सोशलमीडिया की संक्रामक व्याधि
‘रसरंग’ साप्ताहिकी का पन्ना लिए वटेसर
काका ने दरवाजे पर दस्तक दी और अन्दर आते ही अपनी बतकही का तोप दागने लगे, जिसके
लिए मैं कतई तैयार नहीं था— “भगवान कभी भला न करें सोशलमीडिया
लाँचरों का । न इसे छोड़ने में चैन , न पकड़ने में। दोनों हाल में बेचैन। ब्रह्म
सत्यं जगन्मिथ्या वाली असली दुनिया में लगता है कुछ कहने-करने-समझने-समझाने को
बचा ही नहीं रह गया, जो हर आदमी एकदम से चिपकू बना रहता है किसी न किसी गैजेट्स
से। ”
दरअसल
कोरोना काल में एक बड़ा हादसा हो गया काका के साथ—काकी अपने मैके गयी और तीसरे दिन
ही लॉकडाउन हो गया। इस समस्या के समाधान हेतु एक दयावान मित्र ने काका को मेल-जोल का नया वाला
नुस्खा बताया और अपना पुराना वाला स्मार्टफोन भी गिफ्ट कर दिया। तब से ही काका
ज्यादातर उस गिफ्ट पर ही शिफ्ट रहने लगे। जब देखो स्मार्टफोन पर उँगुलियाँ नचाते
रहते । काकी को कभी ऑडियो, कभी वीडियो कॉल करते रहते। काकी को तो ये सब आता-जाता
नहीं। वो बेचारी परेशान होकर अपने भाई-भतीजों का सहारा लेती। मैके वाले हँसते और
काकी का मजाक उड़ाते। परन्तु काकी के लिए भी लाचारी थी।
आठ
महीनों तक यही सिलसिला चला। किन्तु लॉकडाउन ढीला होने के बाद भी काका का सिलसिला
जारी ही रहा। काकी तो मैके से घर वापस आ गयी, किन्तु काका गैजेस्ट्स से वापस न आ
सके। आज रसरंग का मनोवैज्ञानिक संदेश पढ़कर काका का माथा ठनका और चले आए मेरा माथा
चाटने।
“सुनते हैं बबुआ ! कि सोशलमीडिया एडिक्ट हो जाने से रिश्तों
में खटाश आ जाती है। डॉक्टर कहते हैं कि डिजिटल डिटॉक्सिकेशन की सख्त जरुरत
है, नहीं तो कई तरह की शारीरिक-मानसिक बीमारियों का शिकार होने का अंदेशा रहता है।
डॉक्टरों का कहना है कि चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, क्रैम्प, स्पॉन्डिलाइसिस, अनिद्रा
जैसी बीमारियाँ मॉर्डन गैजेस्ट्स से ही पैदा हुयी हैं। इन विज्ञानवालों ने तो
साँप-छुछुन्दर वाली हालत बना रखी है आदमी की। किसकी सुने, किसकी न सुने ! रोज एक से एक डिवाइसों का इज़ाद होते रहता है—ब्लडप्रेशर कितना है, सूगर
लेबल कितना है, दवा कब खायें, कितना खायें, कितना सोवें, कितना दौड़ें, कितनी
गपबाजी करें...सारी बातें रिस्टबैंड वाली डिवाइस बता देती है। बस एक दो डिवाइस और निकल
जाते तो मजा आ जाता—डींगें कितनी हांके, वयानबाजी कितना करें, झूठ कितना बोले, घूस
कितना लें, घोटाला कितना करें, नजरें कितना लड़ायें...। ”
काका
की बातों का खंडन करते हुए मैंने कहा—बात कुछ-कुछ सही है काका;
किन्तु इसमें उपकरण बनाने वाले की क्या गलती !
माचिस की तिल्ली से आरती का दीया जलाये याकि किसी का घर फूँक दे, इसमें भला बनाने
वाले का क्या दोष? सुविधाजनक चीजों के दुरुपयोग से असुविधा
पैदा होने लगे, तो इसमें दोष किसका ? मार्कजुकरवर्ग ने तो
नहीं कहा था कि फेशबुक-वाट्सऐप पर अफवाहें फैलाओ, किसी को गालियाँ दो, किसी के साथ
बदतमीज़ी करो ! चैटिंग, रेटिंग, डेटिंग सब होने लगे। लव से
तलाक तक के काम निपटाये जाने लगे। दरअसल अच्छा-बुरा जो भी होता है आदमी उसके लिए
खुद जिम्मेदार होता है। फूल तो खुशबू ही विखेरेगा न और कूड़ादान...!
