वानरी बुद्धि का प्रमाणपत्र
“ गुडमॉर्निंग के साथ
मॉर्निंग टी आज तुम्हारे ही हाथ का पीने का मन कर रहा है। जल्दी से चाय पिलाओ, फिर
कुछ जरुरी बातें भी होंगी। ”— वटेसरकाका बड़े प्रसन्न मुद्रा में सुबह-सुबह दाखिल हुए मेरे कमरे में चाय
की फरमाईश के साथ।
चाय तो हमेशा पीते ही हैं
हमलोग साथ बैठ कर, कभी उनके यहाँ, कभी मेरे यहाँ। किन्तु आज उनकी बदली-बदली
भाषा-शैली पर उत्सुकता हुयी। अतः पूछना पड़ा—क्या बात है काका
! आप तो गुडमॉर्निंग और बेडटी के विरोधी गुट के मेम्बर हैं। फिर ये वार्ता-शैली?
चवन्नियाँ मुस्कान के साथ काका
ने कहा— “ पश्चिम वाले बन्दरों के वंशज हैं और पूरब वाले मनु की सन्तानें हैं—इस
बात पर मुझे तो जरा भी आशंका नहीं, किन्तु इधर कुछ ऐसे-वैसे प्रमाण भी लागातार मिल
रहे हैं, जिससे मेरी जानकारी और पोख्ता होती जा रही है। आज का अखबार पढ़े हो कि
नहीं? The New York Times में एक खबर छपी है कि अमेरिका, व्रिटेन
आदि देशों में 17% लोग सप्ताह में एक दिन नहाते हैं।
भारतीयों की तरह रोज नहाने की परम्परा वहाँ नहीं है। पर्यावरण विशेषज्ञ इसका
जोरदार समर्थन करते हुए औरों को भी इस नियम को अपनाने की सिफारिश कर रहे हैं। उनका
मानना है कि रोज नहाने से वातावरण में कार्बन उत्सर्जन ज्यादा होता है, जिससे
पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। साबुन का इस्तेमाल करने से तो और भी क्षति होती
है पर्यावरण को। दुनिया के कई बड़े डॉक्टरों और पर्यावरणविदों ने इसका समर्थन किया
है। ”
काका की बातें बेतुकी होते
हुए भी विचारणीय होती है। अतः सोचने लगा— जब दुनिया के बड़े लोग कह रहे हैं, तो
सुनना ही होगा। किन्तु सवाल उठता है कि ‘बड़े’ किस मायने में
? कुर्सी ऊँची हो जाने से कोई बड़ा हो ही जाए, ये तो जरुरी नहीं। हम
भारतीय तो बात-बात में नहाने में आस्था रखने वाले हैं। नित्य स्नान ही नहीं, वल्कि
त्रिकाल स्नान और संध्या-गायत्री की परम्परा है हमारी। कुम्भ, मलमास, क्षयमास,
अधिकमास, सूर्य-चन्द्रग्रहण ही नहीं, प्रत्युत घोर शीतकाल में कार्तिक स्नान और माघ
स्नान का भी महत्त्व बतलाया गया है पुराणों में। जननाशौच-मरणाशौच में मुण्डन और
स्नान के बिना गुजारा ही नहीं है। यहाँ तक कि यज्ञान्त अवभृत्थस्नान को
सर्वश्रेष्ठ स्नान कहा गया है। ऐसे में स्नान का वैज्ञानिक विरोध बिलकुल
अवैज्ञानिक कहा जाना चाहिए। हाँ, ये बात मान्य हो सकती है कि गर्म मुल्क और ठंढे
मुल्क की परम्परा अलग-अलग हो सकती है। सुनते हैं कि बहुत से पश्चिमी देशों में आम
घरों में स्नानागार होते ही नहीं। स्पष्ट है कि वहाँ नित्य-नियमित स्नान की
परम्परा और महत्ता नहीं है। खुशबूदार स्प्रे मार कर काम चला लिया जाता है।
विडम्बना ये है कि हम मौसम और वातावरण का विचार किए वगैर, सिर्फ पश्चिमी बातों को
सीधे-सीधे स्वीकार-अंगीकार कर लेते हैं। अदालतों में काले कोट में चिपचिपाते पसीने
से तर-बतर न्यायाधीश और अधिवक्ता इसी मूर्खता के शिकार हैं आजतक। स्वतन्त्रता के
सात दशकों के बावजूद हमने अपने परिधान पर विचार नहीं किया, संविधान की खामियों पर
क्या खाक सोचेंगे...।
मेरे विचारों पर काका के
सवाल की कंकड़ी पड़ी— “ किस विचार-वीथी में भटकने लगे
बबुआ? अभी तो एक ही बात बतलाया हूँ। दूसरी बात सुनोगे तो और
हँसोगे। मुर्गी-सूअर पालन के हिमायती कुछ पश्चिमी देशों में एक नया ट्रेंड चल पड़ा
