मृतात्माओं से सम्पर्क

 

मृतात्माओं से सम्पर्क

 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। (-२३)

ये गीतोक्त वचन आत्मा के सम्बन्ध में हैं—उस आत्मा के सम्बन्ध में जिस पर शस्त्राघात,अग्निदाह,जल वा वायु का किंचित मात्र भी कुप्रभाव नहीं पड़ता। फिर ये मृतात्मा शब्द का क्या औचित्य—विचारणीय है।

वस्तुतः अभिप्राय है मृत व्यक्ति के शरीर से वहिर्गमित  आत्मा से। उस आत्मा से जो मूलतः अनश्वर,अविनाशी होते हुए भी नियति-चक्र में फँसा अपने कर्म-बन्धनों के जटिल जाल को छिन्न-भिन्न नहीं कर पा रहा है। सामान्य बोलचाल की भाषा में उसे ही मृतात्मा सम्बोधित किया जाता है। इसे और स्पष्ट करते हुए कह सकते हैं कि एक शरीर छूट गया और दूसरा शरीर अभी मिल नहीं पाया है—इस बीच की अवस्था। स्थूल शरीर छोड़ने के पश्चात् आत्मा का मुख्य तीन वर्गीकरण होता है—अति उच्चकर्म वाला, अति नीच कर्म वाला एवं मध्यम। मध्यम कर्म वाले का निर्णय और निपटारा तो प्रायः मृत्यु के शीघ्र बाद ही सामान्य प्रक्रिया के पश्चात् हो जाता है, किन्तु शेष दो वर्गों में काफी विलम्ब होता है पुनः शरीर पाने में। उच्च कर्म वाले को थोड़ी स्वतन्त्रता भी होती है—मनोनुकूल शरीर पाने की और ऐसी स्थिति में वो अनुकूल गर्भ और बीज की प्रतीक्षा भी करता है,तदनुरुप विलम्ब होता है। अपने वर्गीकरण के अनुसार विभिन्न आत्मायें विभिन्न अनुकूल लोकों वा योनियों में तात्कालिक वास करती है। किन्तु ध्यान रहे—काल का वो मापन मृत्युलोक की भाँति बिलकुल नहीं होता। पितृलोक, प्रेतलोक आदि ऐसे ही लोक हैं।

प्रस्तुत प्रसंग में वैसी ही किसी आत्मा से सम्पर्क की बात की जा रही है। जी हाँ, मृत्युलोक को त्यागकर किसी अन्य लोक में भटकती वा निवास करती किसी अज्ञात वा ज्ञात आत्मा से सहज सम्पर्क किया जा सकता है। तन्त्रशास्त्र और योगशास्त्र में इसकी विधियों की विशद चर्चा मिलती है। अपने आप में ये बहुत ही कौतूहलपूर्ण विषय है, किन्तु इससे कहीं अधिक आपदाकारी भी है। मृतात्माओं से सम्पर्क का प्रयास समय-साध्य एवं कष्ट-साध्य है। विशेष साधना बल से ही उनसे सम्पर्क साधा जा सकता है। निज शरीर को सम्यक् साध लेने के पश्चात भी सौभाग्य से वर्तमान निरापद प्रतीत हो, किन्तु भविष्य निरापद हो ही—कोई जरुरी नहीं। अतः लोभ, मोह, कौतूहलवश इस सम्बन्ध में प्रयास करना कदापि उचित नहीं। क्योंकि दुष्परिणाम विक्षिप्तता वा मृत्यु ही है। ऐसे विषयों में प्रत्यक्ष गुरु के अभाव में, मात्र पुस्तकीय जानकारी तो और भी खतरनाक सिद्ध होती है; क्योंकि पुस्तकों की भाषा तो हम पढ़ लेते हैं, परन्तु भाव और शैली समझने में प्रायः चूक हो जाती है। विडम्बना ये है कि उस नासमझी को ही समझ का ठप्पा लगाकर, कूद पड़ते हैं अखाड़े में,जहाँ  रक्षा करने वाला कोई होता नहीं। तन्त्र-ग्रन्थों की शैली प्रायः कूट-शैली होती है। इसे कोडिंगलैग्वेज कह सकते हैं। जबतक सही डिकोडिंग नहीं होगी, सही विधि का ज्ञान कैसे हो पायेगा !

इस संस्मरण में ऐसी ही एक घटना की चर्चा करता हूँ। बात बहुत पुरानी है—सन् १९६८-६९ की। उन दिनों मैं पश्चिम बंगालवोर्ड की उच्चतर माध्यमिक परीक्षा की तैयारी कर रहा था। किशोरावस्था का उफान, स्वयं को शाहंशाह समझने वाला वय। ऐसे अपरिपक्व वय में तन्त्र के प्रति कौतूहल जग जाये तो कितना निरापद होगा—सोचने वाली बात है।

अपनी सहपाठी वर्ग में ये चर्चा रहती थी कि मैं साधक परिवार से हूँ। साधना सम्बन्धी एक के एक प्रसंग आए दिन मित्र-मंडली को सुनाते रहता था। इहलोक से परे, इतर लोकों वाली अनोखी बातें वड़ी कौतूहल पूर्ण हुआ करती हैं। मेरे एक मामाजी थे जो मनोवांछित मिठाइयाँ और अन्य सामग्रियाँ उपलब्ध कराकर स्वाद और उत्सुकता पैदा करते रहते थे।

एक समय की बात है मेरे परिवार की एक महिला गर्भवती हुयी। समय पूरा हो गया, किन्तु प्रसव हो नहीं रहा था। डॉक्टर-वैद्य, ज्योतिषी-तान्त्रिक सबकी अटकलें झूठी साबित हो रही थी।

