सेवा सर्विस नौकरी


 सेवा सर्विस नौकरी

 

गले में गेंदाफूल की लरी लटकाए, मिठाई का पैकेट लिए प्रसन्न मुद्रा में, लपककर मेरे घर की ओर आते हुए वटेसरकाका को खिड़की से मैंने देखा, तो चट बाहर निकलकर उनके स्वागत के लिए तत्पर हो गया। उनके चेहरे पर ऐसी प्रसन्नता शायद ही कभी देखने को मिलती है।  

नजदीक आते ही पँवलग्गी के साथ मैंने सवाल किया—क्या बात है काका ! लगता है आज कोई मोटा जजमान पट गया ।

मेरे सवाल पर काका झुंझलाए— सब गुड़ गोबर कर दिया तुमने अपनी समझदानी का । जजमानों में भला कहाँ इतना दम है कि इतनी मंहगी माला पहनावे किसी पंडित-पुरोहित को और ऊपर से मिठाई का पैकैट भी थमावे ! बस चले तो पंडितजी के जेब से भी कुछ निकलवा ले। सत्यनारायण पूजा के लिए सवा गज एकरंगा लेता है और उसी को फाड़-फूड़ कर बारह पूर्णिमा के लिए बारह टुकड़ा बनाता है, पूरे साल के वजट के हिसाब से—एकदम से पेशेवर वित्तमंत्री वाले अन्दाज में। फूल आज तक कभी समूचा नहीं चढ़ाया और न पान का पत्ता ही। कहता है कि आप ही न कहते हैं कि भगवान भाव के भूखे होते हैं, सामान से उन्हें कोई मतलब नहीं...।

सो तो है, किन्तु ये माला और मिठाई? – मुझे बीच में ही टोकना पड़ा, क्योंकि काका को यदि न टोकूँ तो बतकही में असली बात ही गुम हो जायेगी।

 सिर हिलाते हुए काका ने कहा— भगवान भला करें नेताओं का। उनके बदौलत आज जीवन में पहली बार इतना बढ़िया गेंदाफूल की लरी से मेरे कंठ की शोभा बढ़ी है। मेरे जमाने में तो विवाह में जयमाला का फैशन ही नहीं था कि उससे शौक पूरता। खैर, जाने दो इन पुराने ज़ख्मों पर मरहम लगाने से क्या फायदा ! बात दरअसल ये है कि जनता जनार्दन के दुःख-दर्द का निवारण करने के लिए एक छुटभैया टाइप  नेता ने 24X7X365 वाला चिकित्सा-सेवा-केन्द्र खोला है, जिसके उद्धाटन-समारोह में प्रदेश के छोटे वाले बड़े नेता पधारे थे। फीता काटने के बाद घोषणाओं का दौर शुरु हुआ तो तबतक चलता रहा, जबतक मिठाइयों का पैकेट बँटना खतम न हुआ। पता नहीं इन नेताओं को अकल कब आयेगी। इन्हें इतनी तो समझ होनी ही चाहिए कि जैसे वोट लेने के बाद इनका दर्शन गधे की सींग की तरह दुर्लभ हो जाता है, उसी तरह मिठाई बँटने के बाद भीड़ भी छँटने लगती है। जनता इतनी बेवकूफ अब थोड़े रह गयी है, जो फालतू का आश्वासन-भाषण सुनती रहे। अब जरा तुमहीं बताओ न ये चिकित्सा-कार्य सेवा-सूची में कब से आ गया? किसी जमाने में औषध-दान महादान माना जाता था। आतुरालय बनना मन्दिर बनाने से भी पुनीत कार्य माना जाता था। मन्दिर में तो पत्थर की सेवा होती है, जबकि आतुरालय में जीते-जागते भगवान की सेवा का अवसर मिलता है। उन दिनों रोगी की सेवा विशुद्ध सेवा-भाव से की जाती थी। राजा का ये परम कर्तव्य हुआ करता था। किन्तु अब तो डॉक्टर बनने में ही कई-कई लाख लग जाते हैं। अच्छा अस्पताल करोड़ों-करोड़ का वजट होता है और पूँजीवादी विचार-बहुल दुनिया में इतनी पूँजी लगाकर भला कौन मूरख चाहेगा कि सेवा-भाव से सेवा करके अपनी लुटिया डुबोये ! इन्वेस्टमेन्ट का प्रॉपर क्विक रिटर्न ही न मिला तो इन्वेस्टमेंट किस काम का ! आजकल तो अस्पताल सबसे साफ-सुथरा रोजगार है। जोत-जमीन बेंच कर भी लोग इलाज करवाते हैं।

