आँकड़-काँकड़-आँकड़ा

 

             आँकड़-काँकड़-आँकड़ा

 

वटेसरकाका की बैठक का विचित्र नज़ारा दीखा—बीचोबीच ढेर सारा कंकड़ विखरा हुआ था, जिसके अलग-बगल तीन-चार छोटी-बड़ी बोरियाँ पड़ी हुयी थी। पास ही वनियों के हिसाब-किताब वाला पीले रंग के कागज से बना बही-खाता, काली रोशनाई की दावात और सरकंडे वाली कलम भी पड़ी हुयी थी, अपनी पारी के इन्तजार में। इन सबके बीच उकड़ू बैठे काका एक-एक कर कंकड़ों को हाथ में उठा रहे थे और गौर फरमा-फरमा कर किसी एक बोरी में डालते जा रहे थे—कभी बड़ी बोरी में, तो कभी छोटी बोरी में। उनके होठ बुदबुदा रहे थे—रामजी एक, रामजी दो, रामजी तीन....।

धैर्य पूर्वक अचम्भित खड़ा मैं काफी देर तक निहारता रहा—उन कंकड़ों और बोरियों को और अटकलें लगाता रहा काका की हरकत का। आँखिर किस उद्देश्य से काका इतनी बारीकी से इन कंकड़ों का मुआयना कर रहे हैं—काफी मगज़पच्ची के बावजूद समझ न पाया। अन्ततः जोर से खँखार कर उनका ध्यान तोड़ने की गुस्ताखी की। किन्तु जब वो भी नाकामयाब रहा, तब आवाज लगानी ही पड़ी—क्या बात है काका ! क्या कर रहे हैं इतनी तन्मयता से?

अभ्यासरत योगी का ध्यान भंग होने पर, जो मनस्थिति होती है, कुछ ऐसी ही स्थिति काकाज़ान की हो गयी। झल्ला कर बोले— आँकड़े जुटा रहा हूँ बबुआ ! ”

आँकड़े जुटा रहे हैं? मैं समझा नहीं कुछ।

तुम नहीं समझे—ये तुम्हारी समस्या है। भला हम इसमें क्या कर सकते है। मगही जुबान में कांकड़ को आँकड़ कहते हैं। उन आँकड़ों का ही आँकड़ा जुटाने में लगा हूँ—किस नदी से कितना आँकड़ निकला। नदी की गहराई और चौड़ाई के हिसाब से इनकी खतौनी भी साथ-साथ करता जा रहा हूँ, ताकि किसी प्रकार की चूक न हो जाए और कल को हाईकोर्ट या कि सुप्रीमकोर्ट हम पर भी सवाल न खड़े कर दे।

