दवा जब जहर बन जाए

 



दवा जब जहर बन जाए

            वटेसरकाका ने सवाल किया — बबुआ ! एक बात बतलाओ- दवा जब जहर बनने लगे तो क्या करना चाहिए?

            अचानक के इस सवाल से चौंका, किन्तु ऐसे सवालों का उत्तर घिसा-पिटा सा होता है, इसलिए बिना मीन-मेष के बोला—इसमें सोचने-विचारने वाली बात ही कहाँ है, ऐसी दवा को जितनी जल्दी हो सके, निरस्त कर देनी चाहिए। बैन लगा देना चाहिए। उसके उत्पादन पर रोक लगा देनी चाहिए, अन्यथा पत्तियाँ छांटने और जड़ सींचने की कवायद चलती रहेगी, जैसे पोलीथीन-समस्या पर चल रही है। पिय्यकड़ी-समस्या पर चल रही है।

            काका मुस्कुराये— पोलीथीन और शराब वाली बात तो तूने सोलह आने सच कही। जब तक पिय्यकड़ रहेंगे, शराब बन्द हो ही नहीं सकती। छुटभैये मान भी जाएँ, बड़े लोग भला कब मानने वाले हैं ! असल पिआंक तो वे ही हैं। किन्तु समस्या ये है कि हमारे यहाँ निरस्तता सिद्धान्त यानि बैन-थ्योरी चलती ही नहीं। अगर ये चलती होती तो विदेशों में वरसों-वरस पहले से बैन दवाइयाँ धड़ल्ले से हमारे अकल के पैदल डॉक्टरसाहव प्रेसक्राईव करते रहते और कमीशन खाते रहते ! तुम्हें शायद पता न हो, विदेशी दवाइयों का अच्छा-खासा डम्पिंग-प्वायन्ट है हमारा देश। स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे शहर भर के कूड़े बटोर कर शहर के ही किसी मुकाम पर डम्प कर दिया जाता है, उसी तरह धरती की सारी जाली, घटिया दवाइयाँ हमारे देश में खपायी जाती है। डॉक्टरी डिग्री हासिल करने ने लिए इतनी मारीमारी इसीलिए है कि बगुले जैसा सफेद रास्ते से कोयले जैसे काले धन की कमाई बिना हींग-फिटकिरी के की जा सके। मेडिकल कॉलेजों की भीड़ देखकर इस भ्रम में न रहना कि ये लोकसेवा के लिए आगे आने वाले युवकों का जम़ीरी जुनून है। डिग्री लेकर या डिग्री लेने के बहाने, कुछ तो वीज़ाधारी होकर, उड़ जायेंगे और वापस मुड़कर अपने माँ-वाप की सुध लेने को भी नहीं झांकेंगे, जिन्होंने जोत-जमीन  बेंचकर उन्हें इस योग्य बनाया और बचे-खुचे सफेद कोट पहन कर, यहीं जुट जायेंगे—कमीशनखोरी के कम्पीटीशन में।

            मैंने टोका— लगता है किसी झोलाछाप डॉक्टर ने आज चूना लगाया है काका, इसीलिए डॉक्टरों पर इतना खफ़ा हो रहे हैं।

            मेरी बात पर काका ने सिर हिलाते हुए कहा —फिर चूक रहे हो मेरी नब्ज टटोलने में। झोलेछापों में भला इतना कहाँ दम है, जो बोरेछापों से टक्कर लें। कुछ अपवादों को छोड़कर, सबकी यही स्थिति है। किन्तु मैं आज इन कलाबाजों की बात नहीं करने आया था। तुमने तो मेरी गाड़ी ही लूप लाइन में सन्ट कर दी।  

तो फिर?

