एम्यून बुस्टर

 

एम्यून बुस्टर      

 

घर में चीनी न होने के चलते, सुबह की चाय के चक्कर में चौराहे तक जाना पड़ा। चाय तो मिली नहीं, पर बटेसरकाका मिल गए कंधे पर भारी भरकम बोरिया लादे हुए।

 दो गज दूरी, मॉस्क है जरुरी वाले नापाक जमाने ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया है। आदमियत से दूर रहने का हुनर तो पश्चिम वाले बहुत पहले ही सिखा गए हैं सबको, जिसका पालन बड़ी ईमानदारी से कर रहे हैं लोग। अजीब समय आ गया है—मुँहकरखी वाला जाब लगा चेहरा पहचानना भी मुश्किल हो जा रहा है आजकल, किन्तु वटेसरकाका तो अपनी अनोखी चाल से ही पहचान में आ जाते हैं, इस कारण कोई परेशानी नहीं हुयी।

उन्हें देखते ही, लपक कर आगे बढ़ा। उनके कंधे पर का बोझ हल्का करने की कोशिश में हाथ ऊपर उठाया, किन्तु काका ने साफ मना कर दिया— नहीं बबुआ ! नहीं। कोई जरुरी नहीं है इस औपचारिकता की। बोरी भारी तो है, पर इतना भारी भी नहीं कि खुद उठा कर घर पहुँच न सकूँ। वैसे भी आजकल अपना बोझ अपने से उठाने का अभ्यास रखना चाहिए। हो सकता है कि अपनी लाश भी खुद ही ढोनी पड़े। ऐन मौके पर कुटुम्ब की कौन कहे परिवार भी मुँह फेर ले । ई ससुरा कोरोना जो न करावे। महीने भर का राशन लिए आ रहा हूँ। तुम्हारी काकी तो कह रही थी कि चार-छः महीने का ला लो एक ही दफा, क्योंकि निकट भविष्य में देश के किसी कोने में चुनाव शायद नहीं है, अतः हो सकता है लॉक-ऑनलॉक लम्बा खिंच जाए। किन्तु तुम्हीं जरा सोचो—गैर आरक्षण, गैर बी.पी.एल., गैर सरकारी मुझ जैसे साधारण आदमी की औकात ही कितनी है बाजार बटोरने की? मूस मोटयेतन लोढ़ा होयतन आकाशवृत्ति वाला आदमी महीने भर का इन्तजाम कर लिया, वही क्या कम है। हालांकि करने वाले तो सात पुश्तों का इन्जाम कर गुजारते हैं...।

काका को टोका न जाए, तो ननस्टॉप मोड जल्दी खतम ही नहीं होता। अतः टोकना पड़ा— कोरोना के बावत आपका क्या ख्याल है? इतने दिनों से देश-दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है और आपने इस पर कुछ टीका-टिप्पणी की नहीं अब तक। बडे आश्चर्य की बात है।

 

काकी इन्तजार में बाहर ही बैठी हुयी थी। ड्योढ़ी पर बोरी रखते हुए, काका ने कहा— पहले जरा सुस्ता लूँ। बेल लाया हूँ। शरबत पी लूँ, फिर बातें होंगी।

किन्तु काकी टोक बैठी— मैं क्या जानूँ आप बेल भी लेते आवेंगे। मैं तो सौंफ-गोलकी वाला शरबत बना कर रखे हुए थी।

कोरोना-काल में ये शरबत वाला फॉर्मूला मुझे कुछ जँचा नहीं, अतः टोकना पड़ा—ये क्या चक्कर है काका-काकी? आप बेल का शरबत फरमा रहे हैं, काकी सौंफ-गोलकी वाले शरबत की बात कर रही है और उधर डॉक्टरी फरमान है गरम पानी पीने का।

