ये कैसा गणतन्त्र
दस्तक सुन, दरवाजा खोलते ही वटेसरकाका के हाथ में एक दोने पर नज़र पड़ी।
अचरज हुआ कि इस शीतलहरी में मधुमक्खी का छत्ता लिए क्यों दाख़िल हुए हैं
सबेरे-सबेरे। गौर करने पर पता चला कि दोने में भिनभिनाती हुयी मक्खियों से लगभग
ढकी हुयी दो जलेबियाँ हैं।
किन्तु कुछ पूछने से पहले ही
उचर पड़े— “आज गणतन्त्रदिवस है न बबुआ ! सोचा कि जलेबी के बहाने
तुम्हें याद दिला दूँ। आज ही के दिन फिरंगियों वाला पोथड़ा हमारे सिर मढ़ा गया था।
”
किन्तु ये भिनभिनाती
मक्खियों वाली जलेबी, ये भी भला खाने लायक चीज है?
काका जरा विहंसे— “बेशक ये खाने लायक चीज नहीं है। ये तो तुम्हें दिखाने के लिए लाया हूँ।
देख रहे हो न—दो जलेबियाँ हैं और मक्खियों का हुज़ूम जुटा है इन पर। ऐसा ही हमारा
लोकतन्त्र है, गणतन्त्र का अनोखे स्वाद वाला । जलेबी के रस के लिए जैसे मक्खियाँ
भिनभिना रही हैं, उसी तरह संसद की कुर्सियों के लिए नेता भिनभिनाते रहते हैं।
लोकतन्त्र की कुर्सी जितनी रसदार है, उतनी विधाता की सृष्टि में और कुछ भी रसदार
नहीं है। यही कारण है कि आजीवन कुर्सी से चिपके रहने की चेष्टा चलती रहती है, जैसे
सारा रस चूस लेने के बाद भी अभी तक मक्खियाँ उड़ने का नाम नहीं ले रही हैं जलेबी
पर से। ये जलेबी कल की ही है। सारा दिन आँगन में रख छोड़ा था, देखने के लिए कि
क्या होता है, कितनी मक्खियाँ मड़राती हैं इस पर। वैसे भी पपीते के दूध से ’मैदानी’ बनाकर, जलेबियाँ
तो अब बनती नहीं हैं। पश्चिम वालों ने सुनियोजित धर्माघात के तहत हड्डी के चूरन से
जलेबियाँ बनाने की कला सिखला दी है हमारे हलवाइयों को, जिसे फिरंगीबोली में हाइड्रो
कहते हैं। फिरंगियों को पता था कि जलेबी हमारी राष्ट्रीय मिठाई है। सो सबसे पहले
इसी पर प्रहार हुआ। एकबार एक अंग्रेज को जलेबी खाने को दिया गया तो, खाने से पहले
घंटों टकटकी लगाये सोचता रहा कि कितनी मिहनत से इसे बनाया गया होगा और फिर सिरिंज
से रस भरा गया होगा एक-एक करके। उस उल्लू को भला क्या पता कि जलेबी कैसे बनती है। जलेबी
की तरह ही हमारी हर अच्छी चीज को बरबाद किया शिक्षा, धर्म, सामाजिक व्यवस्था,
रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन सब चौपट किया और जाते-जाते Government of
India Rule को झाड़पोंछ कर हमारे संविधान के रुप में परोसते गया। ”
मुझे बीच में टोकना पड़ा—आप
ये क्या कह रहे हैं काका ! संविधान तो बहुत सम्माननीय
होता है किसी भी राष्ट्र के लिए। सभी सांसद पहले इसे सादर नमन करते हैं और इसी के
आलोक में कार्य निष्पादन हेतु शपथ लेते हैं।
काका ने सिर हिलाया— “बिलकुल सही कह रहे हो। शपथ लेने वाले को भी मालूम है कि इस शपथ का मतलब क्या
है और शपथ दिलाने वाले को भी वखूबी पता होता है कि शपथ का मोल होठों तक ही है। ये
कोई भीष्मप्रतिज्ञा थोड़े जो है। ये हर नेता को पता होता है कि आजीवन हस्तिनापुर
के सिंहासन के पाये से बँधे नहीं रहना है, बल्कि हस्तिनापुर की राजगद्दी पर
उचक-उचक बैठने का आजीवन प्रयास करते रहना है इसी संविधान का अलख जगाते हुए। देखते
ही हो, जरा भी कुछ होता है तो सबसे पहले लोकतन्त्र खतरे में पड़ जाता है। मानों
लोकतन्त्र नहीं हुआ, बालू की भीत हो गयी, जो छूते ही ढह जायेगी। अरे मूर्खो
! ऐसी ही बात है, तो फिर इतना कमजोर लोकतन्त्र तूने बनाया ही क्यों ? क्यों नहीं थोड़ा और पकने दिया? किन्तु तुम्हें
नहीं मालूम, जलेबी का रस चूसने को कई जीभ बेहाल थी। इसीलिए सुनियोजित ढंग से प्रबल
प्रतिद्वन्द्वियों को रास्ते से हटाया गया। कुछ जो नहीं हटने लायक लगे, उन्हें
ठंढे वस्ते में डाला गया। बात-बात में बालहठ का ब्रह्मास्त्र चला। बूढ़े बाप ने अनमने
हथियार डाले। ”
बात तो आप पते की कह रहे हैं
काका। असली वाला इतिहास हम नयी पीढ़ी को पढ़ने को मिला ही कहाँ है। जो भी मिला, रागदरबारी
की डायरी मिली। मुझे समझ नहीं आता कि सनातन धर्म, सनातन संस्कृति के पास क्या अपना
राष्ट्र-संचालन हेतु संविधान नहीं था जो इतनी मशक्कत से संविधान बनाना पड़ा?