तुम्हें जान लेना चाहिए कि दवाइयाँ कई तरह की होती हैं। ऐसा नहीं कि सिर्फ फॉर्मासिस्टों और केमिस्टों ने ही ठेका ले रखा है दवाइयों का। इन जीवन-रक्षक या कहो भक्षक दवाइयों के अतिरिक्त अन्य भी कई तरह की दवाइयाँ होती हैं—मज़हबी दवाई, साम्प्रदायिक दवाई...। हालांकि ये सब राजनैतिक दवाई की कैटोगरी में आती हैं। राजनैतिक फैक्ट्रियों में बनने वाली दवाइयाँ सबसे तेज और आशुकारी होती हैं। इसकी छोटी पुड़िया भी बड़ी कारगर होती है। आयुर्वेद का रसायनशास्त्र भी इसके सामने फीका है। अश्विनीकुमारों ने तो एकमात्र महर्षि च्यवन को चंगा किया, युवा बनाया। राजनैतिक रसायन का सेवन कर देखते-देखते सात पीढ़ियाँ चंगी हो जाती हैं। टीबियाह थोबड़े पर भी गुलाल फिर जाता है। ऐसा गुणकारी रसायन भला कहीं और कहाँ नसीब होगा !

काका की बातों पर फिर ब्रेक लगाना पड़ा—राजनैतिक दवाई से आपका आशय क्या है?

गिरगिट की तरह सिर हिलाते हुए काका ने कहा —अनशन-धरना-प्रदर्शन लोकतन्त्र की सबसे तगड़ी रसायन-वटी है। एक और मकरध्वज है - आरक्षणवूटी। जो स्वतन्त्रता के बाद दस साल के डोज़ में प्रेशक्राइब की गयी थी राजनैतिक डॉक्टरों द्वारा, किन्तु स्वतन्त्रता के आठवीं दशक में प्रवेश के बावजूद, अभी तक अनवरत वही खुराक जारी है। ये दो वूटियाँ इतनी लाज़वाब हैं कि लोकतन्त्र को कभी बूढ़ा होने ही नहीं देंगी। मजे की बात ये है कि इन दोनों में कौन सिनीयर, कौन जूनियर है कहना मुश्किल । पहली वाली वूटी का प्रोड्यूसर-डायरेक्टर एक ऐसा शक्श था, जिसने आजीवन टोपी धारण न किया, परन्तु अपने नाम की टोपी का पेटेंट रिजर्व करा लिया। उसी की फैक्ट्री से पहले पहल अनशन-धरणा-प्रदर्शन की संजीवनी वटी निकली थी, जिसे देश ही नहीं पूरी दुनिया ने सराहा और सबने सहर्ष फ्रैंचाइजी ले ली। वैसे भी ये फ्रैंचाइची बिलकुल निशुल्क थी, गूललबाबा की निःशुल्क सेवा की तरह। हालांकि समझदार लोग बखूबी समझते हैं कि दुनिया में कोई चीज मुफ़्त की नहीं मिलती। फ्री और गिफ़्ट महज एक बहम है— ब्रह्म सत्यं जगत्मिथ्या की तरह। गूगलबाबा भी वैसे ही दानवीर हैं। खैर, इनकी दानवीरता या कि टोपीवाले की फ्रेंचाइसी के बावत मुझे ज्यादा कुछ कहने-बोलने का शौक नहीं है। वस इतना ही कहना काफी है कि पूरी दुनिया में हाईलेबल प्रोडक्शन शुरु हो गया इस रसायन का, क्योंकि सभी छुटभैये-बड़भैये नेता इसका स्वागत किए, चाहे वो ट्रेड-यूनियन के हों या लेबर-यूनियन के। शिक्षकसंघ वाले हों या विद्यार्थीपरिषद के। सूरज-चाँद की रौशनी की तरह गरीब-अमीर, गोरा-काला, पूरब-पश्चिम का भेद-भाव किए वगैर इस रसायनशाला की संजीवनी सबको लुभाती-रिझाती चली गयी।  देखा-देखी का रंग इतना चोखा हुआ कि अब तो आम आदमी भी इस रसायन का प्रयोग करना सीख गया है। सड़क पर लड़खड़ाते शराबी को भी धक्का लग जाए और प्राणपखेरु उड़ जाएं तो परिजन सड़कजाम रसायन का तत्काल प्रयोग करने लगते हैं और मुआवजे की मांग ठोंक देते हैं। लोकतन्त्र में कुर्सी सबसे कीमती चीज होती है— इन्सान के जान से भी कीमती। क्योंकि बूढ़ा विधाता इन्सानों की कमी तो दुनियाँ में होने नहीं देगा। उसे भी अपनी कुर्सी की फ़िकर है कि नहीं ! अतः कुर्सी की खातिर सब ज़ायज़ है। मजे की बात ये है कि वेटा मरा हो या पति, क्या फ़र्क पड़ना है ! आजीवन हाड़ तोड़ कर भी जितनी पूँजी इकट्ठी नहीं हो पाती, उतनी तो मुआवजे में मिल ही जाती है। मंहगाई भत्ते की तरह ये भी धीरे-धीरे बढ़ रही है। कुल मिलाकर कहो तो मुआवजे वाली रसायनवटी खूब चल रही है आजकल। और वो पहली वाली रसायन तो लाज़वाब है। दरअसल अनशन,धरना,प्रदर्शन, तोड़फोड़, आगजनी ये सब लोकतन्त्र के प्राण हैं। लोक रहे ना रहे, तन्त्र चलना चाहिए। स्वतन्त्रता का यही राज़ है।