मेरी बात पर सिर हिलाते हुए काका बोले— ये अपनी-अपनी अटकल है बबुआ ! भटकल लोगों की बातें हैं ये सब। जिसको जो बुझा रहा है बके जा रहा है।  तुम्हें आश्चर्य हो रहा है न कि इतने दिन हो गए, मैं कुछ टीका-टिप्पणी क्यों नहीं कर रहा हूँ वर्तमान महामारी पर। दरअसल, जिस बात को ठीक से समझा ही नहीं,उसके बारे में टिप्पणी क्या करुँ? सोशलडिस्टेंसिंग,मॉस्क,सेनेटाइजेशन,कोरेन्टाइन आदि बातें तो कुछ-कुछ समझ आती हैं, किन्तु ये बात समझ से परे है कि प्रशासनिक छूट वाले समय में कोरोना का प्रभाव क्यों नहीं पड़ता, जबकि सामान्य से अधिक धक्का-मुक्की-रेलम-पेल रहता है बाजार में ! इतने दिनों में सिर्फ इतना ही समझ पाया हूँ कि न्यूमोनिया टाईप फेफड़े की कोई नयी बीमारी है, जिसका संक्रमण और विस्तार-गति अतितीव्र  है। गौरतलब है कि जिनके भीतर भस्त्रिका, कपालभाँति, अनुलोम-विलोम वाला स्वच्छ ऑक्सीन कभी घुसा ही नहीं है। घुसा है डीजल-पेट्रोल, बीड़ी, सिगरेट का निकोटिककार्बन और ए.सी., फ्रीज का जहरीला गैस ; ऐसे लोग तो आसानी से गिरफ्त में आयेंगे ही न। सबसे बड़ी बात है कि अँधों की नगरी में हाथी आ गया है—कोई पूँछ पकड़े बैठा है, कोई पांव। किसी ने इस महामारी को ठीक से समझा ही नहीं है अब तक। बस अटकलों का बाजार गरम है। भय और आतंक इतना फैला हुआ है कि कमजोर दिल वाले तो यूँ ही टें बोल दे रहे हैं। माना कि मरने वालों की संख्या बहुत बड़ी है, किन्तु विश्लेषित डाटा है किसी के पास कि उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति पहले कैसी थी? धैर्य और बुद्धिमानी पूर्वक घर में रहते हुए संक्रमित या प्रभावित लोगों में कितने मरे, अस्पताल पहुँच कर कितने मरे, राह चलते तड़प कर कितने मरे—सही  हिसाब है किसी के पास?  सब धन बाईस पसेरी गरीबी, भूखमरी, हार्डअटैक, कैंसर, यहाँ तक कि सामान्य मृत्यु को भी कोरोना के खाते में ही डाल दिया गया।  सरकार की स्थिति धोबी-गधे वाली है। विपक्ष को चिल-पों करने का अच्छा मौका है। तत्काल लॉकडाउन हो गया वो भी गलत । देर से किया जा रहा है, वो भी गलत । जो भी हो एक बात तो सोलहआने सही है कि व्यवस्था और ईमानदारी की सारी कलई खुल गयी है। कितने काबिल डॉक्टर और कितने अनुभवी पैथोलॉजिस्ट हैं हमारे यहाँ , किसी से छिपा हुआ नहीं है। एक एक्सपर्ट के सिंगनेचर पर दस-बीस पैथोलैब चलते हैं—ये किसे नहीं पता ! डॉक्टर साहब पूरी तौर पर आश्रित हैं जाँच रिपोर्ट पर, क्योंकि उनके पास खुद का कोई तजुर्बा नहीं । लैबों में ज्यादातर नन मैट्रिक नवसिखुए भरे पड़े हैं। ऐसे में मर्द को गर्भ रहा जाना और औरत को हाइड्रोसेल हो जाना कौन आश्यर्च की बात है।  सेवापरायण, कर्तव्यनिष्ट और ईमानदार इतने भरे पड़े हैं कि मौत, महामारी, भय-आतंक को भी भरपूर भुनाने में जरा भी नहीं चूकते । अरे बबुआ ! किडनी इतना महंगा बिकता है और खरीदने वाले मुँहमांगी कीमत देने को राजी है, तो फिर ओ.टी. में ये खेल खेल लेने में हर्ज ही क्या है !  मंगल पर वैज्ञानिकों ने ऑक्सीजन बना लिया है और धरती पर ऑक्सीजन का ब्लैक मार्केटिंग चल रहा है—कितना मजेदार विकास है इन्सान का ।  बात ये है कि 112 ईंच तोंद के सामने 56 ईंच सीने का कोई खास मोल नहीं है। चौदह लाख में दारोगा की कुर्सी खरीदे इन्सान से कितनी ईमानदारी की आशा की जा सकती है—सोचने वाली बात है। ये कोरोना संकट भी एक अच्छा-खासा अवसर है। जिसे जितना, जिस विधि से लाभ उठाना है उठा लो—दो-चार रुपये वाला मुँहझंपना सौ रुपये में बेच लो, सामान्य केमिकल सेनेटाइजर कहकर कुछ भी वसूल लो। पता नहीं फिर कब ऐसा मौका मिले।

बात बिलकुल सही कह रहे हैं काका ! दरअसल इन्सानियत से भटके हुए इन्सान हैं । इस महामारी में भी मारामारी है धन बटोरने की। नैतिकता की थोड़ी भी भनक लगी होती, तो झोलाछाप डॉक्टर नर्सिंगहोम नहीं चलाता, जबकि सिविलसर्जन के नाक के नीचे भी धड़ल्ले से कारोबार चल रहा है, क्योंकि सबकी अपनी हिस्सेदारी बँधी हुयी है।

अटकल-भटकल के इस महादौर में होशियारी इसी में हैं कि धैर्य, आत्मविश्वास और संयम से काम ले। सावधानी और संयम ही एकमात्र रक्षक है। और सबसे बड़ी बात ये है कि मरना सिर्फ एक बार है, जिसे किसी भी हाल में टाला नहीं जा सकता—जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः... और वो एक निश्चित क्षण है। न उसके पहले और न उसके बाद।  अतः भय के साये में बैठकर बारबार मरने से बचने की जरुरत है। क्योंकि निर्भय होना सबसे मजबूत एम्यून बुस्टर है।  

 

 

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