मुझे फिर टोकना पड़ा—मुझे लगता है काका ! कि शब्दों का अर्थ जमाने के हिसाब से बदलते रहता है। सेवा, सर्विस और नौकरी भी कुछ ऐसे ही शब्द हैं, जिनका मूल अर्थ खो गया है नये जमाने में, जैसे प्रेम का अर्थ विलुप्त हो गया है। सेक्स की भूख और आँखों की गुस्ताख़ी को ही लोग प्रेम समझ लेते हैं। सेवा का अंग्रेजी अनुवाद भला सर्विस कैसे हो सकता है और नौकरी तो बिलकुल अगल किस्म का भाव-बोधक है।

काका ने सिर हिलाया— बिलकुल सही कह रहे हो। मेरे साथ वाला संक्रमण तुममें भी फैल गया है। रहते-रहते ज्ञान बघारने लगते हो। सेवा के साथ शुल्क शब्द के प्रयोग का कोई औचित्य ही नहीं, किन्तु ये डेसर्विस, नाइटसर्विस, फ्लाइटसर्विज, राइटसर्विस के तर्ज़ पर हॉस्पीटलीटीसर्विस भी चल निकला है। और जब सर्विस है तो उसके आगे चार्ज भी लगेगा ही। यही कारण है कि सर्विस-चार्ज का हिन्दी अनुवाद सेवा-शुल्क मान लिया गया है। पुराने जमाने में जैसे सेवा का कोई मोल नहीं आँका जाता था, स्वभावतः सेवा निस्स्वार्थ और अनमोल होती थी—माँ-बाप की सेवा, सन्तान की सेवा, गरीब-दुःखियों की सेवा...। कुछ उसी स्टाइल में आजकल सेवा-शुल्क की कोई सीमा नहीं होती, जितनी वसूली जा सके। लाइट-चार्ज, वेड-चार्ज, सर चार्ज, पैर चार्ज...। रोगी के अभिभावक की औकात मुताबिक चार्ज वसूलने की पूरी-पूरी गुँजायश होती है— यानी पानी की कीमत अलग और गिलास का किराया अलग । अरे भाई, रोगी बन कर आए हो तो वेड तो चाहिए ही न ! और वेड चाहिए तो किराया भी  चाहिए कि नहीं !  अस्पतालों में वेडचार्ज कुछ वैसा ही है जैसे थाने में दारोगा जी कहते हैं कि एफ.आई.आर. लिखाना है तो एक पेज कागज लेते आओ और साथ ही कलम भी, और हाँ, चाय-समोसा का ऑडर भी देते आना...।

अच्छा तो अब समझा— आपकी आपत्ति इस बात पर है कि छोटेवाले नेताजी का बड़ावाला अस्पताल जनता-सेवा का खोल लगाकर लूट का नया धन्धा शुरु हुआ है।  