मैंने टोका—आपकी ये बातें मेरे गले से नीचे उतर नहीं रही हैं काका ! लोकतन्त्र की सुचिता और सुचारुता हेतु शान्ति पूर्वक अपनी बात रखने की छूट दी गयी थी, किन्तु अब तो ढाल ही तलवार बनती जा रही है। आप ठीक कह रहे हैं कि दवा ही जहर बन गयी है। हाल के दिनों में जो कुछ देश-दुनिया में देखने को मिल रहा है, क्या वो लोकतन्त्र की उल्टी गिनती का संकेत नहीं है? वाइटहाउस से लेकर लालकिले तक की घटनायें क्या लोकतन्त्र पर घुठाराघात नहीं है? क्या ये लोकतान्त्रिक व्यवस्था का दुरुपयोग नहीं है?

काका ने हामी भरी— है, बिलकुल है। इसीलिए तो कह रहा हूँ कि पानी गर्दन पार करके, अब नाक के छेदों में घुसने को आतुर है। जितनी जल्दी हो सके, इसका उपाय करना होगा। भले ही लगेगा कि ये तानाशाही सोच है, परन्तु कठोर उपाय तो करना ही होगा। इन दोनों विगड़ैल घोड़ों पर काबू पाने का रास्ता निकालना होगा। धारा 370 के समय भी ऐसी ही बातें की जा रही थी—खून की नदियाँ बह जायेंगी। परन्तु दृढ़ इच्छाशक्ति ने कुछ भी होने न दिया। अनशन और आरक्षण के कोढ़ का भी ऑपरेशन होना बहुत जरुरी है। और ये साधारण प्लास्टिक सर्जरी से काम चलने वाला मामला भी नहीं है। आस्तीन में छिपे एक-एक सपोलों को चुन-चुनकर राष्ट्रहित के हवन-कुण्ड में झोंक देने की जरुरत है। जनमेजय को फिर एक बार सर्पयज्ञ का आयोजन करने की जरुरत है। किन्तु अस्तीकों से सावधान रहने की भी जरुरत है, ताकि असली शत्रु-तक्षक को वो बचा न ले जाए।

काका के संदेश पर विचार करने को विवश हो गया। क्या आप भी मेरे विचारों में सहभागी बनना चाहेंगे?

  

            

 

             

           

Comments