कलयुगी विश्वामित्रों की समानान्तर
सृष्टि
पुराने समय में एक राजर्षि हुए थे विश्वामित्र—गाधीतनय,
जो महर्षि वशिष्ठ के शत-पुत्रों की हत्या ईर्ष्यावश कर दिए थे। वशिष्ठ के आश्रम से
कामधेनु के अपहरण का कलंक भी इन्हीं के माथे है। वशिष्ठ ब्रह्मर्षि कहे जाते थे।
विश्वामित्र को ये पदवी नहीं मिली कभी, इसी बात का सदा खेद रहा इन्हें और इसी कारण
वशिष्ठ से प्रतिद्वन्द्विता भी रही, एक पक्षीय द्रोह भी।
चुँकि विश्वामित्र
ब्रह्मविद्या की स्रोतस्विनी—महागायत्री के अनन्य उपासक थे और कठोर साधना करके
प्रचुर शक्ति अर्जित कर लिए थे, इसका उन्हें घोर
दम्भ था। एक बार तो उन्होंने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को ही चुनौती दे दी और
धड़ाधड़ समानान्तर सृष्टि रचने लगे। भैंस, ताड़,खजूर,बबूल इत्यादि इनकी उसी भोंड़ी
सृष्टि के उदाहरण हैं। उनकी अहंपूर्ण सृष्टि को बहुत कठिनाई और मान-मनौवल से रोक
पाये देवगण। राजा त्रिशंकू को सशरीर स्वर्गारोहण का दुष्प्रयास भी इन्हीं
विश्वामित्र के दम्भी कृत्यों में एक है।
सतोगुणी ऊर्जा जब
रजोगुणी-तमोगुणी के हाथ लग जाती है, तब कुछ ऐसा ही होता है। मन्त्र वही होता है, देवता
वही होते हैं, किन्तु साधक जब सतोगुणी के वजाय रजोगुणी-तमोगुणी हो तो पयः पानं
भुजंगानाम केवलं विष वर्द्धनं—के सिवा कुछ अन्य नहीं हो पाता। कंस, रावण,
वृत्रासुर, महिषासुर, भस्मासुर आदि ऐसे चरित्रों से पुराण पटे पड़े हैं।
अस्तु
! ये सब आख्यायिकाएँ तो सतयुग, त्रेता, द्वापर युगों की हैं। वर्तमान
कलिकाल में ऐसे ऊर्जावानों की भरमार है। प्रकृति और दैवीसृष्टि को चुनौती देने
वाले अनेकानेक प्रयोग नित्य चल रहे हैं। ‘क्लोनिंग टेक्नोलॉजी इन मेडिकल सांयन्स’ को राजनैतिक मुहर लगने भर की देर
है। चिरयुवा च्यवन बनने से लेकर, अमरत्व-प्राप्ति तक के प्रयोग चल रहे हैं। ‘विद्या’, ‘ज्ञान’, ‘विज्ञान’ सबको तिलांजलि
देकर सर्वत्र ‘सांयन्स’ का
बोलबाला है आज। ध्यातव्य है कि सांयन्स विज्ञान नहीं है। विज्ञान का अंग्रेजी
अनुवाद भला सांयन्स जैसा बौना शब्द कैसे हो सकता है ! हाँ इतना
अवश्य कहना पड़ेगा कि सांयन्स ने बहुत कुछ सुलभ-सरल करा दिया है। किन्तु ये कहना
भी अतिशयोक्ति नहीं कि सांयन्स की प्रायः प्रत्येक सर्जना (निर्माण) प्रत्यक्ष वा
परोक्ष रुप से विनाश की सर्जना है— गति की ओर हो या प्रगति की ओर। वस्तुतः जिसे हम विकास कहने-समझने
की भूल करते हैं, वो विनाश की भूमिका है। सिद्धान्त की बात है कि प्रकृति के
विरुद्ध हम जब भी यात्रा करेंगे, तो वो यात्रा विकृति और विनाश की ओर ही ले जाने
वाली होगी। पूँजीवादी शब्दकोश में मजबूती और टिकाउपन शब्द नहीं है। ‘यूज एंड थ्रो’ में ज्यादा भरोसा है। फिर भी
प्लास्टिक जैसी अनेक चीजें बन गयी हैं, जिन्हें प्रकृति सरलता से आत्मसात नहीं कर
पाती। धरती से लेकर अन्तरिक्ष तक, सबकुछ गंदा
कर दिया है हमने। मिट्टी, हवा, पानी कुछ भी स्वच्छ नहीं रहने दिया है तथाकथित
विकास के नाम पर। सनातनी कुँओं को भरवाकर, नदियों के स्वच्छ जल को रसायनिक
