कहर कोरोना काँवरिया

 

कहर कोरोना काँवरिया

    भुलेटनभगत जरा अजीब किस्म के इन्सान हैं। अजीब इस मायने में कि आज के जमाने जैसे लोगों वाली सोच बिलकुल नहीं रखते। वो क्या कहते हैं न अंग्रेजी वाले—Be Practical,हालाँकि इधर वाले बुज़र्ग भी कुछ-कुछ ऐसा ही सुझाते हैं—अपनी लिट्टी जरा ढक कर सेंको...। किन्तु दोनों सीखों में भारी फ़र्क है। बी प्रैक्टिकल में तो माँ-वाप और जवान वेटे-बहू भी नहीं आते, काका-ताऊ, रिश्ते-नाते, आस-पड़ोस के समाने की गुँजाएश ही कहाँ है ! फिल्म मेरा नाम जोकर में हीरो का दिल डॉक्टरों ने इसीलिए निकाल फेंका था, क्योंकि वो बहुत बड़ा हो गया था—एकदम से बड़ा, पूरी दुनिया समा जाने जैसी औकात वाला दिल। भला आज के जमाने में इतने बड़े दिल की क्या जरुरत है दुनिया वालों को? सांयन्स ने दुनिया को बहुत ही समेट दिया है—पूरी दुनिया छोटे से ऍनरायड में समा चुकी है रॉकेटयुग में। ऐसे में छोटी दुनिया में बड़े दिल का क्या काम ! सब कुछ यूज एंड थ्रो वाला—रिश्ते-नाते भी।

      भुलेटनभगत इसी कारण अजीबों की गिनती में  आते हैं। हालाँकि बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं। बामुश्किल साक्षर कह सकते हैं। फिर भी धर्म, समाज, राजनीति, कायदा-कानून, यहाँ तक कि आधुनिक विज्ञान पर भी पैनी नज़र और जबरदस्त पकड़ रखते हैं। ये उनका दैवी-देन है। अपना कुछ नहीं है। चाहत भी कोई खास नहीं, फिर भी हमेशा बेचैन रहते हैं सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः के लिए। औरों के सुख में ही इन्हें अपना सुख नज़र आता है। औरों की पीड़ा से ही सदा पीड़ित रहते हैं।

 आज ऐसी ही पीड़ा लिए मेरे यहाँ दाखिल हुए। मैंने अनुभव किया—उनके चेहरे पर थोड़ी चिन्ता थी, थोड़ा आक्रोश भी। बेंत वाले मोढ़े पर धब्ब से बैठते हुए कहने लगे —कोरोना की तीसरी लहर का अलार्म बजना शुरु हो गया है बच्चे ! बकरीद की मस्ती के लिए थोड़ी राहत है और जहाँ कहीं भी किसी तरह का चुनाव-ऊनाव है,वहाँ भी एनशूलेटेड रहने की पूरी आशा है,किन्तु बाकी जगहों में जमकर कहर ढायेगा —ऐसा ही विशेषज्ञों का मानना है। खासमखास बात ये है कि पिछली यानी दूसरी लहर के दौरान जो लखपति-करोड़पति बनने से चूक गए,उनके लिए बहुत ही सुनहरा मौका आ रहा है। माननीय सुप्रीमकोर्ट ने भी स्वयं संज्ञान ले लिया है, क्योंकि सुप्रीमकोर्ट को पूरा य़कीन है कि कोरोना सिर्फ उन्हीं लोगों को जकड़ेगा, जो श्रावण महीने में भोलेनाथ को जल चढ़ाने जायेंगे काँवर लेकर। यात्रा हरिद्वार की हो या बैजनाथधाम की या किसी अन्य भोलेदरबार की, कोरोना तो कहर ढायेगा ही उन पर। पिछले साल कोरोना के चलते ही गयाधाम में पिण्डदानियों के आगमन की रोक थी। इस बार भी ऐसा ही होना तय है,क्योंकि कोरोना को पिण्डदानियों या तीर्थ-यात्रियों से सख्त नफ़रत है। नियम-मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाने वाले नेताओं के समारोहों में तो कोरोना डर के मारे घुसने की हिम्मत ही नहीं करता। या हो सकता है कोरोनासचिवालय में भी वैसे ही अफसरों की बहाली हो गयी हो जैसा हमारे यहाँ कार्यालयों में है।

 

भगतजी की बातों पर मैं चौंका। आँखिर मामला क्या है भगतजी? क्यों खफ़ा है आप सुप्रीमकोर्ट पर? कोरोना यदि मज़हबी होता तो पूरी दुनिया में लाखों लोग कैसे काल-कवलित होते? कोरोना सरकारी पदाधिकारी की तरह रिश्वतखोर भी नहीं है। रही बात सुप्रीमकोर्ट के स्वयं संज्ञान लेने की, तो ये कौन सी बड़ी बात हो गयी ! क्या आप भूल गए कि दो निशान, दो विधान हैं हमारे यहाँ ? परमात्मा ने दो आँखें दी हैं हमें। ऐसे में ये कौन सी बुद्धिमानी है कि दोनों आँखों से एक ही चीज देखें ! हमारे यहाँ धर्म और जाति देख कर वोट पड़ते हैं, नौकरी मिलती है। सरकारी अनुदान मिलते हैं। सारे नियम-कानून इसी हिसाब से हैंडिल होते हैं। ये सब तो पुरानी बातें हो गयी। कुछ नयी हो तो कहिए।

