गुनीबाबा का ससुराली स्वाद

 

गुनीबाबा का ससुराली स्वाद

 

ससुराली स्वाद का कुछ अनुभव है बबुआ !”— शान्त सरोवर में अचानक आ गिरने वाली कंकड़ी की तरह वटेसरकाका का ये सवाल मेरे चित्त-सरोवर में लहरें पैदा कर दिया ।

मैं कुछ सोचता-कहता,इसके पहले ही वे खुद कहने लगे— नहीं है यदि कुछ अनुभव, तो मुझसे ही एक पुराना वाकया सुनो। घटना थोड़ी मार्मिक है, इसलिए जरा ध्यान से सुनना और हो सके तो कुछ गुनना भी।

मैंने सिर हिलाते ही काका शुरु हो गए— तुलसीबाबा ने कलयुग वर्णन-क्रम में ससुराल के विषय में कुछ ऐसी-वैसी बातें कह दी है, जिसे याद कर गुनीबाबा विवाह-मंडप से ही भाग खड़े हुए थे — ऐन सिन्दूरदान के समय ही। बहुत दिनों तक वापस घर लौटे नहीं। घुमक्कड़ी करते जवानी का ज्यादातर हिस्सा गुज़र गया और फिर— क्या वर्षा जब कृषि सुखानी—घर लौटे तब तक दुनिया बदल चुकी थी। माँ-वाप बहू की मुंह-दिखाई का नेग लिए स्वर्ग सिधार गए। छोटे भाईयों ने अपना-अपना घर बसा लिया था और तुलसीबाबा के कथनानुसार बाकी के सारे रिश्ते-नाते छोड़-छाड़ कर साला-साली, साढ़ू-सरहज में ही लीन हो गए थे।

घर आने पर आस-पड़ोस ने जानकारी दी कि मंझले वाले की बूढ़ी सास अनाथ-निराश जीवन गुजार रही हैं, क्योंकि छोटी सी राम मड़ईया छोड़कर, बाकी सारा जमीन-जायदाद बेंच-बांच कर वेटी-दामाद रुख कर लिए शहर की ओर और जब इकलौती वेटी ने ही ये रास्ता अपना लिया, फिर भतीजों पर किस मुंह से आस लगाती !

 जानकारी मिलते ही गुनीबाबा बुढ़िया की सेवा में पहुँच गए और जी-जान से लग गए—परमातृ-सेवा में।

दिन गुज़रते रहे जैसे-तैसे, किन्तु सेवा-परायण गुनीबाबा कभी विचलित नहीं हुए। गांव-मुहल्ले वाले भी कहते—लगता है फिर एक श्रवणकुमार का अवतार हुआ है। 

जीवन के अन्तिम क्षणों में बुढ़िया ने गुनीबाबा को अपने सिरहाने की ओर इशारा किया। जमीन की थोड़ी खुदाई करते ही उसके भीतर तांबे का छोटा सा एक कलश नजर आया, चाँदी के सिक्कों से भरा हुआ।  बुढ़िया ने उसे सौंपते हुए कहा – इन रुपल्लों से क्रियाकर्म अच्छी तरह कर देना और फिर इसी जमीन पर मन्दिर बनाकर, भगवान की सेवा में अपना शेष जीवन गुजारना।

अनुभवी लोग कहते हैं कि मन की गति बड़ी तीव्र होती है, किन्तु एक बात और जोड़ लेने जैसी है कि धन की गति बड़ी विचित्र होती है। कुछ लोग धन के बराहिल होते हैं, तो कुछ लोग मन के बन्धुआ गुलाम। धन के बराहिल होने से कहीं ज्यादा खतरनाक है मन का गुलाम होना। बुढ़िया धन की बराहिली करती, जैसे-तैसे जीवन गुजार दी और गुनीबाबा मन की गुलामी में डाल से टूटे पत्ते की तरह इधर-उधर उड़ते रहे। टूटा पत्ता इत्तफाक से मन्दिर के कंगूरे पर भी गिर सकता है और कीड़े भरी नाली में भी। गुनीबाबा की जीवन-यात्रा भी कुछ ऐसी ही रही।  

जीवन के अन्तिम क्षणों में बुढ़िया ने अकूत धन देकर गुनीबाबा की जीवन-यात्रा को एक नयी दिशा दे दी। किन्तु जानते ही हो कि धन सहेजने से कहीं ज्यादा कठिन होता है मन सहेजना। इसीलिए शास्त्रों ने कहा है—मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।  मन सहेज लिया जिसने वो मोक्ष का अधिकारी हो जाता है और यही मन सांसारिक भोग में प्रवृत्त कराकर नरकगामी भी बना देता है।  

