तालमेल वनाम घालमेल

 तालमेल वनाम घालमेल


“ तुमको तालमेल पसन्द है या घालमेल?”—वटेसरकाका के अचानक के इस सवाल से मैं जरा सहम गया। अकसर उनके सवाल ही कुछ इस कदर के होते हैं कि सोचना पड़ जाता है। दरअसल वे सवाल सिर्फ इसलिए करते हैं, ताकि उन्हें कुछ कहने का मौका मिले। अगले के जवाब में उन्हें कोई खास दिलचश्पी तो होती नहीं। सामने वाले की निरुत्तरता उन्हें शान्ति-सुकून दे जाता है और उचरने का मौका भी। कुछ झक्की किस्म के लोगों को छोड़कर, बाकी तो सीधे हथियार डाल देते हैं उनके तुके-बेतुके सवालों के आगे और फिर काका शुरु हो जाते हैं, इमरती की तरह रसभरी मुस्कान के साथ—एकदम से ‘ननस्टॉप मोड’ में। आज भी कुछ वैसा ही हुआ। मैं हमेशा की तरह बगलें झांकने लगा और काका का स्पीकर ऑन हो गया।


“तुम जानते ही होगे कि हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो सबकुछ बहुत सोच-विचार कर किया गया था कुछ अच्छे-भले लोगों द्वारा, किन्तु बाद वाले ऐश़-वो-आराम परस्त हुक्मरानों के सोच-विचार में ही घालमेल होने लगा। फिर धीरे-धीरे अनगिनत राजनैतिक पार्टियाँ बनती गयी—बादशाहों की बीबियों की तरह अन्तःपुर के तर्ज पर संसद भरता गया रंग-बिरंगी झंडीधारियों से। चुनाव-आयोग के लिए भी ‘चिह्न-आवंटन’  समस्या बनने लगी। खटिया के चार पाये और चार पार्टियाँ चारों ओर खिंची जाने लगी। बाध-बधिया, रस्सी-नेवार का हिसाब फिर कौन करे ! पटिया दुरुस्त रहे, खटिया जाए भाँड़ में। कहने वाले ने बड़ा सोच-समझ कर कहा होगा कि प्रजातन्त्र मूर्खों का मूर्खों के लिए मूर्खों द्वारा चलाया जाने वाला तन्त्र है। अब तुम्हीं जरा सोचो न—विद्वान, गुणवान, क्रियावान, धैर्यवान,निपुण,कर्मठ,सेवाभावी लोग जब राजनीति से कन्नी कटाने लगेंगे, तो फिर अनपढ़-गवांर, मूर्खाधिराजों का ही राज होगा न ! अंगूठाछाप हुकूमत चलायेगा आई.ए.एस-आई.पी.एस पर। चवन्नीछाप करोड़ीमल बन जायेगा एक ही चुनाव में और जनता तो जनार्दन है। अपनी दुर्बल पसलियाँ गिनती रहेगी। अँगुली रंग कर खुद को धन्य मानेगी कि लोकतन्त्र के महापर्व में हिस्सा ले लिया, किन्तु चूक यहीं हो जाती है कि मूंछ-पूँछ रंगे सियार को ही शेर समझने की नादानी बारम्बार हो रही है। टीक-टीका-टोपी-तमगा पर भी भला वोट पड़ता है? किन्तु कौन समझाये ज़ाहिलों को ! वेटी भले दे देंगे दूसरी जातिवालों को, पर वोट देते वक्त जाति-धर्म की याद जरुर आती है और बड़ी सख्ती से याद दिलायी भी जाती है। घास-भूंसा खा-पचा जाने वाले को भी बीसियों साल पूजते हैं, फिर भी मन नहीं भरता। आद-औलाद को भी पूजने की ललक बनी हुयी है।  आलू की फैक्ट्री लगाने वाले का पुजाना तो लाज़मी ही है। क्योंकि वो न होता तो शायद देश ही न होता। सीधी सी बात है कि धर्म-अधर्म की गन्दी राजनीति करके, लुच्चे-लफंगे-निकम्मे  वोट वटोर ले जाते हैं और फिर हम पाँच वर्षों तक कोसते रहते हैं एक दूसरे को। इधर कुछ दिनों से विकास की बीमारी लग गयी है, किन्तु इस विकासबाबू का भी ‘सौरिये में ओझाई’ हो रहा है। ऊपर से नीचे तक वर्षों-वर्षों से भरे पड़े खटमल, मच्छर, दीमक सारा का सारा मलाई चाट जाते हैं और ‘छुंछहड़ दहेड़ी’ फिर से जनता के हाथ थमा दी जाती है विकास के नाम पर।  इन बंटाधारकों पर कोई ‘गमैक्सीन या कालाहिट’ काम नहीं करता। विकास की लहर में पुराने कुएँ बेदर्दी से भरे जा रहे हैं। पुरानी योजना वाला ‘पीलपांव मार्का’ चापाकल अपने अस्तित्व की गुहार लगा रहा है—भाई मेरी क्या गलती है? मगर उस अभागे को कौन बताये कि गलती यही है तुम्हारी कि अब नयी वाली बीबी आ गयी है— नल-जल-योजना वाली, जो तुमसे ज्यादा खूबसूरत और नाज़-नखरे वाली है। रंग-बिरंगी टंकियों में ऊँचे मंच पर रहती है और नीली-नीली पतली-पतली कमर वाली बलखाती पाइपों से घरों में घुसती है, कब आयेगी,कब जायेगी—इसका कोई हिसाब नहीं। हाँ एक बात का हिसाब जरुर है—मुखियाजी से लेकर विकास पदाधिकारी तक का हिसाब बिलकुल दुरुस्त है। वहाँ बड़ी ईमानदारी से हिस्सेदारी बँटी है। किसी ने किसी और का हिस्सा नहीं खाया-पचाया है। इससे पहले सड़क और नाली योजना भी खूब चली। पहले सड़कें बनी, फिर उन्हें जहाँ-तहाँ काट-तोड़ कर नल-जल की घटिया से घटिया पाइप बिछायी गयी, कहीं नालियाँ बनायी गयी, कहीं डिजिटल दुनिया वाला ऑप्टिकल फाइवर विछाया गया। कहीं बिजली का खम्भा बीचोबीच रास्ते पर कमर झुकाये,बाहें फैलाये,गर्दन टेढ़ी किए  खड़ा स्वागत कर रहा है जनता का, तो कहीं तार और लट्टू मुँह चिढ़ा रहे हैं—बिजलीदेवी आने ही वाली है...आप जरा धैर्य रखें...। इतना ही नहीं जहाँ दर्शन दे दी हैं, वहाँ दिन-रात का भेद किये वगैर चमक रही हैं । क्योंकि बल्व बुझाये भी जाते हैं – अभी तक जन्मजात समझदार जनता को बतलाया ही नहीं गया है। वैसे भी अभी ए.पी.एल.- बी.पी.एल.का चक्कर जो है। मजे की बात ये है कि जातिगत आरक्षण के तर्ज पर ही ये गरीबी वाली रेखा भी खिंची गयी है। परिवारों का नामांकन-पंजीकरण इधर से उधर करने में मामूली मेहनत लगा है। आँखिर हमारे होनहार कलाबाज किस दिन काम आयेंगे—लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पूरी छूट है कि कौन किधर रहना चाहता है—पार्टी हो कि पंजी। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगाना पुरानी परम्परा रही है । नयी योजनाओं में भी इसे यथास्थान मिला। धुआँधार उजड़ते जंगलों की भरपाई युद्धस्तर पर वृक्षारोपण करके किया गया। करोड़ों-अरबों का वारान्यारा हुआ। वृक्ष पनपें या न पनपें,वृक्षरोपीविभाग भरपूर पनपे। झोपड़ी वाले भी अट्टालिका वाले हो गए। फिर फोरलेन-सिक्सलेन की हवा चली। किनारे पर खड़े होने की जद्दोज़हद में बिलखते पादप धड़ाधड़ धराशायी होने लगे। पेड़ लगेंगे, कटेंगे, फिर लगेंगे। पेड़ों की नियति है कटते रहना। योजनाओं की नियति है बनते रहना। नयी योजना बनेगी नहीं, तो नये लोगों का पेट कैसे चलेगा ! वर्षों के जंगलराज के बाद ग्रामीणों ने पक्की सड़कों पर पांव धरा,किन्तु बालू माफियाओं को खुली छूट दे दी गयी—नदी-नालों के दोहन के साथ-साथ सड़क-गलियों के दोहन के लिए। ”


