आजादपार्क की छिनती आजादी
अंगोछे से नाक-मुंह लपेटे, हाथ में खाली झोला लटकाए वटेसरकाका चौराहे पर मिल गए। राम-सलाम के बाद मुझे कुछ कहने का मौका दिए वगैर खुद ही कहने लगे— “भला हो हमारे सरकारी महकमें का जो पार्क और बाजार को समेकित करने का उपक्रम किया। अब, एक साथ दोहरा लाभ मिलेगा लोगों को। नथुनों में फूलों की खुशबू घुसेगी और झोले में हरी-हरी सब्जियाँ डलेंगी। सब्जियाँ सड़ी-गली भी होंगी तो भी फूलों की खुशबू के सामने उनका सड़ांध नथुनों को परेशान नहीं करेगा। और लगे हाथ तीसरा फायदा ये भी होगा उन भले मानसों को जो कभी हवाखोरी के नाम पर भी घूमने नहीं निकलते। सब्जी खरीदने के बहाने ही पार्क में घूमने का लुफ़्त फोकट में मिल जायेगा। मैं उधर ही जा रहा हूँ। चाहो तो तुम भी साथ हो लो। सब्जियाँ भी ले लेंगे और जरा गपशप भी हो जायेगा। वैसे भी कोरोना के कारण कहीं आना-जाना तो हो नहीं रहा है। ”
काका के प्रस्ताव पर पहल न करना,सहज मानवी अपराधों में मानता हूँ, अतः साथ हो लिया। नईगोदाम चौराहे से आगे बढ़ते हुए काका कहने लगे – “ आज से सब्जी-मंडी को आजाद पार्क में ही सिफ्ट कर दिया गया है। कुछ बड़ी मंडियों को गांधीमैदान में सिफ्ट करने का आदेश है। वैसे भी मोक्षधाम गया नगरी में किसी खुबसूरत पार्क या मैदान की जरुरत ही क्या है ! भूत-प्रेत भी भला खुशनुमा पार्कों और मैदानों में घूमते हैं ! उन्हें तो जंगल-झाड़, पहाड़-कन्दरा या फिर गन्दी-सन्दी जगहें चाहिए। इसका ध्यान रखते हुए शहर के कई हिस्सों को कूड़ा ‘डम्पिंगप्वॉयन्ट’ के रुप में तबदील कर दिया गया है। और रही बात आमजनों की, तो भला उनकी चिन्ता सरकारें क्यों करे ! जनता को चाहिए कि खुद अपनी जरुरत और हिफ़ाजत का इन्तज़ाम कर लिया करे, क्योंकि सरकारों के पास और भी बहुत सारे काम पड़े हैं। इस हिफ़ाजदी विधान के चलते ही सड़कों के दायें-वायें के फुटपाथों पर जरुरतमन्द दुकानदारों ने कब्जा जमा रखा है। तेजी से विकास करती दुनिया में पैदल चलने वाले लोग ही कितने हैं, जिन्हें फुटपाथ की आवश्यकता है ! अरे भाई ! चौपहिया न सही दोपहिया वाहन ही खरीद लो और एकदम से बीच सड़क पर चलो न लहरियाकट मारते, बिना हेलमेट लगाये। ये पुरानपंथी फुटपाथ के चक्कर में क्या पड़े हो ! और हाँ, वाहन खरीदने की औकात न हो तो बैंक लोन देने को तत्पर है ही, या फिर चोरबाजारी वाला वाइक तो आसानी से कोतवाली के बड़ाबाबू मुहैया करा ही सकते हैं। अच्छा किया माता सीता ने जो झूठी गवाही देने वाली फल्गुनदी को शापित करके, जलहीन बना दिया और यहाँ के पहाड़ों से हरियाली छीन ली। मरे-भुरभुरे पहाड़ मृत प्राणियों को तरण-तारण का आमन्त्रण देते रहते हैं। इस शहर वालों को हरियाली अच्छी भी नहीं लगती। मुट्ठी भर लोग जो हरियाली के हिमायती हैं, अपने घरों में इनडोर प्लान्ट लगा ही रखे हैं। वालकॉनी में गमले के पास बैठ कर कॉफी शिप करते हुए हरीतिमा का आनन्द लेते रहें। इन सब बातों और हालातों का ध्यान रखते हुए प्रशासन का ये निर्णय काबिले तारीफ़ है कि शहर का एकमात्र दुलरुआ पार्क आजादपार्क को सब्जी-मंडी में तबदील करने का आदेश जारी हुआ है। मैं तो कहता हूँ कि कचहरी में भी कुछ ऐसा-वैसा सिफ्ट कर दिया जाए। कोरोना काल में भी सबसे ज्यादा भीड़ तो वहीं इकट्ठी होती है। सारे झूठ-फसादों की जड़ तो कचहरी ही है। वैसे भी गर्मी का दिन है। कागजी शराबबन्दी कब से चल ही रही है। वो लीचीवाले ताड़ी के पाउच पैंकिग का दो-चार-दस स्टॉल यहाँ लग जाता तो मजा आ जाता। वहस करते वकीलों के गले को बड़ी तरावट मिलती और मस्ती भी। सुनते हैं कि लीचीफ्लेवर ताड़ी से कोरोना भी असर नहीं करता।”
काका के नये मशविरे पर सरकार को कितना अमल-पहल करना चाहिए इसके बावत तो कुछ कहना बेकार है, किन्तु सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि हमारी ‘सोच-समझ’ को क्या होता जा रहा है ! हाथी की तरह पैरों के आगे ही क्यों देखते हैं ! ठोस और सही योजनायें क्यों नहीं बनाते ! इन फल-सब्जी मंडियों और फुटपाथों की समुचित व्यवस्था की जिम्मेवारी किसकी बनती है? सड़क और फुटपाथों को अपनी मिल्कियत क्यों समझ लिया है दुकानदारों ने ? आँखिर इसका कारण क्या है?
जवाब साफ है—मिलीभगत का कारोबार है। जनता को बेवकूफ बनाने के लिए समय-समय पर अतिक्रमण हटाओ और सफाई अभियान चलाये जाते हैं। नयी व्यवस्था की बात कही जाती है। किन्तु चढ़ते चाँद को भला कौन छोड़ना चाहेगा ! भीषण मँहगाई में भला सीमित वेतन से कैसे गुज़ारा होगा ! और सिर्फ वेतन पर ही सन्तोष करना रहता तो फिर सरकारी नौकरी के लिए मारामारी क्यों करता !
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