बुढ़िया का क्रियाकर्म बड़े ठाट-बाट से सम्पन्न हुआ। थोड़े ही दिनों बाद उस पुण्य भूमि को और भी पुण्यकारी बनाने का उपक्रम भी किया गुनीबाबा ने— वृद्धा की लालसा के मुताबिक भगवान का भव्य मन्दिर बन गया। गुनीबाबा अब मन्दिर के पुजारी के रुप में माने जाने लगे। राग-भोग लगने लगा। भक्तों की भीड़ जुटने लगी। भजन-कीर्तन होने लगा।

काम बढ़ा तो  व्यस्तता भी बढ़ी। अकेले गुनीबाबा के लिए मन्दिर का देख-रेख सम्भालना कठिन होने लगा और इतना ही नहीं, बाल ब्रह्मचारी गुनीबाबा के लिए ब्रह्मचर्य सम्भालना उससे भी कठिन हो गया।

 अनुभवी लोग कहा करते हैं कि ब्रह्मचर्य की असली परीक्षा जवानी में नहीं, बल्कि उम्र ढलने पर होती है। युवावस्था का जोश ब्रह्मचर्य को सम्भालने की भी ताकत देता है, जबकि ढलान पर की कमजोरी ब्रह्मचर्य को भी कमजोर करने लगती है। सच कहा गया है—कामवासना मरती नहीं, दुबकी-दबी-छिपी रहती है।

भाई की ससुराल भी तो आँखिर ससुराल जैसी ही है। कौन कहें कि साली-सरहज नहीं मिलेंगे वहाँ। और साली-सरहज किसी को चैन से रहने दी हैं आजतक? कलयुगी मेनकायें मौका मिलते ही सिर पर सवार हो जाती हैं। इनकी नज़रों के गुलेल से जो बच गया वो बीर और ब्रह्मचारी...। गुनीबाबा पर तो अनगिनत गुलेलों की बौछारें होती थी। कितना सम्भालते बेचारे। अन्ततः घायल कर ही दी एक मृगनैनी की धारदार वार ने । नतीजा ये हुआ कि मन्दिर की सेविका के रुप में उसे सहर्ष स्थान मिल गया और फिर बड़े सहज रुप से मन्दिर के गर्भगृह से गुनीबाबा के शयनकक्ष तक का रास्ता साफ हो गया।

कठोर ब्रह्मचर्य जब उफान लेता है तो बड़े-बड़े बाँधों को ध्वस्त कर डालता है। अच्छे-अच्छे ब्रह्मचारियों की पहचान बिखर जाती है। गुनीबाबा किस खेत की मूली हैं !  

समय बीता। सेविका के गर्भ में गुनीबाबा का प्रेम-प्रसाद पलने लगा , किन्तु उनमें इतनी साहस न थी कि बिन बुलाए आने वाले उस मेहमान का स्वागत कर सकें। पानी भरे गढ़े में किया गया शौच और पानी में डूबा हुआ आदमी समयान्तर में उजागर हो ही जाता है। औरत जब प्रेम करती है तो सर्वस्व न्योछावर कर देती है और घृणा करती है तो सर्व विनाश की भी हिम्मत रखती है। सेविका की गर्भवती होने की खबर जंगल की आग की तरह फैल गयी और तब सेविका ने एक नया रास्ता अख्तियार किया।  

अनुभवहीन लोग ही नारी को अबला कहते हैं। सौम्य नारी जब प्रचंड रुप लेती है, तब चण्डिका बन जाती है।  उस अबला को भी परिस्थिति ने सबला बना दिया। नजरों की नुकीली गुलेल से घायल की थी एक दिन और एक दिन ऐसा आया कि वर्छी के नोक से गुनीबाबा का सोते समय ही काम तमाम कर दी और जीवन की संचित कमाई को बाँध-बूध कर अज्ञात यात्रा पर निकल पड़ी, लाश को वहीं मन्दिर के प्रांगण में ही दफना कर।  

श्रीमद्भागवत में एक प्रसंग है— प्रेत धुन्धकारी को महात्मा गोकर्ण की कृपा से मोक्ष लाभ हुआ था। क्या कोई गोकर्ण इस बियावान मन्दिर की ओर भी यात्रा करेंगे ताकि गुनीबाबा को प्रेतत्व से मुक्ति मिल सके ?

मुझे तो ऐसा नहीं लगता।

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