 कालीघाट, कलकत्ते के लालबाबा के यहाँ चाचाजी के साथ प्रायः आना-जाना होते रहता था। उन दोनों की गहन तन्त्र चर्चायें समझ में तो नहीं आती थी, किन्तु उत्सुकता अवश्य जगाती थी। नादान बालक समझ, मेरी उपस्थिति में भी उनकी चर्चायें चलती रहती थी, किन्तु मेरा ध्यान उनकी बातों को शब्दशः आत्मसात करने में ही लगा रहता था। घर आकर, कुछ पूछने पर चाचाजी कुछ कह-समझाकर टाल जाते—तुम अभी बच्चे हो, समय आने पर सिखला दूँगा। लालबाबा और चाचाजी के संवादों से इतना अवश्य जान गया था कि मृतात्माओं से सम्पर्क साधा जा सकता है। अदृश्य संवाद-शैली में या फिर किसी प्रत्यक्ष माध्यम के सहारे। विशेष परिस्थिति में स्वयं को भी माध्यम बनाया जा सकता है, किन्तु संवाद सुनने और फिर उसका विश्लेषण करने वाला किसी अन्य की वहाँ उपस्थिति अनिवार्य है, क्योंकि आवेशित आत्मा के प्रस्थान के पश्चात, आवेशक को कुछ ज्ञात नहीं होता कि इस बीच क्या संवाद हुए। लालबाबा इसी विधि का प्रयोग ज्यादातर किया करते थे। उनके संवादों का विश्लेषण चाचाजी किया करते थे। स्वप्न-संवाद भी सम्पर्क की एक विधि है। सबकी अपनी-अपनी जटिलतायें हैं, अपनी-अपनी सुविधाएं।

उस गर्मवती महिला के लिए  चाचाजी ने एक परीक्षात्मक प्रयोग किया। रात के अन्धेरे में किए गए उस प्रयोग का मैं गुप्त दर्शक बन गया। पूरी प्रक्रिया देख-समझ उत्सुकतावश स्वयं आजमाने की ललक जगी। उस दिन सहपाठियों के कहने पर रात के अन्धेरे में मैं भी प्रयोग करने पर तुल गया। संवाद का विषय था परीक्षा में आने वाले प्रश्नपत्रों की जिज्ञासा।

एक निश्चित दूरी बनाकर कई साथी बैठ गए। प्रयोगविधि के अनुसार वर्णमालिका-वृत्त बीचोबीच कमरे में बना ली गयी। चाची से अनुनय-विनय करके चाचाजी वाला सिद्ध चाँदी का सिक्का उपलब्ध कर लिया था। एकाग्रचित्त प्रारम्भिक प्रक्रियाएँ—मन्त्रजप वगैरह पूरी करके, सिक्के पर उँगली रखा, सम्पर्क की जाँच हेतु। संवाद-संकेत मिलने लगा— आप अपना परिचय दें...आपको मैंने बुलाया...कोई कष्ट तो नहीं...क्या आप मेरे सवालों का उत्तर देना चाहेंगे...।

सभी सवालों का जवाब अजीब सा मिलता रहा। सिक्के में  भयंकर गति नियंत्रण से बाहर होने लगी और एक स्थिति ऐसी आयी कि उँगुली से चिपका चाँदी का सिद्ध सिक्का मुझे अपने साथ उठा ले गया बिलकुल कमरे की छत से पंखे के आसपास। फिर कभी ऊपर कभी नीचे—हवा में उड़ते बलून की तरह मेरे शरीर की स्थिति हो गयी। चोट तो नहीं आयी, परन्तु शरीर में भयंकर पीड़ा होने लगी।  मैं आर्त भाव से कराह उठा— क्षमा करें...क्षमा करें महाराज ! आप जो कोई भी हों मुझ नादान को जीवनदान दें...अब ऐसी धृष्टता कभी नहीं करुँगा।

अगले ही क्षण आवाज स्पष्ट आने लगी, जिसे कमरे में उपस्थित हक्के-बक्के मेरे मित्रों ने भी सुना—मूर्ख! तूने मुझे नाहक ही परेशान किया। मैं तो इधर से गुजर रहा था तभी तेरे आकर्षण-संदेश के घेर में आ गया। मन्त्र के वशीभूत मैं खिंचा चला आया। तूँ जिसे बुला रहा था उसका तो कब का पुनर्जन्म हो चुका है...खबरदार, जो ऐसी गलती फिर कभी करो...।

संवाद कट चुका था। ये ठीक वैसी ही स्थिति थी जैसे आप पुराने समय में रेडियो पर कोई मीटर डायल कर रहे हों और आसपास का कोई और मजबूत फ्रिक्वेन्सी पकड़ जाए। बीबीसी के चक्कर में रेडियो पेकिंग बजने लगे। आत्माओं से सम्पर्क साधने में प्रायः इस तरह की घटनाएँ हो जाती हैं कि बुलाते किसी और को हैं और आ कोई और जाता है। ऐसा भी होता है कि बुलाया हुआ व्यक्ति आ तो जाता है बड़ी आसानी से, किन्तु विदा होने का नाम नहीं लेता और अपनी व्यथा का निवारण कराने का दबाव डालने लगता है। ऐसा भी होता है कि आत्माएँ तरह-तरह के प्रलोभन भी देने लगती हैं और धमकी भी।

जो भी हो। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि आत्माओं के सम्पर्क का खेल बहुत ही खतरनाक है। अच्छा कम, बुरे की आशंका  अधिक है। उस बचकानी हरकत के बाद बहुत दिनों तक शारीरिक-मानसिक स्थिति बड़ी कष्टपूर्ण रही। कई जटिल उपायों से उसे दूर कर पाया। अस्तु।

Comments