काका ने सिर हिलाया—“ तुम्हारी बातों में थोड़ा दम तो जरुर है, परन्तु मुफ्त के इन सलाहकारों की बातों का क्या करुँ—लॉकडाउन
में बाबुओं से लेकर बच्चों तक को ऑनलाइन की लत लगा दी गयी। ऑनलाइन ऑफिस, ऑनलाइन
स्कूल, ऑनलाइन डिलेवर, ऑनलाइन लवर भी—सबकुछ ऑनलाइन होने लगा। अब कोई ऑफलाइन होना नहीं चाहता। किसी को लेटनाइट
वाली लवली-लवली चैटिंग की लत लग गयी है, किसी को पब्जी की। ये मीडियावाले
भला क्यों बतलायेंगे कि घरेलू हिंसा जितनी इस लॉकडाउन के दौरान हुयी है, उतनी
पिछले दस-बीस सालों में नहीं हुयी थी। नाना प्रकार के गैजेटों से खेलता इन्सान खुद
भी गैजेट बनकर रह गया है। किसी के पास जाओ मिलने-जुलने के ख्याल से, तो पाओगे कि
उसका ज्यादा ध्यान स्मार्टफोन के गैर-स्मार्ट नोटिफिकेशनों पर ही है। तुम आए—इसकी कोई
अहमियत नहीं। यहाँ तक कि बिस्तर पर ३६
का आंकड़ा पेश करते मियाँ-बीबी अपने-अपने ग्रूपों और टाईमलाइनों में खोये रहते हैं।
६३ होने
का नौबत ही नहीं आता भोर तक। सोचने वाली बात है कि वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर एक से एक
रुपहले चेहरे जब सामने हों, तो दशकों-दशकों से देखते आ रहे घिसे-पिटे चेहरे के
प्रति रुझान भला क्योंकर होगी ! पाउच वाली दूध में
फुलक्रीम है ही, फिर गाय के गोबर-मूत में सनना भला कौन चाहेगा! ”
काका की रंगीनमिज़ाजी पर कभी-कभी
कुछ कहने का मन करता है। किन्तु लिहाज़ का दामन थामे, कुछ कह नहीं पाता। परन्तु
सोचने को विवश जरुर हो जाता हूँ।
विज्ञान ने हमें बहुत कुछ
दिया है—तोहफ़े भी, ज़हर भी, कहर भी। दूर दृष्टि रखकर भी यदि हम हाथी की तरह पैरों
तले ही देखने और इठलाने के आदी रहेंगे तो इसमें दोष किसे दिया जाए
!
संचार सुविधाएं भले ही
दुनिया को मुट्ठी में ला समेटा हो, परन्तु वास्तविकता यही है कि रिश्तों के बीच
मोटी-मोटी दीवारें खड़ी हो गयी हैं। एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 33 प्रतिशत लोगों
ने स्वीकारा है कि स्मार्टफोन की पल भर की दूरी उन्हें बैचैन कर जाती है। 44
प्रतिशत लोगों ने स्वीकारा कि स्मार्टफोन विस्तर पर ही रखना पसन्द करते हैं। 70
प्रतिशत लोगों ने स्वीकारा कि नोटिफिकेशन चेक किए वगैर उन्हें नींद ही नहीं आती।
इस रिपोर्ट से थोड़े हट कर यदि
हम विचार करें तो पायेंगे कि पूँजीवादी विकृति वैज्ञानिक शोध से कहीं ज्यादा घातक
सिद्ध हुयी है मानवता के लिए। चन्द अपवादों को छोड़कर,वैज्ञानिकों पर उँगली उठाना
उचित नहीं। अपने शोध के क्रम में वैज्ञानिक आविष्कृत वस्तु के गुण-दोषों से अवगत
अवश्य कराता है। किन्तु पूँजीवाद और बाजारवाद हावी हो जाता है, साथ ही राजनैतिक
कुठाराघात का शिकार हो जाता है विज्ञान। परमाणु बम बनाने वाले ने तो नहीं कहा था
कि हिरोशिमा पर गिरा दो। वैज्ञानिक ने तो नहीं कहा होगा कि विश्व में कोरोना फैला
दो। वैज्ञानिक ने तो नहीं कहा होगा कि हिमालय को क्षतिग्रस्त कर, वहाँ
होटल-रिशॉर्ट और अट्टालिकाएँ बना दो। वैज्ञानिक ने तो नहीं कहा होगा कि लैबोरेट्री
में सेंथेटिक चावल-गेहूँ बनाकर बाजार में ठेल दो। वैज्ञानिक ने तो नहीं कहा होगा
कि सेंथेटिक दूध-घी बनाकर लूटो। वैज्ञानिक ने तो नहीं कहा होगा कि पेस्टीसाइड-फैटेलाइज़र
का इतना इस्तेमाल करो कि खाद्यपदार्थ ज़हरीला हो जाए । और न वैज्ञानिक ने यह कहा
होगा कि स्मार्टफोन के वगैर तुम्हारी जिन्दगी अधूरी है।
सवाल ये है कि आँखिर ये सब
हुआ क्यों?
