कानून का मुरब्बा

 

कानून का मुरब्बा

दरवाजा खुला हो यदि, तो कुत्ते भी घुस जाते हैं, मैं तो आदमी ठहरा। ड्योढ़ी का दोनों पट खुला पाकर सीधे दाखिल हो गया आँगन में थोड़े कुतूहल के साथ, क्यों कि तीन-चार बार आवाज लगाने पर भी वटेसरकाका ने कुछ जवाब नहीं दिया । एकदम गमगीन मुद्रा में बीच आँगन में बैठे रहे। दाएं-वाएं शीशे के बड़े-बड़े दो बोईआम रखे हुए थे और सामने की ओर संविधान की एक प्रति पड़ी हुयी थी। काका की अपलक आँखों से आँसू की बूंदे टपक-टपक कर संविधान की पोथी पर पड़ रही थी। अगल-बगल में I.P.C., C.R.P.C. के अलावे कुछ और भी कानूनी किताबें बेतरतीव बिखरी पड़ी थी। धृष्ट आँसू की बूंदों को रोकने का असफल प्रयास करते हुए काका, उन किताबों के पन्नों को नोच-नोचकर, टुकड़े कर-करके कभी बायें, तो कभी दायें वाले बोईआमों में डालते जा रहे थे। गौर करने पर पता चला की बोइआमों में चीनी की चाशनी भरी हुयी है।

अपनी नासमझती और कौतूहल को पुनः ज़ाहिर करते हुए, बिलकुल पास जाकर, जरा जोर से पुकारा—क्या बात है काका?

इसबार की पुकार पर काका मानों गहरी नींद से जागे। सजल आँखों से मेरी ओर देखते हुए कहने लगे— इन सब किताबों का मुरब्बा बनाकर, सात समन्दर पार भेजने को सोच रहा हूँ बबुआ, क्योंकि हमारे काम तो कुछ खास आए नहीं इतने दिनों में।

कानूनी किताबों का मुरब्बा !!! – मैं चौंका।

हाँ बबुआ ! हाँ। सात दशकों से हमारे कानून विशेषज्ञ इसे चाटे जा रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे कुत्ता सूखी हड्डियों को चाटता है और अपने ही मसूड़ों से निकलते लहू को हड्डी से निकलता हुआ मान कर, सन्तुष्ट होता है और दूसरों को भी दिलाशा दिलाने के लिए बीच-बीच में भों-भों करते रहता है।

मैं कुछ समझा नहीं आप कहना क्या चाहते हैं—मेरे कहने पर काका एकदम से झल्ला उठे— तुम भला क्यों समझोगे ऐसी बातों को। तुम्हारे पास वक्त भी कहाँ है ऐसी बातों पर सोचने-विचारने का। खबरें सुनते-देखते-पढ़ते होओगे तो, वो भी तफ़रीह में या टाईमपास के लिए। लगता है आज की ताजा खबर भी तुम तक नहीं पहुँची है। मैं तो बुत्त बना हूँ अपनी न्याय-व्यवस्था की दयनीय स्थिति से। छोटे-मोटे अपराध तो छोड़ो, बड़े-बड़े नरसंहार पर नरसंहार होते रहते हैं। जाँच पर जाँच चलते रहता है, पर साँच उजागर नहीं हो पाता। गुनहगार मिलता ही नहीं। सिलसिला इतना लम्बा चलता है कि आई.ओ., गवाह यहाँ तक कि आरोपी भी गुजर जाता है और अन्हरीदेवी हाथ में तराजू लिए अपनी पीठ खुद से थपथपाती रहती है। शैतान के आँत की तरह पेचीदी, ऊँची-नीची कानून की सीढ़ियाँ इतनी घुमावदार हैं कि लोगों के छक्के छूट जाते हैं इनसे गुजरने में। पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुजर जाती है न्याय की तलाश में। दादा-परदादा के मुकदमे का फैसला पोता-परपोता सुन ले तो सौभाग्य समझो। इत्तफ़ाकन बबूल के नीचे कभी आम मिल जाए, इसी अन्दाज में कभी-कभार निर्मल न्याय मिल जाता है, अन्यथा ज्यादातर तो सड़ा-गन्धाता कीच ही मिलता है...।  

