गिरगिट गोष्ठी

 

गिरगिट-गोष्ठी


            प्रगति मैदान में आज गिरगिट-गोष्ठी का भव्य आयोजन है। ज़ाहिर है कि स्वतन्त्रता हासिल करने के बाद चुँकि हम प्रगति की ओर बहुत तेजी से अग्रसर हुए हैं (गौरतलब है कि यहाँ प्रगति की बात कर रहा हूँ, उसकी दिशा-दशा की नहीं। बहुत मामले में बहुत आगे गए हैं, तो बहुत मामले में बहुत पीछे भी सरके हैं। भौतिकी की भाषा में दोनों तो गति ही है न। गति में प्र लगा देने से प्रगति बनता है)  और इस ग्लौपिंग विकास में गोष्ठियों का बहुत बड़ा योगदान हुआ करता है, इसलिए समय-समय पर गोष्ठी-संगोष्ठी तो होनी ही चाहिए। अब ये बात दिग़र है कि शान्ति-सद्भावना पूर्ण गोष्ठी में खलल डालने कोई मूसलचन्द आ घुसे, ऐसे में मेजबान और मेहमान में भला फ़र्क कौन समझे ! सभी भैंसें काली ही होती हैं। भीड़ तो फिर भीड़ होती है। उसके पास दिमाग नाम की डिवाइस तो होती नहीं। थोड़ी बहुत होती भी है तो चाइनिज माल की तरह कब धोखा दे जाए, इसकी भला कौन गारंटी ले सकता है। छोटी-मोटी गोष्ठियाँ तो गली-नुक्कड़ से लेकर गांधी मैदान तक निपट ली जाती है, किन्तु भव्य गोष्ठी के लिए प्रगति मैदान का चुनाव करना, समय के नब्ज के साथ-साथ जनता जनार्दन के नब्ज के पारखी लोग भलीभाँति जानते हैं। — वटेसरकाका एक ही सांस में इतनी बातें कह गए और मैं सुनते रहने को विवश रहा, क्योंकि अभी-अभी एक शुभचिन्तक ने मंहगी वाली वनारसी पान की गिलोरी खिलाकर मेरा मुंह बन्द करा दिया था, वैसे ही— जैसे वोट के खातिर नेता या कि थाने में FIR दर्ज़ न होने के लिए गुण्डा थैली थमा देता है। काका की बेतुकी बातों पर सवाल-जवाब तो आए दिन होते ही रहते हैं, किन्तु चाँदी के वर्क लगी गिलोरी हमेशा थोड़े जो नसीब होती है।

            गटाक से पीक घोंटकर पूछा—क्या कह रहे हैं काका ! गिरगिटों की गोष्ठी, वो भी प्रगति मैदान में? ये गिरगिट भी आजकल गोष्ठियाँ रचाने लगे ?

            काका मुस्कुराये — तुम कभी नहीं समझोगे। दरअसल बेचारे गिरगिट बहुत खिन्न हैं इन्सानी हरकतों से। उन्हें इस बात का गौरव था कि विपत्ति आने पर या आसानी से शिकार दबोचने के लिए ये बड़ी सहजता से अपना रंग बदल लिया करते हैं। ये रंग भी समयानुकूल और इनके लिए एकदम माकूल हुआ करते हैं। किन्तु जब से इन्सानों ने इनकी ये कला या कहो विज्ञान का अनुकरण कर लिया है, तब से ये बड़े गमगीन हैं।

   गिरगिटों की तरह रंग बदलता इन्सान?— मेरे चौंकने पर काका ने बतलाया — अपना रंग भला क्या बदल पायेगा—गोरा गोरा ही रहेगा। काका काला ही रहेगा, कितना हूँ फेयरलवली पोत ले। किन्तु विचारों का रंग तो हवा के रुख के हिसाब से बदल ही जाता है। इतनी राजनैतिक पार्टियाँ हो गयी हैं कि चुनाव आयोग के लिए सही निशान मुहैया कराना मुश्किल हो रहा है। कभी लालटेन बुझ जाती है तो कभी सायकिल पंचर हो जाता है। अब सायकिल पर हाथी बैठ जायेगा, तो पंचर होगा कि नहीं? लालटेन पर तीरंदाजी का करतब दिखाने का भला क्या नतीज़ा होगा ! यही कमल था कि सनातनी काका के कोट में कितना शोभता था, पर उसे उनके ही औलादें पंजों से मसलने की कोशिश में हैं। बैलों की जोड़ी को ट्रैक्टरों ने रौंद डाला। अभी जोरदार तैयारी चल रही है- घासों को जड़ से उखाड़ फेंकने की। एकएक कर सारे घसियारे कमल की खेती में जुट गए हैं। ये भी नहीं सोचते कि कमल का जड़ कीचड़ में ही होता है,किन्तु कुरते का कीचड़ धोने वाला घटिया डिटर्जेंट कुरते का रंग भी उड़ा ले जाता है। हमें समझ नहीं आता  कि मूँछ-पूँछ रंगने से सियार शेर हो जायेगा? या कुरते में कमल खोंस लेने से कीचड़ का दुर्गन्ध दूर हो जायेगा?”

आपकी ये अविधा-लक्षणा-व्यंजना मेरी समझ से परे है काका। आप सीधी-सीधी बात क्यों नहीं करते?

