दमकल बाबा
की प्रेत साधना
पता नहीं किन परिस्थितियों
में उनका ये नामकरण हुआ था और किन लोगों ने उन्हें इस गरिमामय नाम से महिमा-मंडित
किया था—कह नहीं सकता। नाम की सार्थकता भी कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आती—उनके व्यक्तित्व
और कृतित्व के इर्द-गिर्द। फिर भी उनका ये बहुचर्चित नाम स्मृतिपटल पर कभी-कभी आ
ही जाता है। उनकी हरकतें ही कुछ ऐसी हुआ करती हैं कि आए दिन चर्चा में बने रहते
हैं। विरोधीदल के नेताओं की तरह सुर्खियों
में बने रहने लायक कुछ न कुछ हरकत वे करते ही रहते या कहें उनसे ऐसा हो जाया करता ।
दमकल तो आग बुझाने वाले वाहन
को कहा जाता है, जिससे बेग वाली जलधारा निकलती है और हर जरुरतमन्द के पास
निर्विकार भाव से सेवा के लिए तत्क्षण पहुँच जाना इसकी विशेषता है। दमकल बाबा जाति,
धर्म, उम्र, नाते, रिस्ते सबसे बिलकुल ऊपर उठकर सदा मौके की तलाश में रहते और जहाँ
कहीं गँजेड़ियों का गोल दिखता, चट दाखिल हो जाते।
एक ‘भरी’ गाँजा एक ही खींच में सुड़ककर, गीदड़ की तरह
ऊपर मुँह उठाकर घनघोर धुँआँ छोड़ते तो अच्छे-अच्छे गँजेड़ियों की आँखें फटी रह
जाती—बाप रे बाप ! हद तो दमकल बाबा ।
पानी के बजाय धुँआधार धुँआँ
उगलने की अद्भुत कला ही शायद इस अपभ्रंशित नाम से नवाज़ा होगा उन्हें।
दरअसल दो बीघे जमीन के लोभ
में ससुराल में जा बसे थे और आप जानते ही हैं कि ससुराल में असालतन रुप से आ बसना ‘स्वसुरपुर निवासी स्वर्गतुल्या नराणाम्’ की
महनीयता वाला होता है। गांव भर की बहू-बेटियों को साली-सरहज मानियेगा, तो गांव
वाले का भी हक बनता है पहुनाजी कहने का और फिर अपनी माँ, बहन, फूआ, मौसी, चाची, दादी
तक जिसे जो-जो रिस्ता बनाने का मन होगा, बनायेगा ही। उसे तो उसके अधिकारों से
बंचित करने का अधिकार आपको मिला नहीं होता। इसीलिए बुद्धिमान लोग ससुराल में जा
बसना बहुत ही बुरा मानते हैं। किन्तु हमारे दमकल पंडित उन बुद्धिमानों में नहीं
आते, इसलिए उन्हें भली-चंगी जोरु के साथ दो बीघा जमीन का लोभ खींच लाया—चलो
निर्वंश ससुरे की कमाई से कुछ दिन का तो हुक्का-पानी चल ही जायेगा।
दमकल पंडित कोई खास
पढ़े-लिखे तो थे नहीं, बामुश्किल हनुमान चालीसा पढ़ लिया करते थे । कुछ श्लोक भी तोतारट
कर लिए थे। किन्तु क्या मजाल कि एक भी नवरात्र छूटे दुर्गापाठ करने से । कभी-कभी
तो श्रीमद्भागवत सप्ताह पर भी हाथ साफ कर लेते ग्रामीण यजमानों के बीच।
कई गांवों में जजमनिका चलती
थी स्वसुर जी की। पाँच साल के अन्दर ही दो
बीघा जमीन तो ‘परियानी’ पर तौला गया पनसारी की दुकान में, किन्तु
जजमनिका की गाड़ी खिंचाती रही। उस गाड़ी में रफ़्तार लाने के विचार से, विचार आया
कि किसी तरह कुछ तन्तर-मन्तर सीख लिया जाए तो फिर चाँदी ही चाँदी रहेगी। इसी ख्याल
से साल में दोनों बार विन्ध्याचल की यात्रा करने लगे। ग्रामीणों का पाठ अब
विन्ध्याचल माई के दरबार में होने लगा। माई के नाम पर ज्यादा दक्षिणा और गाड़ी-भाड़ा
भी मिल ही जाता, साथ ही फाँकी मारने का अच्छा-खासा मौका भी।
आप जानते ही हैं कि
तन्तर-मन्तर के नाम पर कामरुप-कामाख्या और विन्ध्याचल की कैसी प्रसिद्धि है समाज
में। चोला रंग लो, जटाजूट बढ़ालो, बात-बात में कामरुप के सिद्ध के रुप में परिचय
दो—वस हो गए तान्त्रिक। पढ़े-लिखे समाज में भी ज़ाहिलों की कमी थोड़े जो है। और
उनके बदौलत दौलत,शोहरत,इज्जत सबकुछ पैरों तले लोटने लगेगा थोड़े ही दिनों में। ऊपर
और नीचे वाली एक-एक इन्द्रियों को जरा काबू में रख लो, तो लम्बे समय तक समाज में
टिके भी रह जाओगे—इस गुरुमन्त्र का पूरा-पूरा पालन करते थे दमकल पंडित। अगली पीढ़ी
भले ही लम्पटाधिराज हो गयी,किन्तु मज़ाल है कि दमकल पंडित के चरित्र पर किसी ने
