लिफ़ाफ़ा

 



लिफ़ाफ़ा

लिफ़ाफ़ों के बावत अपना कुछ अनुभव बतलाओगे बबुआ ! मुझे तो इससे अब बड़ा डर लगने लगा है।— वटेसरकाका की बात पर मैं जरा चौंका। किन्तु मेरे कुछ कहने-पूछने का इन्तज़ार किए वगैर काका उचरते रहे— लिफ़ाफ़ा यानी कि कवर किसी छिपे मज़बून के लिए। कभी-कभी इसे मुल्लम्मा के लिए भी इस्तेमाल करते हैं, तो कभी-कभी बढ़ा-चढ़ाकर बातें बनाने के अर्थ में भी प्रयोग हो ही जाता है लिफ़ाफ़े का—बड़ा लम्बा लिफ़ाफ़ा है...। अपने आप में लिफ़ाफ़े का बड़ा महत्त्व है, खासकर इस मायने में कि छिपने-छिपाने के लिए बड़े काम की चीज है लिफ़ाफ़ा। प्रेमपत्र से लेकर श़ाही मजबून तक सब इसके भीतर ही रखे जाते हैं अपनी मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए। भले ही आज के बिटकॉन युग में खटाखट ट्रान्जेक्शन हो जाते हैं, फिर भी ज्यादातर टी-टॉक-टेबल-टॉक के बाद काम बनने-बनाने के लिए करेन्सियों का लेन-देन लिफ़ाफ़े के भीतर से ही होकर गुज़रता है। ये लिफ़ाफ़े अपने आप में बड़े सुरक्षित माने जाते हैं, इसीलिए इनकी लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। खुला गिफ़्ट देने के बज़ाय बन्द लिफ़ाफ़ा देना निरापद माना जाता है। विवाह-उत्सव का न्योता हो याकि गमी-मरनी का, लिफ़ाफ़े का धड़ल्ले से उपयोग कर लिया जाता है। हुशियार व्यापारी जमाने की मांग को देखते हुए एक रुपये का नया सिक्का लगाकर रंगीन लिफ़ाफ़ा भी बनाने-बेंचने लगा है। मजे की बात तो ये है कि गमी-मरनी में भी श्री गणेशाय नमः वाला खूबसूरत लिफ़ाफ़ा प्रयोग कर लिया जाता है। लेने वाला भले कुँढ़े-खीझे, परन्तु देने वाले को इसकी परवाह नहीं होती। वैसे भी देने वाले का, लिफ़ाफ़ा देने से कहीं ज्यादा ध्यान उसके बाद वाले कोरम पर होता है, यानी कि  भोजन-व्यवस्था पर। और और शतं विहाय भोक्तव्यं सिद्धान्त के अनुसार भोजन की वरीयता तो सुसिद्ध है। खुशी और गम दोनों में इसका चलन भी है। पैदा होने से मरने तक भोजन का सिलसिला अबाध रुप से चलता है। लाश फूंकने के बाद तत्काल वहीं पास के दुकान में सामूहिक भोजन का रिवाज भी बहुत जगह है। भोजन की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए आमन्त्रित लोग चट लिफ़ाफ़ा थमाते हैं और खट प्लेट उठाकर, कतार में लग जाते हैं और फिर जयरामजी के साथ विदा होने में भी विलम्ब नहीं करते—एक दो जगह और भी जाना है— कहते हुए।

काका के लिफ़ाफ़ा-व्याख्यान पर मुझे हुड-आउट मोड में पूछना पड़ा—आज आपको लिफ़ाफ़े का मुद्दा कहाँ से मिल गया काका ? किसी ने कुछ घपला मारा क्या? जैसा कि आपने कहा कि लिफ़ाफ़े से अब डर लगने लगा है...।

सिर्फ डर नहीं बबुआ ! घिन भी।  कल का वाकया तो तुम्हें पता ही है कि नाती के छठिहार में पचास लोगों को न्योता था और डेढ़ सौ से ऊपर लोग दर्शन दे गए। तुम तो पहले ही ट्रीप में हाथ साफ कर, वापस चल दिए थे जरुरी काम बता कर। आगे जो हुआ वो मुझे अकेले-अकेले भुगतना पड़ा। ग्यारह बजे के करीब बरतन-वासन समेट कर,थकान से चूर विस्तर झाड़ ही रहा था कि पड़ोस वाले पनसारी ने हांक लगायी— का हो काका, सबलोग खा-पीके चल गए का, हम ही पिछुआ गए?’ दरवाजा खोल, बाहर निकला तो देखा बीबी के साथ पौन दर्जन बच्चों की फौज़ लिए खड़ा भड़ीमना खींसे निपोर रहा था— जी दोकनदारी समेटते थोड़ी देर हो गयी। इ ससुरी के बोला कि अकेले ही चली जाओ बच्चों को लेकर, तो मानवे नहीं की। खैर कोई बात नहीं। काज-परोजन में देर-सबेर होते ही रहता है। अब काका का परसाद पाये वगैर थोड़े जो जाऊँगा। — कहते हुए भड़ीमना ने बड़े अदब के साथ एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया । लिफ़ाफ़ा का जबाव भोजन होता है—इतना तो तय है। कुँढ़ते मन से भीतर आने को कहा और काकी को आवाज लगाया आगे की व्यवस्था सम्भालने को। ज़ाहिर है कि हलवाई की टीम आध घंटे पहले ही जा चुकी थी और शहरी सभ्यता के मुताबिक रेडीमेड स्टॉक में ज्यादा कुछ था नहीं।  डेढ़ घंटे की मस्सक्कत के बाद भड़ीमना परिवार से मुक्ति मिली, तब लिफ़ाफ़े पर ध्यान गया। खोलकर देखा तो पूरे-पूरे ग्यारह रुपये थे। लॉटरी का नम्बर मिलाने वाले अन्दाज़ में बेचारी काकी बाकी के लिफ़ाफ़ों का भी जेनेटिक टेस्टकरने लगी।  कुछेक को छोड़कर, ज्यादातर ग्यारह-इक्कीश वाले ही निकले। मैंने तो उसी समय कान पकड़ा—भगवान बचाये इन लिफ़ाफ़ों से। अब ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा।

 

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