    भगतजी ने सिर हिलाया— ये मीडिया वाले कुछ नयी बात रहने दें तब न। टट्टी-पखाना को भी नेशनलन्यूज बना देते हैं। सकारात्मक बातें खबरों का हिस्सा बने ना बने, नकारात्मक-विध्वंसात्मक बातें हेडलाइन बनते देर नहीं लगती। तुम कहते हो कि मैं सुप्रीमकोर्ट पर खफ़ा हूँ। मेरी क्या औकात कि किसी माननीय संस्था या व्यक्ति पर आँखें तरेरुँ। मैं तो इस दुविधा में हूँ कि देश में एक से एक कांड होते रहते हैं, महानुभाव के आँखों की पट्टी नहीं खुलती। कान पर जूँ नहीं रेंगते। बॉलीउड के डॉनों का मामला हो या उनकी थाली में हो रहे छेद का मामला, ड्रग माफियाओं का मामला हो या कास्टिंग काउच का। सत्य और न्याय की लज़ीज थाली मुँह के पास आते-आते दूर सरक जाती है। वैसे मामलों में बड़े महोदय कभी स्वयं संज्ञान लेने की ज़हतम नहीं उठाते। नीचे वाले दोनों महोदय तो लीपापोती में माहिर हैं ही। रही बात पुलिस-प्रशासन की। वो बेचारी तो कठपुतली है सफेदपोशों के हाथों की। आँखिर उसे भी अपनी वर्दी और बीबी-बच्चों के परवरिश की परवाह है कि नहीं ! अब रही बात सरकारों की, तो वो पहले से ही बहुत सी जिम्मेवारियाँ सम्भाल रखी हैं— ड्रग माफियाओं, भू माफियाओं, बालू माफियाओं, दारु माफियाओं को हर सम्भव सहयोग करने की जिम्मेवारियाँ क्या मामूली काम है ? और बेचारा विपक्ष तो एक ही काम सम्भालने में बेदम है—सरकार गिराने की पुरजोर कोशिश, चाहे वो जिस कीमत पर हो।

    इतना कह कर, भगतजी जरा थथमे, फिर कहने लगे—ये काँवरिया भी कम ड्रामेबाज नहीं हैं। भक्ति का आडम्बरी चोला पहन कर निकल पड़ते हैं पिकनिक मनाने। साल भर दारु पीयेंगे, गांजा सुड़केंगे, मुर्गमुशल्लम पर हाथ फेरेंगे और सावन आते ही गेरुआ पहनकर भक्तों की कतार लगाकर नौटंकी करने चल देंगे। ये कैसी भक्ति है मुझे समझ नहीं आती। शिव-भक्ति के नाम पर गाँजा-भाँग का स्प्रीचुअल परमिट मिल जाता है इन्हें। गले में भक्ति का बिल्ला है, इसलिए सेकुलरिज़्म वाले देश में तांडव मचाने का लाईसेंस मिला हुआ है। यदि सच्ची भक्ति है, तो अपने घरों में एकाग्रचित्त होकर शिव-साधना क्यों नहीं करते? तीर्थस्थलों का व्यापारीकरण हो चुका है। धर्मशालायें होटल-रिसोर्ट में बदल गए हैं। धर्म कहीं दूर कराह रहा है, पूर्वजों की बनायी हुयी शालाएं शेष हैं सिर्फ।

   आँखिर उपाय क्या है भगतजी ! आप ही कुछ कहें। कानून पर, कानून बनाने वालों का ही नियन्त्रण नहीं है। सबसे ज्यादा कानून-भंजक तो वे ही हैं। न्यायालय की स्वतन्त्रता दाव पर लगी हुयी है। कॉलेज़ियम के गलियारे में भटकती नियुक्तियाँ न्यायदेवी को रुलाने के लिए काफी हैं। पूँजीवादी विचारधारा में सबकुछ बिकाऊ हो गया है—मीडिया भी, न्याय भी, शायद धर्म भी। जनता निरंकुश होने का रिहर्सल कर रही है, क्योंकि स्वतन्त्रता का यही अर्थ निकाला है उसने। काँवरिया भी वही कर रहे हैं—अपनी स्वतन्त्रता का जश्न मना रहे हैं भक्ति-भाव से गाँजे का दम लगाकर—दम मारो दम,मिट जाए गम...।

    भगतजी सिर झुकाये, पैर के अँगूठे से कमरे की जमीन कुरेद रहे थे। शायद उनके पास इसका समुचित जवाब नहीं था।

 

 

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