कलवाःप्रेतलोक का क्षुद्रतम प्राणी

 कलवाःप्रेतलोक का क्षुद्रतम प्राणी

इस दृश्य जगत के समानान्तर ही अनेकानेक अदृश्य जगत भी हैं। सांयन्सवादी  भले ही न स्वीकारें, किन्तु भारतीय विज्ञानवेत्ताओं को रत्ती भर भी संदेह नहीं है इस पर,क्योंकि उन्हें सृष्टि का मूल रहस्य ज्ञात है। पञ्चतत्त्वात्मक सृष्टि और पञ्चीकरण के सिद्धान्त का गूढ़ ज्ञान था हमारे मनीषियों को, जिन्हें अनेकानेक ग्रन्थों में उन्होंने लोकहित में संजो रखा है। भले ही आज हम अपने ही ज्ञान-विज्ञान पर सशंकित होकर, पाश्चात्य सांयन्स को ही असली विज्ञान माने बैठे हैं, जो विज्ञान कतई नहीं है।

कुछ छोटे उदाहरण से इसे समझने की चेष्टा करें तो किंचित बात बने। हमारी ज्ञानेन्द्रियों की अपनी सीमा है। निश्चित है कि सामान्य स्थिति में हम इस सीमा से बाहर नहीं जा सकते। हाँ, यन्त्रों और उपकरणों के माध्यम से बाहर यानी सीमा पार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हम अपनी सामान्य इन्द्रिय सीमा में आवद्ध कुछ सीमित पदार्थों का ज्ञान कर पाते हैं। कुछ खास चीजें ही देख पाते हैं, कुछ खास तरह की ध्वनियाँ ही सुन पाते हैं। किन्तु यदि हमारे पास सूक्ष्मदर्शीयन्त्र, दूरदर्शीयन्त्र उपलब्ध हो तो सामान्य सीमा का अत्यधिक अतिक्रमण सहज ही हो जाया करता है। आधुनिक भौतिकी ने बहुत कुछ सुलभ करा दिया है। इलेक्ट्रोनिक उपकरणों ने बहुत कुछ आसान कर दिया है हमारे लिए। अब से सौ साल पहले जिन बातों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, आज सर्व सुलभ हो गया है। सांयन्स नित खोजी मनोवृत्ति वाला है। होना भी चाहिए। हो सकता है आने वाले सौ सालों में हम उन बातों को सहज ही स्वीकारने लगें, जिन्हें स्वीकारने में आज आपत्ति है।

अतः हमें अपनी पहुँच (ज्ञान) की सीमा को समझना-स्वीकारना उचित है, न कि पूर्ववर्ती सिद्धान्तों पर सीधे या कहें मूर्खतापूर्ण अँगुली उठा देना। मजे की बात ये है कि एक सामान्य व्यक्ति जितनी सहजता से पुरानी बातों-सिद्धान्तों को कपोल कल्पना कहकर निकल जाता है, एक खोजी मनोवृत्ति वाला ऐसा कदापि नहीं करता। वो खोज करता है, कार्य-कारण का निदान करता है। सच-झूठ की पहचान करता है । पौराणिक  कथाओं को कितने ही लोग कोरा गप्प कहकर निकल भागते हैं, उसके रहस्यों को जानने-समझने का प्रयास भी नहीं करते, जब कि एक साधक उसमें जीवन खपा देता है—तथ्य ढूढ़ने में। स्पष्ट है कि मोतियाँ पाने हेतु सागर में डुबकी तो लगानी ही होगी।

ये स्पष्ट कर दूँ कि मनुष्यलोक की तरह प्रेतों का भी एक लोक है, जो हमारे चर्म-चक्षुओं से परे है। भूत-प्रेतों का भी अस्तित्त्व है—इसमें कोई दो राय नहीं, किन्तु ऐसा भी नहीं जितना कि अनपढ़-गवांर समाज में माना-जाना जाता है। तरह-तरह का बाना बनाये ओझा-तान्त्रिकों द्वारा जितना दुष्प्रचार किया जाता है और भोली जनता को ठगी का शिकार बनाया जाता है, उस तरह से भूत-प्रेत सहज ही मारे नहीं फिरते  और न स्वयं को सिद्ध कहने वाले ठगों में इतनी क्षमता ही है कि असली भूत-प्रेतों का शमन-दमन कर सकें। समाज में चर्चित जितनी भी ऐसी घटनायें सुनने को मिलती हैं,उनमें हजारवाँ हिस्सा ही शायद सही होता हो। उस अल्प सत्य को ही हवा देकर ठगी का धन्धा चलता है। अतः हमें सतर्क और सावधान रहने की जरुरत है। किन्तु बेपरवाह होने में भी बुद्धिमानी नहीं है। क्या पता हम उन हजार में एक हों !