आँकड़ों का आँकड़ा और अदालत का सवाल—मैं अब भी नहीं समझा आपकी पहेली को।

तुम नहीं समझने की कस़म खाये बैठे हो,तो इसमें मैं क्या करुँ? लगता है न्यूज-यूज से अपडेट बिलकुल ही नहीं रहते हो। इस बुढ़ौती में इन सारी बातों का जिम्मा मैं ही लिए बैठा हूँ। दिमाग की खुजली मिटा रहा हूँ आँकड़ गिन कर। आँकड़ गिनना और आँकड़ा जुटाना कितना दुरुह काम है, ये भला तुम जैसे सुधुआ नागरिक कैसे समझेंगे ! आँकड़ों की अहमियत सरकारें जानती हैं और आँकड़ा जुटाने ही ज़हमत और जटिलता सरकारी बाबुओं को पता होता है। तुम तो न सरकार हो और न सरकारी बाबू।  आँकड़ा जुटाना और लम्बे समय तक उसे सहेजे रखना, कितना जोख़िम वाला काम है—इसका अनुभव भला क्यों कर हो सकता है तुम्हें। वोर्ड-यूनिवर्सिटी के रिजल्टों वाला आँकड़ा हो या बाढ़-राहत-कोष की खैरातों का, सब उतना ही जोख़िम वाला काम है। अब लो न, बेचारे पहले से ही इतना परेशान थे आँकड़ों के जंजाल में, ऊपर से ये कोरोना का आँकड़ा आ धमका सुनामी की तरह। अदालतों के पास तो और कुछ काम-वाम रह नहीं गया है। मामूली मामलें तो दशकों-दशक उलझे पड़े रहते हैं। क्या जरुरत थी कोरोना का आँकड़ा इकट्ठा कराना? सही आँकड़ा इकट्ठा करना और बेंग तौलना दोनों एक जैसा काम है। अब कोई अस्पताल से जिन्दा निकला और घर जाकर मर गया और जन्मौतीफौती का हिसाब चौकीदार ने नहीं लिखाया तो भला अफसर की क्या गलती! आदमी बीमार हुआ अपने भाग्य से, मरा अपने भाग्य से। भाग्यवादी देश में कर्म की प्रधानता या कहो अहमियत ही क्या है ! मरना-जीना तो लगा ही रहता है। बाढ़-अकाल, महामारी होते ही रहते हैं। इन सबका आँकड़ा इकट्ठा करना और फिर उन आँकड़ों का आँकड़ा रखना, भला कौन सी बुद्धिमानी वाली बात है ! रही बात मुआवज़ों और घोषणाओं की, तो वो तो कुर्सी बचाने का अहला फॉर्मूला है। जनता कैसे समझेगी कि हमारी सरकार हमारा हर सम्भव ख्याल रख रही है—जिन्दगी के साथ भी जिन्दगी के बाद भी। पता नहीं धर्मोईमान से कठिन परिश्रम के बावजूद जीवन भर में चार-पाँच लाख बँचा पाये कोई, किन्तु मरने के बाद सरकारी खजाने से या कहो जनता की गाढ़ी कमाई वाले खजाने से मरने के बकशीस के नाम पर कुछ मिल जाता है, तो बाल-बच्चों का भी गुजर-बसर हो जाता है और सरकारी बाबुओं से लेकर नेताओं का भी माली आँकड़ा कुछ दुरुस्त हो जाता है। आँखिर इन्हीं आँकड़ों के लिए ही तो लोग सरकारी बाबू बनने को बेताब रहते हैं। लोक-सेवा-आयोग से आए हुए बड़े वाले अफ़सरान भी भला क्या करें, कहने को वे लोक-सेवक यानी जनता के सेवक हैं, किन्तु निरीह जनता की नीरस सेवा में भला क्या रखा है—यही कारण है कि आजीवन वे सरकार बहादुर की सेवा में अहर्निश रत रहते हैं। किरानी से कलक्टर तक इन्हीं आँकड़ों के खेल में मश़गूल रहते हैं। मंत्री-संतरी सभी इन्हीं आँकड़ों के मुहताज़ हैं।  ऐसे में कोई तालठोंक कर इन आँकड़ों को गलत कैसे साबित कर सकता है ! चमड़े की लचीली ज़ुबान की तरह हड्डी-चमड़ी वाला हाथ लड़खड़ा जाता है और मोलहीन जीरो को दायें के बजाए बायें ही रख दिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा या ज्वालामुखी फूट पड़ा, जो वड़ी वाली अदालत इतना खफ़ा है ! ”

काका की बतकही और तर्क का कोई जवाब नहीं। मैं सोचने लगा—सच में आँकड़ों का खेल बड़ा निराला है,सांप-सीढ़ी की तरह जोखिम भरा। 99 पर पहुँच कर भी 0 हुआ जा सकता है। जन्म का आँकड़ा हो या मृत्यु का, कोष का आँकड़ा हो या रोश का, लाश का आँकड़ा हो या खास का—आँकड़े सिर्फ आँकड़े होते हैं, सही-गलत से इन्हें कोई खास वास्ता नहीं। समय के मुताबिक इन आँकड़ों को भुनाया जाता है। सेलटैक्स, इन्कमटैक्स, टोलटैक्स,गोलटैक्स...न जाने कितने तरह के आँकड़े होते हैं और इन आँकड़ों का आँकड़ा बनाने-रखने के लिए बी.कॉम. से लेकर चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट तक पसीने बहाते  हैं। टैक्स चोरी सबसे बड़ी कला है। इसमें जो पारंगत हो उसे ही चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट कहते हैं। काबिल से काबिल ऑडिटर जिसे पकड़ न पाये, वही सही मायने में आँकड़ा तैयार करने वाला माना जाता है। जितना बड़ा टैक्स चोर, उतना काबिल एकाउन्टेन्ट बहाल करता है। कौन कहता है कि आँकड़े झूठ होते हैं! झूठ और सच तो देश-काल-पात्र सापेक्ष है। जो बात एक समय सच होती है, वही दूसरे समय बिलकुल झूठ बन जाती है। बीती सरकार की बातें चालू सरकार में मक्कार की बातें हो जाती हैं। सत्तारुढ़ के आँकड़े सत्ताहीन के लिए बारुद का काम करते हैं। उन आँकड़ों से ही विस्फोटक वोट बैंक का दरवाजा खुलता है। अंगुली कुचलने का आँकड़ा टखना टूटने का आँकड़ा बन जाता है। आँकड़ों के इस खेल को जो समझ गया वो मर्द, ना समझा वो...।

 

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