काका के विचारों पर सडेन ब्रेक लगाते हुए मैंने कहा— अब थोड़ी समझ आ रही है आपकी बातें— तालमेल में क्यूँकर घालमेल हुआ है। श्रमविभाजन का थ्योरी है न —हर काम के लिए एक नया विभाग-अनुभाग होता है। अलग-अलग मन्त्रालय भी होता है। मजे की बात ये है कि विरोधीदल के नेता-प्रवक्ता की तरह उनमें आपसी तालमेल कभी हो ही नहीं पाता। परिवहन विभाग के रहनुमाओं को वनविभाग से कोई मतलब नहीं, विजली विभाग से कोई वास्ता नहीं। चतुर्मुखी ब्रह्मा की तरह सबके मुंह अलग-अलग दिशाओं में हैं और सबका भरपूर भरण-पोषण भी होना चाहिए। ऐसे में तालमेल का घालमेल होना स्वाभाविक है काका। नियम तो सब हैं, किन्तु उनका पालन सब लोग समान रुप से करें, तब न बात बने। जिम्मेवारी और जवाबदेही नाम की कोई व्यवस्था तो है नहीं। एक दूसरे पर टालने-छोड़ने,पल्ला झाड़ने और दोषारोपण करने में ही समय चूक जाता है। और सबसे कड़वा सच ये है असली विकास से किसी को वास्ता भी नहीं है। मतबल है सिर्फ योजनाओं के माध्यम से अपना उल्लू सीधा करना और इस गूढ़ योजना में सभी सफल हो रहे हैं—इस बात में तो कोई घालमेल नहीं है न ?

 


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