मीटिंग-सीटिंग-इटिंग

 

मीटिंग-सीटिंग-इटिंग

मीटिंग-सीटिंग-इटिंग—ये सब अनवरत-अबाध चलते रहने वाली चीजें हैं। इसके आगे-पीछे उल्टे-सीधे बयानवाजी का तड़का लग जाया करे तो अरहर की दाल में घी और जीरे के छौंक जैसा मज़ेदार हो जाया करता है। किन्तु आए दिन ये समस्या खड़ी हो जाती है कि प्राथमिकता-सूची में कौन पहले हो इन तीनों में और कौन बाद में। लोकतन्त्र के जमाने में ज्यादा लोगों की राय यही बनती है कि वुभुक्षितं किं न करोति पापं- भूखा कोई भी पाप कर सकता है—के सिद्धान्त के अनुसार इटिंग को ही आगे आना चाहिए। इटिंग का तगड़ा इन्तज़ाम रहेगा, तो सीटिंग होना अपरिहार्य है और सीटिंग हो जायेगा, तो इसे मीटिंग कहने-मानने में क्या आपत्ति हो सकती है किसी को ! विरोधीदल वाले भी सहज ही स्वीकार कर लेंगे, यदि उनका पेट पूरा-पूरा भर जायेगा।  — वटेसरकाका के इन विचारों का स्वागत करुँ या विरोध जताऊँ—कुछ कहने-सोचने की मनःस्थिति में बिलकुल नहीं हूँ, क्योंकि चारों ओर संकट के काले बादल मड़रा रहे हैं। रोज अपनों का विछुड़न हो रहा है। समाचार सुनने-देखने के लिए भी हिम्मत जुटानी पड़ रही है। अपनों का क्षेत्र जिसका जितना बड़ा है, वो उतना सशंकित और उद्विग्न है इस माहौल में।

मेरे मौन ने काका को कुछ और कहने की हिम्मत दी। कहने लगे— किसान आन्दोलन का मीटिंग हो या कोरोना संकट का, किसी भी मीटिंग का बेनतीजा समाप्त हो जाना और अदालती तारीखों की तरह अगली तारीख तक टाल देना, ऐसी ही बात का संकेत है। सब अपनी-अपनी सफाई दे रहे है। चावल, दाल, सब्जी, मसाला, चूल्हा, ईंधन, वरतन सबकुछ यदि मौजूद है, खाने वाला और बनाने वाला भी तत्पर है, तो फिर भूख-भूख की चिल्लाहट क्यों—क्या ये बात गले से उतर रही है?”

काका के सवाल का अब कुछ ना कुछ जवाब तो देना ही पड़ेगा। मैं भी यही सोच रहा हूँ—सारे ईन्फ्रास्क्चर यदि दुरुस्त हैं, तो फिर दिक्कत किस बात की है, क्यों हम गेंद एक-दूसरे की पाली में फेंकने को उतारु हैं? जो जहाँ है, जिस क्षेत्र में है, जितना बन पड़े लूटने में लगा है। लाशों की भी सौदेबाजी चल रही है। मौत के सौदागर चारों ओर खेमे गाड़े बैठे हैं समय के इन्तजार में। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी को भी भुनाने में लगे हैं लोग—कहीं वैक्सिन पर बहस करके, तो कहीं ऑक्सीजन की स्कैर्सीटी पैदा करके। वो ज्यादा चीख-चिल्ला रहा है, जिसे लूटने का मौका नहीं मिल रहा है। क्या हमारे यहाँ योग्य डॉक्टरों की कमी है, लोहे की कमी है या अन्य मेटेरियल की कमी है या पढ़े-लिखे योग्य युवावों की कमी है या जमीन की कमी है या धन की कमी है? शायद इनमें किसी चीज की कमी नहीं है। कमी है तो सिर्फ कर्मठ-ईमानदार व्यक्ति की। कमी है तो सिर्फ दृढ़ इच्छाशक्ति की। हम दिल से चाहते ही नहीं है कुछ होने देना। हम सिर्फ वयानबाजी में बेदम हैं। हम सिर्फ आरोप-पत्यारोप में मशगूल हैं। मरने वाला मर रहा है अपने कर्म से और जीने वाला जिन्दा है अपने भाग्य से। नेताओं और अन्य हुक्मरानों को मीटिंग-सींटिग-इटिंग से फुरसत नहीं है। मजे की बात ये है कि ऐसे संगीन वातावरण में भी मफ़्लर और दाढ़ी में नोक-झोंक चल रहा है। टोपी और टीका का नोंक-झोंक तो पुराना हो चला।

 

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