काका की मार्मिक बातों से मेरा ध्यान आज की अखबारी हेडलाईन पर गयी—उपरी अदालत ने निचली अदालत के फैंसले को जानी दुश्मन की तरह पछाड़ दिया है। ठोस साक्ष्य-सबूत के अभाव में सारे गुनहगार बा-इज्जत बरी हो गए हैं। खैरियत है कि उन्हें राष्ट्रभक्त का सेहरा नहीं बाँधा गया। फाँसी, जेल, जुर्माना सब कानूनी दाँव-पेंच की हवा में उड़ गए। हालाँकि उपरी अदालत के उपर भी एक अदालत है, जहाँ जाने की बातें हो रही हैं, किन्तु क्या उसके बाद ICJ (अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय) में भी जायेगा ऐसा तुच्छ मामला ! यहाँ तो 35/58 नरसंहारों का मामला है। वहाँ तो हजारों-लाखों के मामले पहले से ही विचाराधीन अटके पड़े हैं। वैसे भी ये विषय अन्दरुनी है। किसी राष्ट्र विशेष के अन्दरुनी मामलों में चूरन-चटनी वाली चिलचश्पी भले ली जा सकती है, तत्परता की जरुरत ही भला क्या है ! दशकों पहले एक वर्ग विशेष ने दूसरे वर्ग विशेष का सामूहिक संहार किया था,जिसमें 34 लोगों की जानें गयीं। बदले की आग में झुलसता दूसरे वर्ग ने भी मौका पाकर वही किया—उसने 58 सिर कलम किए। मजे की बात ये है कि दोनों ही मामलों में कानूनी दाँव-पेंच का बहुअंकीय ड्रामा चला और अन्ततः दोनों का हस्र वही हुआ। कानून के लम्बे कहे जाने हाथ लूंझ हो गए। किसी भी गुनहगार को गुनहगार साबित नहीं किया जा सका। संहार किस वर्ग का हुआ, किस वर्ग ने किया—ये तथ्य तो गौण है। विचारणीय बात ये है कि वर्ग विभेद की आग में राष्ट्र और राष्ट्र का नागरिक झुलसा और कुटिल-कलुषित नीतिज्ञ हाथ सेंकते रहे।

मुझे चुप देख काका ने टोका— फालतू की बातों में दिमाग मत खपाओ बबुआ! मेरी समझदारी को थोड़ी मदद करो। मैं सोच रहा हूँ कि क्या फैसला लिखते वक्त निचली अदालत ने पाँच-छः साल पहले भंग की थोड़ी ज्यादा खुराक चढ़ा ली थी, जो कुछ को फाँसी और कुछ को आजीवन कारावास की सजा सुनायी या कि अब उपर वाली अदालत ने अफीम चाट लिया है? कुछ तो जरुर है बबुआ, जो मेरी-तुम्हारी समझ से परे है।

मैंनें सिर हिलाया—नहीं काका नहीं। आप इसकी चिन्ता न करें। आप धैर्य रखें, क्यों कि अभी सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खुला है। रही बात भाँग पीने या अफीम खाने की, तो ये तो उच्चस्तरीय जाँच का विषय है। किन्तु यहाँ मुझे भी इस बात का संशय है कि क्या पता जाँच आयोग को हेरोईन-मार्जुआना की खुराक हाथ न लग जाए रिपोर्ट सौंपते समय। असल बात सिर्फ इतनी ही है कि न्यायालय के मंच पर कानून का ड्रामा ऐसे ही चलते रहता है। मनोबल बढ़ते रहता है। अपराध और अपराधी दोनों ही अट्टहास करते रहते हैं।

आँखिर खोट कहाँ है? खामी कहाँ है? कानून का कड़वा मुरब्बा ज़ायकेदार कहकर, हम कबतक चाटते रहेंगे?

क्या हम ऐसे सरल-सुगम-स्वस्थ-निरापद कानून की व्यवस्था कर पायेंगे, जिसमें सत्यमेव जयते  सिर्फ दीवारों पर टांगा जाने वाला स्लोगन मात्र न रह जाये, बल्कि सच में सच को विजय मिल सके ?

 

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