स्वायत्तता पर प्रहार

 

        स्वायत्तता पर प्रहार

 

वटेसरकाका थोड़ी जल्दबाजी में थे। जल्दबाजी में तो मैं भी था, किन्तु फर्क इतना ही था हमदोनों की जल्दबाजी में कि मैं जिस ट्रेन से उतर रहा था, उसी ट्रेन पर उन्हें चढ़ना था। जैसा कि भारतीय-रेल-सेवा के अनुभवियों का मानना है कि रेल-यात्रा बिलकुल जोखिम और टेन्सन वाला मामला है, भले ही आप आरक्षित यात्री क्यों न हों। आरक्षित-अनारक्षित दोनों की समस्या में ज्यादा फर्क नहीं होता। वैसे भी ट्रेन की सीट संसद-परिषद की सीट से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। सरकारी नौकरियों में एक तिहाई आरक्षित होता है, जब कि रेल-यात्रा शत-प्रतिशत आरक्षित वा संरक्षित हुआ करती है। धक्का-मुक्की करके, आगे बढ़कर खिड़की से रुमाल-गमछा, छाता-छड़ी, बैग-सैग फेंक कर सीट लूटना भी वोट लूटने से कम दिलशस्प नहीं है। फिर भी कोई गारंटी नहीं है कि भीड़ थमने पर, जब आप संरक्षित सीट के करीब पहुँचें तो आपका संरक्षक-सामान सही सलामत वहाँ हो ही। या तो वो नदारथ होगा या उसी पर कोई धृष्ट आरुढ़ होगा। फिर बात मुंहाठोंठी से शुरु होकर हाथापायी पर आ जायेगी। इस बीच धर्म, दर्शन, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र सभी विषयों पर चर्चा भी हो ही जायेगी और अन्त में लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाली नैतिकता-सिद्धान्त के  तहत बीच का रास्ता निकलेगा कि वादी-प्रतिवादी दोनों उस सीट पर आधे-आधे के अधिकारी मान लिए जायेंगे। और फिर जीवन-यात्रा में पति-पत्नी इतना धैर्य पूर्वक समझौता करें ना करें, आप समझौता करने को मजबूर होते हैं पूरे सफर  के दौरान ।

खैर, इतनी बातें तो फिजूल का ही कह गया। दरअसल काका के साथ रहते-रहते मेरी भी आदत कुछ वैसी ही हो चली है। कम शब्दों में कुछ कह ही नहीं पाता। बात इतनी ही है कि काका अचानक छोटी वाली राजधानी के आकस्मिक यात्रा पर निकल पड़े। काका कोई मंत्री-वंत्री तो हैं नहीं, जो इनकी यात्रा का ट्विटर-स्वीटर हैंडलिंग हो हैशटैग के साथ, फिर भी मेरे जैसा अदना आदमी तो आदतन पूछ ही देगा न—यात्रा की वजह।

शटल-ट्रेन को चुँकि दस-बीस मिनट रुकना ही था, इसलिए सीट का टेन्सन समाप्त होते ही काका शुरु हो गए अपने अन्दाज में— माना कि स्वायत्तता पर प्रहार बर्दास्त करने की चीज नहीं है। लोकतान्त्रिक परिपाटी के अनुसार इसके विरोध में कोई भी कदम उठाया जा सकता है। उठाया जाना भी चाहिए ही, किन्तु विरोध-मार्च करने से पहले स्वायत्तता की परिभाषा और सीमा को तो समझ ही लेना चाहिए। पिछले बहत्तर सालों में अभी तक ज्यादातर लोगों को स्वतन्त्रता की परिभाषा ही समझ नहीं आयी, फिर स्वायत्तता तो स्वभावतः थोड़ी टेढ़ीखीर है। ज्यादातर लोग निरंकुशता और मनमानेपन को ही स्वायत्तता समझे बैठे हैं और स्वतन्त्रता को इसका पर्याय। इस बात पर बहुत कम लोगों ने ही गौर फरमाया है कि हमारी स्वतन्त्रता सत्ता का हस्तान्तरण मात्र है। मुगलों से सत्ता छिन कर गोरंडों ने ली और फिर गोरंडों ने भारतीयों को स-शर्त अधिकृत किया। पेंच यहाँ भी फँसा हुआ है कि जिससे ली गयी उसे ही क्यों न दी गयी। सनातनी भारत को गैरभारत बनाने का पुरजोर प्रयास अपने-अपने अन्दाज में चलता रहा। नियमतः हिन्दूराष्ट्र होने में तब भी अड़चने थी, अब भी बाधाएं हैं। पापा-चाचा-मौसा-फूफा सब अपने-अपने ढंग से जुटे रहे सात दशकों से। मजे की बात ये है कि गो-पूजक भारत गो-मांस का सुख्यात व्यापारी है। क्यों न हो, जहाँ का वरिष्ठ सांसद ही शर्मसार होने के वजाय निर्लज्जता पूर्वक संसद में सवाल उठाता हो कि गो-हत्या बन्द हो जायेगी तो मेरा क्या होगा कालिया?—ऐसे में गो-संरक्षक शंकराचार्यों पर लाठीचार्ज होना कौन बड़ी बात है ! सत्तासीनों ने राष्ट्र को पुस्तैनी ज़ागीर समझ लिया और स्वतन्त्रता को निरंकुश-निरापद राजमुकुट। स्विसबैंक के खाते मोटे होते गए और संविधान के कारीगरों से कुछ करते-धरते न बना। असली खोट तो वहीं है— संविधान न हुआ पोलीबैग हो गया—ठोस-लिक्विड-गैस कुछ भी ठूंस दो जब जितना जी चाहे। संशोधन पर संशोधन होते चले गए। अरे भई! कूड़े-कचरे में कितना साफ-सफाई करोगे? नया कुछ रचने की तो दृढ़ इच्छाशक्ति तो है नहीं।    