विषों से प्रदूषित करके, साफ पानी बेंचने वाले पूँजीवादी अब जंगल और पहाड़ों को
ध्वस्त करके, साफ हवा भी बेचने में कामयाब होंगे । कृषि अनुसन्धानों ने
फल-सब्जियों के असली स्वाद और गुण को हड़प लिया। उनके रंग-रुप पर भी कब्जा कर
लिया। पके पीले पपीते अब लाल-गुलाबी होने लगे हैं। आम में अंगूर और लीची में गुलाब
का पैबन्द लगाने में वैज्ञानिक सफल हो गए हैं। असली गायों का नस्ल समाप्ति के कगार
पर है। ‘क्रॉसब्रिड जेनेरेशन’ का
आधिपत्य हो गया है। दूध दूहने के लिए बछड़े का होना जरुरी नहीं रह गया है, क्योंकि
वो आधा दूध पी जाते हैं, जबकि ‘पिट्यूसीन’ का इन्जेक्शन बड़ी आसानी से दूध उतार देता है। ऐसे कलाबाज भी पैदा हो गए
हैं, जो गाय-भैंस की असली दूध के प्रतिद्वन्द्वी नकली दूध बनाने में सफल हो गए है,
जिसकी गुणवत्ता और असलियत पर अँगुली उठाने में वेलस्टैब्लिस्ड लैब भी फेल
हैं। चावल-गेहूँ अब खेतों के वजाय फैक्ट्रियों में उपजने लगे हैं। ‘आलू की फैक्ट्री’ लगवाने की मूर्खतापूर्ण बात पर
अब कोई हँसने की धृष्टता नहीं करेगा। ‘शाकाहारी मांस’ और ‘निरामिष
अंडा’ तो पुरानी बात हो गयी। ‘कामसुख’ अब केवल मनुष्य के कब्जे में रह गया है। गाय-भैंसे,
मुर्गियाँ तो आधुनिक तकनीक से गर्भवती होती हैं। दुर्वासा के सिद्ध मन्त्र की
जरुरत नहीं अब किसी कुन्ती को, क्योंकि ‘डिम्बों’ का प्रत्यारोपण या कि ‘शुक्राणुओं’ का संरक्षण और मनोवांछित प्रयोग
कलियुगी विश्वामित्रों ने जान लिया है।
ये सब कलियुगी विश्वामित्रों
की समान्तर सृष्टि का चमत्कार है। ऐड्स, चिकनगुनियाँ, स्वायनफ्लू ही नहीं, कैंसर
और कोरोना भी तो इन्हीं की देन है ! पता नहीं अभी और क्या-क्या देंगे ये !
किन्तु विडम्बना ये है कि हम
खुश हैं। खुश इसलिए हैं क्योंकि हमें विकासवाद और पूँजीवाद का भंग पिला दिया गया
है। उस भंग में सुपारी का जहरीला बीज भी
मिला हुआ है, जो भंग के तरंग में चार चाँद लगा रहा है। हम बेसुध हैं। भंग की तरंग
में बड़बड़ाये जा रहे हैं। विकासवाद जिन्दावाद का नारा बुलन्द किए जा रहे हैं।
राम-लक्ष्मण को अयोध्या से विश्वामित्र-आश्रम
वकसर के लिए विदा करते समय महाराज दशरथ की निजी इच्छाओं का दमन हुआ था। आज कलियुगी
विश्वामित्रों की भीड़ में हमारी-आपकी इच्छाओं का भी दमन हो रहा है। ‘अपार्मेन्टी सभ्यता’ में जीने वाले हम, चाह कर
भी शुद्ध गाय का शुद्ध दूध नहीं पी सकते। फल-सब्जियों का असली स्वाद हमें नसीब
नहीं और न वासमती की खुशबू ही मिलने वाली है, क्योंकि इन सबपर कलियुगी विश्वामित्रों
का कब्जा हो चुका है।
जब हम ही ‘वर्णसंकर’ हो गए हैं, तो फिर सर्जना
की वर्णसंकरता को भला कौन रोके?
किन्तु ये मूरख इन्सान
! कान खोलकर सुन ले—हिरोशिमा से उत्तराखण्ड तक की गन्धाती लाशों से
लेकर अनगिनत अस्पतालों के फ्रीजरों में पड़ी लाशों तक का हिसाब तुम्हें ही देना
होगा। प्रकृति के साथ खिलवाड़ की भारी सजा तुम्हें भोगनी ही पड़ेगी। इससे कोई
सांयन्स तुम्हें कतई बचा नहीं सकता ।
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