ये किसान-बिल तो चूहे के बिल से भी ज्यादा घुरचीदार निकला। ताकतवर संसद ने सोचा था कि सबकुछ वैसे ही हो जायेगा, जैसे बाकी कई मामले निपट गए थे पिछले सालों में, किन्तु इस बार देशी जड़ी-बूटियों के साथ-साथ विदेशी कैपसूल-इन्जेक्शन इस कदर इस्तेमाल हो रहे हैं कि अपने विशेषज्ञों का सारा डाग्नोसिश ही फेल हो जा रहा है। कश्मीर मामले में अपनी जान देने का हौसला रखने वाले भी खलिहानी मामले में बिखरे-बिखरे से नजर आ रहे हैं।

सो तो है,किन्तु ये बिखराव-बिफराव का असली वजह क्या लग रहा है काका?

काका के होठों पर चवन्नियाँ मुस्कान तैर गयी। कहने लगे—ट्रान्सफॉर्मर देखे हो न, उसके पास जो बिजली आती है पावरग्रीड से उसे वो अपने हिसाब से ट्रान्सफर कर देता है, किन्तु खुद के लिए रखता-छिपाता-चुराता जरा भी नहीं। मध्यस्थता की भूमिका का बड़ी सख्ती और ईमानदारी से निर्वाह करता है। दूसरी ओर विचौलिये की भूमिका ट्रान्सफॉर्मर से बिलकुल अलग किस्म की है। कोई भी सरकारी काम बिना विचौलिए के होना नामुमकिन है। और तुम जानते ही हो कि रागदरबारी का शनिचर तो अब कोई है नहीं। ज़ायज़-नाज़ायज़ सबकाम जल्दी निपटना चाहिए। ऐसे में विचौलियों की बाढ़ आना स्वाभाविक है। और विचौलिया भला ट्रान्सफॉर्मर वाली ईमानदारी कैसे बरते ! उसे तो काम के मुताबिक दाम चाहिए न। ये सरकारी काम भी कई नम्बरों वाले होते हैं—एक नम्बर,दो नम्बर...। इनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इनका पेट बहुत गहरा होता है—बिलकुल प्रशान्त महासागर किस्म का, जिसका थाह पाना मुश्किल है।

मैंने कुछ-कुछ समझने जैसी स्थिति में सिर हिलाया। काका का व्याख्यान जारी रहा— और तीसरा है—दलाल। ये विचौलिये से भी थोड़े अलग किस्म का इन्सान हुआ करता है। इसके चेहरे पर सदा बारह बजते नजर आयेंगे। दूर से ही देखकर पहचान लोगे इन्हें। ये अपनी घटियागिरी के लिए प्रसिद्ध हैं। हालांकि आजकल इनका अंग्रेजी नाम ज्यादा इज्जतदार हो गया है। हिन्दी वाला नाम जरा लोअर डिवीजन वाला है। किसी को दलाल कहोगे तो नाराज हो जायेगा,परन्तु एजेन्ट कहने पर शान महशूस करेगा। यही कारण है कि सरकारी-गैरसरकारी हर महकमों में एजेन्ट बहाल हो गए हैं। मेक-इन-इण्डिया के दौर में कुछ ऐसे ही विचौलिए और दलालों के पेट पर लात मारने की जुगत की गयी है। डिजिटल इण्डिया के दौर में ज्यादातर काम ऑनलाईन निपटाये जा रहे हैं, भले ही इन्फ्रास्ट्रक्चर अभी बहुत ही कमजोर है। किसी भी प्रकार की सब्सीडी हो, सहायता राशि हो, सीधे जनता के निजी खाते में ट्रान्सफर हो जा रहे हैं खटाखट। जमीन-ज़ायदाद की दाखिलखारिज़ जैसे काम भी ऑनलाइन होने लगे हैं—एकदम से पिज्जा-बर्गर के ऑनलाइन डेलीवरी स्टाइल में। इसका नतीज़ा ये है कि बीचवाली सारी कड़ियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। सोचने वाली बात है कि जब किसी के अस्तित्व पर ही हमला करोगे तो वो शान्त कैसे बैठेगा।

अच्छा तो अब समझा, आप कहना क्या चाहते हैं—ताज़ा राष्ट्रव्यापी भूचाल दुष्ट-भ्रष्ट महासागर की लहरों का उछाल है। इसकी उत्ताल तरंगों को बौद्धिक-कूटनैतिक डायनामाइट से ध्वस्त करना होगा, अन्यथा ये रक्तबीज आसानी से नष्ट नहीं होंगे। और रक्तबीज को नष्ट करने के लिए रक्तदन्तिका कालिका का अवतरण आवश्यक है।

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