“ यही तो
विडम्बना है बबुआ ! मनु, याज्ञवल्क्य,परासर...सैकड़ों
स्मृतियाँ और धर्मशास्त्र पटे पड़े हैं हमारे यहाँ। धर्मसूत्र से लेकर गृह्यसूत्र,
अर्थसूत्र,न्यायसूत्र, कामसूत्र तक कहीं खोजने जाने की जरुरत नहीं है, किन्तु
मतिमन्दों को क्या कहा जाए, दो-चार की चलती ने करोड़ों करोड़ की जिन्दगी तबाह
कर दी। उस तथाकथित सम्माननीय पोथड़े को ढोने का ही नतीजा है, जो हाल के दिनों में
देश में देखने को मिल रहा है। बात-बात में मॉबलींचिंग, अदनों बात में सड़क-जाम और मुआवजा।
भेड़ों की भीड़ को बखूबी मालूम है कि उनपर कोई कारवाई नहीं होनी है, सिरफिरे
नेताओं को मालूम है कि उन्हें रीकॉल नहीं किया जाना है, तोड़फोड़-गुण्डागर्दी करने
वालों को मालूम है कि वो किसी रसूकदार के पोसुएं पिल्ले हैं। ये सब खामियाँ या कहो
खूबियाँ उस सम्मानीय ग्रन्थ के ही हैं, जिसके सम्मान में हम ये दिवस मनाते हैं हर
साल। तुमने शायद सुना हो इस दिन को जमीन पर उतारने के लिए एक लौहपुरुष ने कितनी
तिकड़में की थी, कितने अपमान के घूंट पीए थे। चारों दिशाओं को एक तन्त्र में
पिरोने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े थे, भला आज के खादीपोशियों को उससे क्या
मतलब ! इन्हें तो सिर्फ अपनी कांपती कुर्सी की फ़िकर है। उसकी
सुरक्षा में ही ज्यादातर समय गुज़रता है। जनेऊ पहनने और टोपी उतारने का रिहर्सल
चलते रहता है। इस भ्रम में न रहना कि मन्दिर जाने से कोई हिन्दू हो जाता है और मस्जिद
जाने से इस्लामी। ये सब केवल कुर्सी की कवायद है। अन्नदाताओं के नाम पर अभी नई
वाली दुकानदारी शुरु हुयी है। सच पूछो तो शेर की खाल में भेड़िये ही जीभ लपलपा रहे
हैं। ये इसलिए बेचैन हैं क्योंकि कुछ दिनों से कच्ची रोटिआँ खानी पड़ रही है। कुछ अलाव
बुझ चुके हैं। इन्हें नया तगड़ा अलाव चाहिए। मशीहेपन का मरहम बेचने वाले दुकानदार
हैं ये—विष कुम्भ पयोमुखम्। तुम्हें ध्यान हो शायद अन्नदाताओं की आत्महत्या
की लम्बी विलम्बित सूची इन्हीं की फाइलों में हैं। ”
काका के शब्द-प्रवाह पर जरा
ब्रेक लगाने की इच्छा हुयी— ठीक कह रहे हैं काका ! लुच्चे, लफंगों,
दुष्टों, स्वार्थियों को भला क्या वास्ता गण से और क्या मतलब गणतन्त्र से ! किन्तु मुक्ति कैसे पायी जाए उल्लू-साधकों से— विचारने वाली बात है।
काका ने सिर हिलाया—“लाल किले के प्राचीर से ‘यूनियनजैक’ उतारकर तिरंगा लहराने में बनने वाले बाधकों को गोली मार दी जाती थी। आज
उसी लालकिले और तिरंगे का अपमान हुआ है। तो क्यों न बिना किसी मीन-मेष के इन्हें
भी गोली मार दी जाए? ”
बात तो आप बिलकुल ठीक कह रहे
हैं काका
! किन्तु हमारा संविधान इसकी इज़ाजत नहीं देता।
काका एकदम से तैश में आ गए— “ अरे मूरख ! वो भला तुम्हें क्यों इज़ाजत देगा? वो तो रचा ही गया है इसी ढंग से ताकि जूझते
रहो,
पिसते रहो। संवैधानिक दांवपेंच खेलते रहो। लोकतन्त्र और गणतन्त्र का यही तो अनोखा
ज़ायका है। चखते रहो।”
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