काका ने हामी भरी— बिलुकल सही समझे। अभी हाल में ही सुना था कि अदने से रोग में महीने भर वेन्टीलेटर पर रखा। अस्पताल में जितनी भी आधुनिक मशीने हैं, सबसे गुजरना पड़ा और सबसे गुजरते-गुजरते, जब रोगी गुजर गया तो लाश रोककर, भारी भरकम बिल वसूला गया। ट्रीटमेंटसेक्शन की लूट को वाइट हाउस की तरह वाइट लूट की श्रेणी में रखा जाता है। दवा-कारोबार की कालाबाजारी अभी तक नर्सिंगकोट की तरह वाइट ही है। काले कोट वाले तो कम से कम बेज़ुबानी कबूलनामा पेश करते हैं कि हम काले हैं, पर ये सफेद खोल वाले ! 400% से शुरु होकर 1000-1200%तक दवा पर मुनाफ़ा है। रही बात डॉक्टर साहव की, तो जमींदारी जमाने की तरह उन्हें तो सात खून माफ हैं। वे बेचारे दिमाग कम छूरी ज्यादा चलाते हैं। एपेन्डिक्स, यूटेरस, गॉलब्लैडर सब तरुतातुरत निकाल फेंकते हैं,क्योंकि उनकी नज़र में प्रकृति ने ये सब फालतू बना दिया है। सारा निदान पैथोलॉजी-रेडियोलॉजी डिपार्मेंट करता है और फार्माकोपिया के नाम पर जितना मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव पढ़ा दिया रहता है उससे रत्ती भर भी दाएं-बाएं की समझ शायद ही होती है उन्हें। और ये तो तुम्हें पता ही होगा कि दवा कम्पनियाँ अरबपतियों के अधीन है। घटिया से घटिया माल जिस तरह टी.वी. पर अधनंगी तारिकाओं का थोबड़ा देखकर खप जाता है, उसी तरह घटिया से घटिया दवा भी मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव के लच्छेदार डॉयलॉग सुनकर निकल जाता है। विदेशों के कूड़े अभी भी हमारे यहाँ मेडिकलस्टोरों पर धड़ल्ले से मिल जायेंगे। हम अगर बचे हुए  हैं तो अपने भाग्य से, क्योंकि मारने में कोई कसर नहीं छोड़ा है हॉस्पीटलीटी के धन्धेबाजों ने। बन्द ओ.टी. में खुले पेट से क्या-क्या निकाल कर  एक्सपोर्ट हो जायेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। अच्छी खासी किडनी भी ट्रान्सप्लान्ट करके, दोहरा मुनाफा कमा लेते हैं  मेडिकलमाफिया। तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि जिस एलोपैथ की दिवानी है दुनिया वो हमारे आयुर्वेद के कब्र पर खड़ी है। हमारी विद्या को योजनाबद्ध तरीके से पस्त-ध्वस्त करके अपना उल्लू सीधा किया है मेडिकलमाफियाओं ने। मेरे एक मित्र को पैर में चोट लगी थी। जख़्म पुराना हो गया, पर मवाद का सिलसिला थमा नहीं। डॉक्टरों ने कहा कि गैंग्रीन हो गया है, पैर काटना पड़ेगा। निराश मित्र गांव वापस आ गया। एक चरवाहे ने एक बूटी का लेप बताया और सप्ताह-दस दिन में ही पाँच साल पुराना जख़्म काफूर हो गया...।

मुझे फिर टोकना पड़ा— लगता है काका ! आज बहुत खफ़ा हैं आप डॉक्टरों पर। सच में ईमानदार और योग्य डॉक्टर सर्चलाईट लेकर खोजने की जरुरत है। किन्तु कम से कम माला और मिठाई की तो लाज़ रखें।

मेरा इतना कहना था कि काका आग बबूला हो गए। गले में पड़ी माला को ऐसे नोच फेंके मानों कोई विषधर हो और मिठाई का डब्बा सामने घूमते कुत्ते की ओर फेंकते हुए, नदी की ओर मुड़ चले— चलता हूँ बबुआ ! बिना नहाये घर में कैसे घूसुँगा।

स्तब्ध खड़ा मैं ढूढ़ने लगा—थोड़ी देर पहले वाली उनकी खुशी और अब वाली व्यथा के बीच का सेतु।

                              

 


 


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