उँगुली उठायी हो आज तक। लोगों की भद्दी-भद्दी गालियों और मजाकों का जवाब भी महज मधुर
मुस्कान से दे दिया करते दमकल पंडित।
उस बार विन्ध्याचल से बड़ी
प्रसन्न मुद्रा में लौटे—मानों अल्लादीन का चिराग़ ही हाथ लग गया हो। लोगों के
पूछने पर दमकल पंडित ने बतलाया कि गुरु महाराज ने ‘घटिकासिद्धि’ का मन्त्र दे दिया है।
थोड़े ही दिनों में इसे नदी किनारे वाले श्मशान में जाकर सिद्ध कर लेना है।
गुरुमन्त्र तो कहने-बताने की चीज नहीं है, पर ग्रामिणों की उत्सुकता जगाने के लिए
विधि की विधिवत व्याख्या कर दी दमकल जी ने।
विधि बस इतनी ही है— मृत्यु
के दूसरे दिन पीपल वृक्ष में मृतक प्राणी की तुष्टी हेतु जलपूर्ण घटिका टांगी जाती
है। अमावस्या की अर्द्धरात्रि में उस स्थान पर जाकर, वृक्ष को प्रणाम करे और अपना
उद्देश्य बतलाते हुए, शरीर पर से सारे वस्त्र उतार दे, यहाँ तक की जनेऊ भी न रहे ।
अब गुरुमन्त्र का वाचिक उच्चारण जोरों से करते हुए, बायें हाथ की मुट्ठी से घटिका
पर प्रहार करे। शर्त ये है कि भग्न घटिका का कोई एक टुकड़ा जमीन पर गिरने से पहले
ही सम्भाल लेना है और साथ ही अपने वस्त्र को भी। इन दोनों पर एक साथ ही काबू पाना
है, अन्यथा सबकुछ बेकाबू हो जायेगा। घटिका का टुकड़ा यदि जमीन पर गिर गया तो
सिद्धि नहीं मिलेगी और यदि अपने कपड़े पर नियन्त्रण नहीं कर पाये, तो प्रेत
साक्षात उपस्थित होकर फुटबॉल बना देगा साधक की खोपड़ी का। सौभाग्य से यदि दोनों
कार्य में सफल हो गए, तो प्रेत का दर्शन सौम्य रुप में होगा और आजीवन दास बन
जायेगा। उससे जो-जो कर्म-कुकर्म कराना हो, कराते रहिए ।
अगले ही दिन दमकल पंडित ने
थोक भाव से मटकी खरीदी और अमावस्या की सिद्धि निष्फल न जाए, इस विचार से रात्रि-अभ्यास
शुरु कर दिए।
निविड़ अन्धकार में श्मशान
का सन्नाटा बड़े-बड़े हिम्मतवरों का कलेजा कंपा देता है। दमकल बाबा कितने हिम्मतवर
हैं, कौतूहल पूर्ण जिज्ञासा कई लोगों को सताने लगी। कुछ-कुछ योजनाएं भी बनने लगी।
बाबा जी रात्रि भोजन के बाद
कुछ देर विश्राम करते और फिर हिम्मत जुटाकर श्मशान की ओर चल देते एक मटकी लेकर। ये
सिलसिला सप्ताह भर तक चला। शनैः-शनैः हिम्मत बुलन्द होता गया। रात का अनुभव सुनाने की शेखी भी बढ़ती
गयी।
आठवाँ दिन भी सही सलामत गुजर
गया, किन्तु नौवें दिन जो कुछ घटित हुआ वो आजीवन यादगार बन गया। रोज की भाँति सहज
रुप से कपड़े उतारे और वृक्ष से लटकती मटकी पर मन्त्रोच्चारण करते हुए घुस्सा
मारे। टुकड़े को सहर्ष हाथों में लेकर जैसे ही कपड़े की ओर दूसरा हाथ बढ़ाए,तभी भयंकर
आवाज आयी और वृक्ष के ऊपर के कोई धब्ब से नीचे कूदा।
अन्धेरी रात में भी एक विशेष
प्रकार की चमक होती है। दमकल पंडित ने देखा—एक विकराल मानवाकृति, जो आपादमस्तक एकदम
धुनी हुयी रुई के समान थी। उसकी वलिष्ठ भुजाएं इनके गले की ओर बढ़ रही थी। पंडितजी
के मुँह से जोरों की चीख निकली—अरे बाप रे ! और चारोखाने
चित हो गए।
दमकल बाबा को होश तब आया, जब
सबेरा हो चुका था और गांववाले चारो ओर से उन्हें घेरकर, टीन पीटते हुए चिल्ला रहे
थे—
‘दमकल बाबा सिद्ध हो गए…दमकल बाबा सिद्ध हो
गए...। ’
उतारे गए कपड़े पास में थे नहीं। निर्वस्त्र गोपियों का चीरहरण
प्रियतम कृष्ण ने किया था, विवस्त्र दमकल बाबा का चीरहरण भी किसी प्रिय ने ही किया
होगा। लाचार होकर नदी की ओर भागे ताकि जलमग्न होकर लाज़ बचायी जा सके। किन्तु वहाँ
भी पहले से ही सुनियोजित भीड़ इकट्ठी थी। फलतः गांव की ओर, अपने घर की ओर पलायन करना
ही उचित लगा;
परन्तु वहाँ भी जीवन भर का अरमान लिए सालियों की तालियाँ स्वागत में
तत्पर थी। सालियाँ तो ऐसे मौके की तलाश में सदा रहती ही हैं। नंग-धड़ंग दमकल पंडित
को पूरे गांव का चक्कर लगवाकर कर
ही दम लीं।
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