झूठ के पर

 

झूठ के पर

झूठ के पर देखे हो बबुआ!”— वटेसर काका के सवाल कुछ ऐसे ही हुआ करते हैं, जिनका जवाब ना में देने में ही भलाई है। मेरे गर्दन हिलाते ही काका शुरु हो गए— वो नये जमाने वाले क्या कहते हैं—वर्चुअल वर्ल्ड—नहीं दिखने वाली दुनिया, अदृश्य दुनिया, परन्तु होता प्रायः सबकुछ वैसा ही है जैसा दिखने वाली दुनिया में हुआ करता है—चैटिंग-सैटिंग से लेकर लव-सभ सब हो जाता है इस वर्चुअल वर्ल्ड में ही।  उसी तरह झूठ के बहुत बड़े-बड़े डैने वाले पर होते हैं, परन्तु दिखते नहीं । झूठ का एक बहुत मंजा हुआ टेकनिक है—झूठ इतना दुहराओ, इतना बोल्डली बोलो, इतना दुष्प्रचार करो कि सच जैसा लगने लगे और जैसे ही सच जैसा लगने लगे, चट जामा पहना दो सच वाला। इस अनोखी तकनीकि का प्रयोग हमारी अदालतों में सबसे ज्यादा हुआ करता है। हालाँकि वकील और नेता में इस बात की  हमेशा होड़ लगी रहती है कि झूठ का ज्यादा प्रयोग कौन कर सकता है। कभी वकील आगे निकल जाता है, तो कभी नेता बाजी मार ले जाता है। जो भी हो, रहते हैं दोनों उन्नीस-बीस के करीब ही।  

मैंने टोका— नेता और वकील पर आप एकदम से सूप-बढ़नी लेकर पड़े हुए क्यों रहते हैं काका?

काका ने समझाते हुए कहा— दरअसल, लोकतन्त्र में इन्हीं दो का बोलबाला है। दोनों एक दूसरे की कसर पूरा करने में लगे रहते हैं। नेता की चूक की भरपाई वकील करता है और वकील की चूक नेता। मगही में एक कहावत है—हारब तो हूरब,जीतब तो थूरब, यानी किसी हाल में छोड़ेगे नहीं। उधर देखो न लंगड़ी दीदी धमकियाँ दे रही हैं। महाशक्ति वाले पुराने नायक भी कुछ ऐसा-वैसा ही वयान देते रहे हैं पिछले दिनों। बात ये है कि हार आसानी से पचती नहीं। हार पचाने की कोशिश में ही अगला चुनाव आ जाता है और पुरानी वाली झूठ की पोटली को ही झाड़-पोंछ कर फिर पसार दिया जाता है। जनता तो जनता होती है। उसे सबकी सुनने की लत है। सुनना मजबूरी है, क्योंकि करने का मौका तो बराबर मिलता नहीं।

जरा दम लेकर काका ने कहा— एक वाकया सुनाता हूँ। इससे साबित हो जायेगा कि झूठ के कैसे भड़कदार पर होते हैं। मेरे गांव में एक बाबूसाहब थे। रईशों में गिनती थी, भले ही रईशी से कोशों दूर थे। एक दिन गांव के कुम्हार से उन्होंने कहा कि घड़ा-ढकना तो बहुत बनाते रहे हो। मेरे लिए एक हजार सिक्के बना दो। बढ़िया से रंग-रोगन करके, खूबसूरत भी बना देना। बात आयी-गयी हो गयी। एक दिन कुम्हार चौराहे पर कुछ लोगों के साथ गप्पें लगा रहा था, उसी समय बाबूसाहब ने उसे टोका और हिदायत दी कि सप्ताह भर की मोहलत देता हूँ। एक हजार रुपये का जल्दी बन्दोबस्त करो। सप्ताह भर बाद फिर उसी चौराहे पर मौका पाकर टोका। दो-चार बार की टोका-टाकी के बाद एक दिन तो हद हो गयी—बाबूसाहब ने सीधे गर्दन पकड़ ली कुम्हार की और रुपये की मांग करने लगे। गांव वाले भी उन्हीं की तरफदारी में आ गये। कुम्हार को ही भला-बुरा कहने लगे। वादा खिलाफी का इल्ज़ाम सुन कुम्हार घबराया और असली बात बतलाया। किन्तु अबतक देर काफी हो चुकी थी। झूठ का पर काफी लम्बा निकल चुका था। पूरे गांव को मालूम चल चुका था कि बाबूसाहब का हजार रुपया बकाया है कुम्हार के पास। मिट्टी के सिक्के बनाने की बात पर किसी को यक़ीन नहीं हो रहा था। अन्ततः सरपंच साहब के दबाव में आकर बेचारे कुम्हार को हजार रुपये कर्ज लेकर, बाबूसाहब का कर्ज चुकता करना पड़ा।

जरा दम लेकर काका ने आगे कहा— झूठ प्रायः सच की आड़ में अपना काम साधता है। पानी दूध में ही मिलाया जाता है। मिलावट की मात्रा मिलाने वाले की होशियारी पर निर्भर करती है। नेता और वकील दिन-रात यही करते हैं। अदालती कार्यों में वकील की अच्छी भूमिका है अदालत और जनता को सहयोग करने में। विपक्ष की अच्छी भूमिका है सत्तारुढ़ पर नज़र रखने में। किन्तु ऐसा प्रायः होता नहीं है। वकील सिर्फ अपना केस बनाने में लगा रहता है, भले ही न्याय का घला घुँट जाए। नेता भी अपना वोट बनाने में रहता है, भले ही देश बिक जाए। महामारी के अभिशप्त दौर में भी नेता अपना वोट बैंक तलाश रहा है। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला पहले की तरह ही जारी है। आम जनता की बदहाली ज्यों की त्यों बरकरार है—गरीबी, भूखमरी, मंहगायी, बेरोजगारी, रोग-बीमारी...। लूट-खसोट का बाजार गरम है। व्यापारियों के पौ बारह हैं...।

मैं सोचने लगा— काका ठीक कह रहे हैं। शव-दाह के लिए कफ़न और लकड़ियों के भी लाले पड़े हैं। गंगा में बहते लावारिश शव हमारी नीयत और व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा खोल रहे हैं। शव यूपी के हों या कि बिहार के, हैं तो इन्सान के ही न। क्या इन्सानियत का ग्राफ इतना नीचे गिर चुका है?

Comments