संक्षिप्त सा उत्तर है— मुट्ठीभर
लोगों का घटिया सोच—हम रहें, दुनिया जाए भांड़ में। हम सबसे शक्तिशाली हों। हम
सबसे धनवान हों...।
पूँजीपतियों ने सस्ते-महंगे
स्मार्टफोन बनाकर बाजार में ठेल दिया। विज्ञापनबाजों ने अपना उल्लू सीधा किया।
सस्ते और मुफ्त डाटा दे-देकर हमारा लत बिगाड़ा और फिर लूट मचा दी। 2जी,4जी, 5जी तक की ललक जगायी और ज्यादातर मिला
0 जी का ठेंगा—कुम्भकरणी निद्रा में सोया हुआ सर्वर। सीमकार्ड तो बोरियों से बेंच
लिए। इन्फ्राइन्स्ट्रक्चर पता नहीं कब सुधरेगा डिजिटल इण्डिया में !
जूता, मोज़ा, टाई, बेल्ट, स्टेशनरी
बेंचने वाले मैकाले के वंशजों वाले स्कूलों ने लॉकडाउन के नाम पर ऑनलाइन सेवा शुरु
की। प्ले-नर्सरी को भी स्मार्ट बना दिया। मजे की बात तो ये है कि अभिभावक भी
अभिभूत रहे—बाह
! बच्चा स्मार्ट हो गया। शायद ही किसी ने विरोध किया हो इस शैक्षणिक
कुव्यवस्था का। उच्च वर्ग के बच्चे पहले से ही डिजिटल-एडिक्ट हो रहे थे, लॉकडाउन
ने मध्यम वर्ग को भी शिकार बना लिया। निम्नवर्ग बेचारा तो तब भी हसरत भरी निगाहों
से देखता था, अब भी देखने को विवश है। खैरियत है कि वोटभूखू सरकार बहादुरों ने चावल-गेहूँ
की तरह 2-3 रुपये में स्मार्टफोन नहीं बाँटे, अन्यथा ये वर्ग भी गया होता उसी
तिलहंडे में।
हाँ, एक बात और देखने को मिल
रही है, बेरोजगारी बहुल समाज में—नयी-नयी मानसिक बीमारियों के उपचार के लिए
साइकोलॉजिस्ट, साइक्रियेटिस्ट या अन्य थेरापिस्टों की चाँदी कटने लगी है। नये
क्लीनिक खूब खुले हैं। ये सब स्मार्टियत
की उपलब्धि है, जिसे भोगना है आम-वो-खास को।
यदि नहीं भोगना चाहते, बँचाना
चाहते हैं वर्तमान और भावी पीढ़ी को तो फिर दमदार बिगुल फूँकना होगा तथाकथित
विकासवादी चोंचलेबाजों के खिलाफ।
मेरी लम्बी व्याख्यान को आज
काका ने बड़े धैर्य से सुना और अन्त में पूछा— “बात तो
बिलकुल पते की कर रहे हो बबुआ ! किन्तु सवाल ये है कि बिल्ली
के गले में घंटी बाँधे कौन?”
नहीं काका
! नहीं। घंटी-वंटी बाँधने की जरुरत नहीं है। वास्तविक विकास का
पैरामीटर हमें खुद बनाना होगा। हम क्या करें, क्या न करें—इसका निर्णय हमें खुद
करना होगा।
“मान लेता हूँ
तुम्हारी इस बात को भी, किन्तु मेरी समस्या ये है कि तुम्हारी काकी कल से ही रुठी
हुयी है बढ़िया वाला स्मार्टफोन के लिए। अब तुम्हीं चलकर उन्हें समझाओं इसकी
खामियों को।”
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