मेरी बात पर काका झल्ला उठे — सीधी ही तो कह रहा हूँ। गिरगिट जितनी देर में रंग बदलता है, पश्चिम वाले उतनी देर में बीबियाँ बदल लेते हैं और उसी स्टाइल में हमारे यहाँ पार्टियाँ बदली जाती हैं। कोई जरुरी नहीं कि वोट लेने के समय नेता की जो पार्टी थी, सरकार बनाने के समय भी वही रह जाए। कुर्सी हासिल करने के लिए गधे को बाप या बाप को गधा कहना पड़े तो भी कोई हर्ज़ नहीं। किसी गैर को हमविस्तर बनाना पड़े या कि हमविस्तर को गैरविस्तर करना पड़े, सब चलता है कुर्सी के खातिर। अरे बबुआ ! इज्जत पाने के बहुत मौके हैं, पर कुर्सी पाने का मौका हरदम थोड़े जो मिलता है। एक बार मौका खो देने पर कम से कम पांच साल तो इन्तजार करना ही पड़ता है। और ये ससुरा पाँच साल ब्रह्मा के दिन की तरह जल्दी बीतता भी नहीं है।

आप भी न काका नेताओं पर एकदम से सूप-बढ़नी लेकर पड़ गए हैं। आप जानते ही है कि इज्ज़त तो आजकल दौलत की गुलाम है। श़ोहरत भी इसी के साथ खिसका चला आता है। कुर्सी-कानून पर गम्भीरता से अमल करने वाले कई-कई सिरमौर हैं। गणतन्त्रता के बाद वाले दशक में ही इसका श्रीगणेश हो गया था। एक विधायकजी ने एक पखवाड़े में तीन बार दलबदल-प्रयोग आज़माया था। सुनते हैं कि पिछली सदी के नौवें दशक में ही संविधान की दसवीं अनुसूची में संशोधन करके दलबदल विरोधी कानून लागू किया गया था। किन्तु क्या हस्र हुआ? नये-नये बील बनाते गए चूहे। तब से अब तक कई-कई बार उस कानून में सुधार किए गए। किन्तु हर बेरियर पर एक बील। कितनी चूहेदानियों का प्रयोग किया जाए ! राजनीति का दांवपेंच इतना घिनौना हो गया है कि किसी सभ्य, सुशील, ईमानदार का गुज़ारा होना नामुमकिन। स्वाभाविक है कि सभ्य लोग इधर से आँखें मोड़ेंगे तो असभ्यों की घुसपैठ होगी ही। बागियों और दागियों का जमावड़ा हो गया है लोकतन्त्र का पवित्र मन्दिर। मन्दिर में मूर्ति की अभिरुचि से भला किसे मतलब ! पुजारी के मनमुताबिक ही तो प्रसाद वितरण होगा न !

काका ने हामी भरी — अभी तुमने बिलकुल होशियारों वाली बात कही। दक्षिणपीठ को वामपीठ बनने में समय ही कितना लगता है? पुजारी के हिसाब से प्रसाद मिलता है। मन्दिर जैसे के अधीन होगा, प्रसाद भी वैसा ही होगा। दलबदलू मर्ज़ को कानूनी पुड़िया से दुरुस्त करना मुश्किल है। ऐसे नासूर के इलाज़ के लिए जनता को ही अमल-पहल करना होगा। गौरतलब है कि पार्टियों का गठन, निबन्धन आदि तो बहुत ही सरल है, किन्तु उनका नाश यानी रद्दीकरण बिलकुल कठिन या कहें असम्भव सा है, क्योंकि चुनाव आयोग के पास भी समुचित शक्ति नहीं है। ऐसे में विधायकों-सांसदों का खुल्लम-खुल्ला खरीद-फरोख्त यूँ ही जारी रहेगा। होटल-रिशॉर्ट बुक होते रहेंगे। ऐसा नहीं कि सिर्फ लड़कियों या बच्चों की किडनैपिंग होती है। विजेता की वरमाला पहने जनप्रतिनिधि भी कम खूबसूरत थोड़े जो लगते हैं ! इनका अपहरण रोकना कहीं ज्यादा मुश्किल है। अतः इन पर अंकुश लगाने की कोई कड़वी पुड़िया जब तक इज़ाद नहीं होगी, तब तक जनता द्वारा, जनता का, जनता के लिए वाले लोकतन्त्र का सपना साकार हो ही नहीं सकता। लोकतन्त्र में मूर्ख राज करते हैं। ये मूर्खों का शासन है—कहने वाले ने कुछ सोच-समझ कर ही कहा होगा।  

किन्तु इस मूर्खतन्त्र की ही खूबी है कि हम-आप अपनी डफली, अपना राग अलापने में मश़गूल हैं। सर्वोच्च न्यायालय या कि प्रथम नागरिक तक की अवमानना करने में भी जरा भी नहीं हिचकते। स्वयं के लिए सम्मान की भूख है, पर दूसरे के लिए अपमान का पिटारा लिए फिरते हैं। अस्तु ! जो भी हो, गम्भीरता से चिन्तन-मन्थन करने की जरुरत तो है ही। स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता की इज़ाज़त तो नहीं देगी न !

 


           

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