प्राचीन आयुर्विज्ञान भूत-प्रेत को मानस-व्याधि के अन्तर्गत स्वीकारता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मनोव्याधि के रुप में इसका उपचार करता है और काफी हद तक सफलता भी मिलती है। अतः बुद्धिमानी इसी में है कि कुछ भी अवांछित लक्षण लक्षित होने पर सुलभ चिकित्सा का सहारा लेना चाहिए, न कि ओझा-गुनी-तान्त्रिकों के यहाँ दौड़ लगाना और उनके चंगुल में फँसना। ज्योतिष विज्ञान भी स्पष्ट करता है कि जन्मकुण्डली में षष्ठम्, अष्टम, द्वादशादि भावों में राहु, केतु, शनि आदि के दुष्प्रभाव से जातक में ऐसे लक्षण दिखते हैं। मानस व्याधियों में चन्द्रमा की भी अहं भूमिका होती है। अतः योग्य ज्योतिर्विद से जन्मकुण्डली विचार अवश्य कराना चाहिए। जिनकी जन्मकुण्डली न हो उन्हें तात्कालिक जाँच हेतु अक्षत-सुपारी आदि के अवलम्ब से प्रश्नकुण्डली का विचार कराना चाहिए। किन्तु ध्यान रहे—जन्मकुण्डली की अपेक्षा प्रश्नकुण्डली का विश्लेषण अधिक जटिल और दुरुह है।

अब मूल विषय पर आते हैं। मनुष्य की तरह ही भूत-प्रेतों में भी कई स्तर होते हैं। कई वर्ग होते हैं इनके । ब्रह्मराक्षस,बेताल,चुड़ैल आदि सैकड़ों प्रजातियाँ हैं इनकी। स्तर के अनुसार ही इनकी शक्ति भी निहित है। अन्य प्राणियों की तरह ही संवेदना भी है इनके पास। मूल बात स्पष्ट कर दूँ कि इनकी संरचना पंचतत्वात्मक नहीं है, यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश नामक तत्त्वों का वैसा समावेश नहीं है इनमें, जैसा अन्य प्राणी-पदार्थों में पाया जाता है। इनमें वायुतत्त्व की प्रधानता होती है। विदित हो कि पृथ्वी से आकाश पर्यन्त पाँचों तत्त्व क्रमशः सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते चले जाते हैं। प्रेतलोक के सम्बन्ध में ठीक से समझने के लिए पंचीकरण के मूल सिद्धान्त को समझना अति आवश्यक है। फिर उसमें पैठ बनाने हेतु सुदीर्घ साधना की भी आवश्यकता है। और सबके बाद ये सवाल उठता है कि उद्देश्य क्या है हमारा और परिणाम क्या होगा इसका ? क्या हम लोकहित के लिए ऐसा कर रहे हैं या सिर्फ ज्ञानार्जन के लिए या मनोरंजन के लिए ? क्योंकि पुरुषार्थ चतुष्टय—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के अन्तर्गत तो ये आता नहीं। उल्टे, मोक्षमार्ग में प्रेतसाधना बहुत बड़ी बाधा ही खड़ी करेगा।

अस्तु। जो भी हो, इन सांसारिक सिद्धियों से यथासम्भव बचना ही चाहिए। हाँ, इस अल्प ज्ञान-साधना से उच्चतर साधना की भूमिका अवश्य बनायी जा सकती है, वशर्ते कि इस क्षुद्र साधना के चमक-दमक से हमारी आँखें चौंधिया न जाएँ। जैसा कि प्रायः देखा जाता है—तान्त्रिक षट्कर्मों में मारण और वशीकरण की ओर सर्वाधिक आकर्षित होते हैं लोग। शत्रु को मार डालें या कि विपरीत लिंगी को कामवेदी की आहुति बनावें।

सामान्य तौर पर तन्त्र के दूसरे स्वरुप की ओर ही ध्यान जाता है, जो तमोगुणी वृत्ति बहुल है। तम-प्रधान कलिकाल में वस्तुतः ये तम ही आकर्षित करता है। किन्तु बात ऐसी बिलकुल नहीं है। तन्त्र का एक  पक्ष विशुद्ध सात्त्विक पक्ष भी है।  

मूल बात इतनी ही कि तन्त्र कोई तमाशा नहीं है, मदाड़ी का खेल नहीं है और हर कोई के बश की बात भी नहीं है। सद्गति का एक प्रशस्त मार्ग है—तन्त्रमार्ग। अतः सृष्टितन्त्र को सम्यक रुप से आत्मसात करना है तन्त्र-विज्ञान के सहारे।

बात चली थी कलवा की— प्रेतलोक के क्षुद्रतम प्राणी कलवा की। अपने आप में ये बहुत शक्तिशाली नहीं है, फिर भी लोक साधना या कि परलोक साधना में इसका सहयोग लिया जा सकता है। कुछ सात्विक सन्तों ने भी प्रारम्भिक  रुप से इसका सहारा लिया है और लाभान्वित भी हुए हैं। नदी पार करने के लिए नाव के अभाव में मटकी का सहारा लिया जा सकता है, किन्तु मटकी के व्यामोह से बचे रहना भी जरुरी है। उसे भविष्य में शीतल जलपान हेतु संग्रहित न कर लें।

कलवा को बड़ी सहजता से सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु दूसरे अर्थों में भी ये बहुत ही क्षुद्र है—सहज ही पिंड छोड़ेगा नहीं। अतः वश में आना न कहकर, वश में हो जाना कहना अधिक अनुकूल लगता है। कलवा-साधक जवानी में भले ही धन-यश बटोर ले, किन्तु बुढ़ापा अति कष्टकर हो जाता है। खासकर वैसे साधकों के लिए जो चमत्कारी क्षुद्र साधना में जीवन खपा देते हैं और असली साधना-जगत की जिन्हें कोई भनक भी नहीं मिली होती। अस्तु।   

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