है। गोमांस भक्षक, गोवंश-नाशक लोग अब गोशालाओं में जा-जाकर समय गुजार रहे हैं। गायों
को घंटों गले लगा रहे हैं। उनकी नयी मान्यता है कि गायों के आलिंगन से मन को
शान्ति मिलती है। हृदयरोग, कैंसर आदि अनेक घातक बीमारियों में काफी लाभ मिलता है। गौरतलब
है कि गाय की हृदयगति प्रति मिनट मनुष्य से काफी कम होती है, जबकि शरीर का तापमान
मनुष्य से ज्यादा है। इसी विशेषता का लाभ उठा रहे हैं नये खोजी लोग। मजे की बात है
कि चतुर गोशाला मालिक इस लूट कार्य के लिए 4-5 हजार रुपये प्रतिघंटा का बाकायदा
कीमत भी वसूल रहे हैं और गाय का दूध बेचने से कहीं अधिक मुनाफा कमा रहे हैं इस नयी
विधि से। इस नये ट्रेन्ड का नाम है—COW CUDDLING. इतना ही नहीं Termeric
Lale के नाम से
हल्दीवाला दूध हजारों रुपये गिलास बिक रहा है, वो हल्दी वाला दूध, जो हमारी सनातन
परम्परा में सदियों से समाया हुआ है। गाय को हम माता का दर्जा देते आए हैं। गोपालन
सर्वश्रेष्ठ कर्म मानते आए हैं। आयुर्वेद कहता है कि गाय के दूध में सोने का अंश
होता है, जो सेहत के लिए बहुत फायदेमन्द है। तुम्हें शायद पता न हो, स्वर्ण
निर्माण का ये प्राकृतिक कार्य गायों के ‘ककुद’ (कंधे पर बने मेरुदण्ड के खास भाग में
एक मांसल ग्रन्थि) में होता है। ककुद का योगशास्त्रीय विश्लेषण यदि करो तो और भी
चौंकाने वाली बातें सामने आयेगी। विशिष्ट विषनाशन
गुण और अपरिमित ऊर्जा का स्रोत भी है ये अद्भुत गांठ। विडम्बना ये है कि दूध की मात्रा बढ़ाने के चक्कर में
गायों की नयी नस्ल तो वैज्ञानिक बना लिए, किन्तु उनमें ये ककुद गायब है या न के
बराबर है। यानी की स्वर्ण की वो मात्रा गायब हो गयी, जो हमें देशी गायों से मिलती
थी। ”
काका की काऊकडलिंग और
टर्मेरिक लाटे वाली बात पर मैं चौंका। इसे पुनर्मूषिको भवः कहूँ या
सिरफिरापन समझ नहीं आता। दुःख इस बात का होता है कि हम अपनी चीज को अपनाने में
संकोच करते हैं और उसी पर जब दूसरों की मुहरें लगने लगती है, तब हम आँखें फाड़कर
देखते हैं और अपनाने को आतुर हो जाते हैं। ऐसी आतुरता के सैकड़ों उदाहरण हैं— हजारों
लाखों वर्षों से हमारे यहाँ व्यवहृत ग्वारपाठा (घृतकुमारी) और कुकुरमुत्ता (मशरुम)
जब एलोबेरा और गैनोडर्मा के नाम से जाना जाने लगा, तो झोपड़ियों से छिन कर
हवेलियों में कैद होने लगा । पूँजीवादियों की कृपा से आम आदमी की पहुँच से बाहर हो
गयी इनकी कीमतें। दो रुपये किलो में भी जिस ग्वारपाठा को कोई पूछने वाला नहीं था, उसका
रस निकाल कर 1000 रु. लीटर बेच कर अरबपति बन गए चतुर व्यापारी। हमारे सहज-सुलभ
वनस्पतियों को पश्चिम की घिनौनी नजर लग गयी।
पौराणिक ‘सूत-शौनक संवादों’ को तोड़-मरोड़कर, ‘चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’
वाली वर्ण-व्यवस्था की गलत व्याख्या करके, आरक्षण का जहर घोल-घोलकर हमारी बौद्धिक
क्षमता और प्रतिभा को दमित किया जाने लगा। इस कुनीति से दोहरा नुकसान हुआ—अयोग्य
लोग ऊँची कुर्सियों की शोभा बढ़ाने लगे और
वशिष्ट नारायण जैसे गणितज्ञ पागलखाने में सड़ने को विवश हो गए। प्रतिभायें पलायन
करने लगी विदेशों की ओर। प्रतिभावान बनने के लिए भी पश्चिमी डिग्रियों का मोल बढ़
गया।
हम गुरुकुल व्यवस्था वाले, मनु
की सन्तानें वानरी बुद्धि का प्रमाण-पत्र विदेशी विश्वविद्यालयों से खरीदने को
क्यों आतुर हैं—समझ से परे है।
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