परिधान
आज
वटेसर काका के घर पहुँचा तो उन्हें कुछ अजीब परिधान में पाया। आदतन वे धोती-कुरता
पहनते हैं। कभी-कभार धोती को ही लुंगीनुमा पहन लिया करते हैं, खासकर तब, जब कहीं
बाहर नहीं जाना रहता। जाड़ा-गरमी-बरसात—यही उनका पहरावा है। खूब हुआ तो ऊपर से गरम
चादर डाल लिए। ठंढ अधिक सताये तो अँगोछे का गलमुच्छा भी बाँध लिए। न कभी
बन्दरमुंहा टोपी, न कोट-बन्डी-जैकेट। परन्तु आज जिस अनोखे परिधान में देखा, तो
कोशिश के बावजूद अपनी हँसी रोक न पाया। हालाँकि बड़े-बूढ़ों की किसी हरकत पर हँसना
हमारी सभ्यता के विरुद्ध है, किन्तु औरों की भाँति आज मैं भी इस शिष्टाचार को भूल
गया।
किसी
तरह हँसी को सम्भालते हुए पूछा— ये क्या वेश बना रखे हैं काका?
सफेद धोती के ऊपर से काका-कलूटा चुश्त लोअर !
मेरी
बात पर काका न तो गुस्साये और न मुस्कुराये ही, बल्कि थोड़े गम्भीर भाव से बोले— “ तुम्हारे इस लोअर-अपर ने ही तो सब गड़बड़ किया है। अब पैन्ट, पायजामा, सलवार
को लोअर कहने लगोगे, तो कोट, कमीज, कुरता को तो अपर कहना ही पड़ेगा न ! ये ट्रान्सलेशन का चक्कर भी अजीब है। म्लेच्छ भाषा के साथ-साथ
सभ्यता-संस्कृति सबका ट्रान्सलेशन हो गया। भारत इण्डिया हो गया, राम रामा और योग
योगा बन गया। यहाँ तक तो किसी तरह चल जायेगा, किन्तु मजेदार बात ये है कि कृष्ण जब
कृष्णा हो गए तो बेचारी द्रौपदी तो क्रोध से लाल हो जायेगी न—क्योंकि उसका नाम ही
छीन लिया आधुनिकों ने। खैर, छोड़ो इन बातों को।
तुम जानते ही हो कि मैं सदा से प्रयोगवादी रहा हूँ। कॉलेज के जमाने में
पैन्ट-शर्ट पहना करता था। बरसात के दिनों में एक बार ऐसा हुआ कि मोटा पैन्ट पहले
सूख गया और पतला शर्ट गीला ही रह गया। शायद ठीक से निचोड़ा नहीं गया था। क्लास
छोड़ नहीं सकता था। लाचारी में पैन्ट पर ही कुर्ता पहन कर कॉलेज चला गया। उस दिन
कॉलेज में जो दुर्गति हुयी, वो जनम भर भूलने वाली नहीं है। किन्तु थोड़े ही दिनों
बाद देखा कि पैन्ट पर कुर्ता पहनना अल्ट्रामॉर्डन फैशन में आ गया है और
शर्ट छोड़ कर लोग कुरता सिलवाने लगे हैं पैन्ट पर पहनने के लिए। कुर्तीनुमा कुरते
की लम्बाई सरकते-सरकते घुटने से नीचे आ पहुँची। जबकि ग्यारह ईंच से बढ़ते-बढ़ते
पीलपांव मार्का पैन्ट बेलबॉटम के नाम से जाना जाने लगा। शर्ट की जगह बैगी
ने ले लिया—ठीक वैसे ही जैसे सेवई की जगह मैगी ने ले लिया। इतना ही नहीं, फैशन
डिज़ायनिंग और फैशन टेक्नोलॉजी आधुनिक शिक्षा में पैठ बना लिया है और इन मॉर्डन
डिज़ायनरों की ही करामात है कि आधुनिकाओं को अर्द्धनग्नता वाली “विकनी” पसन्द आने लगी है । अब तुम्हीं जरा सोचो—सबकुछ
सड़क-बाजार में ही दिख जायेगा तो फिर बेडरुम के लिए बाकी ही क्या रह जायेगा? और ऐसी परिस्थिति में किसी नेता की टिप्पणी— युवक हैं, बहक गए,बलात्कार
हो गया उनसे— पर तुम क्या टिप्पणी करोगे ! ”
तो
क्या आपने इसका विरोध करने के विचार से सफेद धोती के ऊपर काला लोअर पहनने का फैसला
किया, जैसा कि लोग बाजू में कालीपट्टी लगाकर करते हैं?
इस
बार काका जरा मुस्कुराये— “ नहीं बबुआ !
सो बात नहीं। मेरे विरोध
करने ना करने से भला क्या फ़र्क पड़ना है ? ये परिधान मैं
प्रयोग के तौर पर धारण किया हूँ। आज से इसी वेश में बाहर निकलने को सोच रहा हूँ। देखते
हैं—क्या प्रतिक्रिया होती है लोगों की। ”
प्रतिक्रिया
क्या होगी, लोग हँसेंगे। कॉलेज वाले दिन की तरह फिर एकबार आप बेवकूफ बनेंगे।
काका
ने सिर हिलाकर कहा— “ और ये क्यों नहीं कहते कि जिस
तरह उन दिनों पैन्ट पर कुरता चल निकला, उसी तरह आगे धोती पर लोअर पहनना न्यूटेस्टामेंट
माना जाने लगेगा। म्लेच्छों ने अपना परिधान हम पर थोप दिया। धोतीधारी लोग समाज से
ऐसे गायब हो रहे हैं, जैसे गधे की सींग। और तो और, ब्राह्मणों की सभा-सोशायटी में भी धोतीधारी
ढूढ़ना पड़ता है। इत्तफाक से दो-चार दीख भी जाते हैं, तो वे भी अन्दर से खोल लगाये
हुए— लोअर का। अरे भाई ! धोती पहनना ही है तो कायदे से पहनो।
नहीं पहनना है तो कौन मना करता है सूट-बूट पहनने से ? साड़ी
त्याग कर बिकनी पहनने से किसी ने नहीं रोका , तो धोती छोड़कर पैंट-पायजामा पहनने
से रोकने कि किसकी हिम्मत है? ”
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