काका की वयानबाजी पर ब्रेक लगाते हुए मैंने पूछा—क्यों काका आज अचानक पटना की यात्रा पर कैसे निकल पड़े?

काका के होठों पर व्यंग्यात्मक चवन्नियाँ मुस्कान तैर गयी— मैं फिर वही बात कहूँगा—न्यूज-यूज से तो अपडेट रहते नहीं हो और उल्टा सवाल हमसे करते हो। पंचायती राज वाले देश में नगरनिकायों का हाथ-पैर काटा जा रहा है। या यूँ कहो कि सीधे गला ही रेता जा रहा है। उनकी स्वायत्तता यानी की निरंकुशता खतरे में है और कहते हो कि पटना क्यों जा रहा हूँ।

सो तो है। किन्तु आप तो न विधायक हैं और न पार्षद और न मेयर-सेयर ही, नुक्कड़छाप नेता भी नहीं हैं, फिर पटना-यात्रा की ज़हमत क्यों उठा रहे हैं? गणमान्य लोग तो अपनी-अपनी ए.सी.गाड़ियों में जा रहे हैं और आप हैं कि शटल ट्रेन में धक्का-मुक्की वाला सफर कर रहे हैं।

काका जरा इत्मिनान वाली सांसे भरे, फिर कहने लगे— मैं स्वायत्तता की परिभाषा बूझने जा रहा हूँ। फिर उस  पर प्रहार पर विचार करुँगा। दाहिनी ओर मनमाने शून्य बैठा कर खर्चों से लेकर नियुक्तियों तक का खाका तैयार होता था। कर्मक्षेत्र में इज़हार कम, इस्तहार ज्यादा के हिमाकती जनसेवक कितने दूध के धुले हैं, क्या किसी से छिपा है!  

मैंने सिर हिलाते हुए कहा—बात ठीक कह रहे हैं काका। समस्या स्वायत्तता छिनने की नहीं है, निरंकुशता कमने की है। दरअसल स्वायत्तता पर प्रहार की बात नहीं है, बल्कि स्वायत्तता को हथियार बनाने की लत की बात है। कर्त्तव्यों को धत्ता बताकर, लोकतान्त्रिक अधिकारों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाली आदत पर पुनर्विचार है।  किन्तु सोचने वाली बात है कि  न खाऊँगा न खाने दूँगा से भला कैसे काम चलेगा ! अब भला किसी एक का हाज़मा खराब हो जाए, तो क्या सब लोग पचनोल की गोली खाने लगें? नगरनिकाय हों या पंचायतें—लूट-खसोट की अर्थनीति का ककहरा तो यहीं से शुरु होता है न? दारोगा साहब जैसे अपराध महाविद्यालय के प्राचार्य होते हैं, उसी तरह पार्षद-मेयर लूटयूनिवर्सीटी के अन्डरट्रायल वी.सी. हैं। मुझे तो ऐसा ही लगता है। आपका क्या विचार है?

 

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