फिल्मीस्तानी गटर में नयी बजबजाहट

 

         फिल्मीस्तानी गटर में नयी बजबजाहट

भुलेटनभगत फुलफॉर्म में भनभनाते हुए मेरे बैठक में दाखिल हुए और राम-सलाम की  औपचारिकता के वगैर ही शुरु हो गए—

दौलत और शोहरत जो न कराये, थोड़ा...किन्तु बहुत बार ऐसा भी होता है कि दौलत और शोहरत सबकुछ भरपूर रहने पर भी इसे और-और पाने की ललक हबस बन जाती है। ऐसे में अपनी कुदरती सीमा को लाँघ कर नशे की सीमा में घुसपैठ कर लेती है और इन्सान हैवानियत की हदें भी पार कर जाता है। दौलत-शोहरत का एडिक्ट बन जाता है।

सत्तर के दशक में एक हिम्मतवर फिल्मनायक ने अपनी प्यारी फिल्म में जानी-मानी तारिका का स्वीमिंग सीन या कहें बाथिंग सीन या कहें- उस जमाने का हॉटेस्ट सीन शूट किया था, तो भयंकर चर्चा का विषय बन गया था। सेंसरशिप की धारदार कैंची से बामुश्किल बचाया गया था उस सीन को और उस सीन ने ही उस जमाने के साधु किस्म दर्शकों को भी खींच लाया था सिनेमाहॉल तक। हालाँकि अब के फिल्मनिदेशक तो कुछ भी कसर नहीं छोड़ना चाहते। लवस्टोरी का तब तक पटाक्षेप ही नहीं होता, जब तक डाइरेक्ट किसिंग और कम्प्लीट वेड सीन शूट न हो जाए। निदेशक और हीरो को तो अच्छा लगता ही है ये सब, हीरोइनें भी कम उतावली नहीं रहती ऐसी शूटिंग के लिए। सीने पर हाथ रखकर कसम खाकर कोई तारिका दावा नहीं कर सकती कि उसे कास्टिंगकाउच से गुजरना नहीं पड़ा है। हालाँकि कस्मे-वादों का कोई मोल नहीं रह गया है- दौलत-शोहरत के आगे। खुले मन से स्वीकारें या न स्वीकारें, किन्तु कड़वा सच यही है कि अश्मत-आबरु लुटाये बिना हीरोइन बनना नामुमकिन है। सोचने वाली बात तो ये है कि सबकुछ जान कर भी, अनजान बनी युवतियाँ फिल्मीस्तान में पैर जमाने को हमेशा बेताब क्यों रहती हैं ! इतना ही नहीं, इस रंगीन दुनिया से बाहर वाले भी फिल्मी दुनिया का वीज़ा पाने को बेताब रहते हैं।

इस ललक और बेताबी ने ही पॉर्न साइटों को जन्म दिया और फलने-फूलने में पुरजोर मदद की। मजे की बात ये है कि किसी देश की कुल GDP जैसी आमदनी होती है इन साइटों को। यही कारण है कि लाख नहीं,  करोड़ों की संख्या में पॉर्नसाइट भरे पड़े हैं इन्टरनेटी दुनिया में।

हम सब कुछ पश्चिम के हिसाब से ही तय करने में गौरव महसूस करते हैं— प्रेम और नफ़रत भी। बलात्कार और दुष्कर्म को भी उधर वाले चश्मे से ही देखते हैं। नशे और व्यभिचार में आकंठ डूबा पश्चिम, इस गोल्डकोटेड शोहरती मर्ज़ को हमारे यहाँ तक पहुँचाने में पूरा-पूरा कामयाब हुआ है।

भगतजी की ननस्टॉप बातें यहाँ आकर जरा विश्राम मोड में ज्यूँ ही गयी कि मुझे कुछ कहने का मौका मिल गया— क्या बात है भगतजी! आज किस टॉपिक पर मन्थन चल रहा है?

गिरगिट की तरह मुंडी हिलाते हुए भगतजी ने कहा— मन्थन-वन्थन क्या खाक चलेगा। सुबह-सुबह ही मिज़ाज़ किरकिरा हो गया खबरें सुनकर। अभी-अभी ताज़ी-ताजी खबर है कि फिल्मीस्तानी दुनिया की एक चमचमाती तारिका के पति के काले कारनामों की सफेद किस्म फाइल कानून के हाथ लग गयी है। लम्बे समय से बेचारे कम्बल ओढ़कर घी पी रहे थे। रसीली बीबी की कमाई से पेट नहीं भरा, तो अश्लील वीडिओ शूट करने लगे। ज़ाहिर है कि पॉर्न फिल्में बनाने में खर्चे बहुत कम आते हैं और मुनाफा बेहिसाब है। इसी बेहिसाबी मुनाफे की ललक ने करोड़पति से अरबपति बनने का ख्वाब दिखाया। मजे की बात है कि जिस कम्पनी के तहत ये काम चल रहा था, वो अपने देश में निबन्धित न होकर उसी पश्चिमी गटर में रिजिस्टर्ड था, ताकि देश के कायदे-कानून की आँच आसानी से वहाँ तक न पहुँच सके। दरअसल हमारे देश के कायदे-कानून में काफी चोरदरवाजे हैं, जिससे निकल भागने का सुनहरा मौका अक्सर मिल ही जाता है लोगों को। बड़े-बड़े अपराधियों का मनोबल इसीलिए बढ़ा रहता है। कुकर्मियों को भलीभाँति मालूम है कि चाँदी की जूती और वोट के ठप्पे से सब कुछ सलट जाता है यहाँ। थोड़ी कसर जो रहती है, उसे काले कोट, सफेद टाई वाले बखूबी पूरा कर देते हैं। दरअसल गांधीजी वाली तस्वीर भला किसे नहीं भाती! अभी पिछली बार ही तो मायानगरी में भूचाल आया था एक उभरते बिहारी होनहार हीरो की हत्या को लेकर। हत्या का तार ड्रगडॉनों से जुड़ा हुआ था। तफ़तीश जारी हुआ तो अच्छे-अच्छे सफेदपोशों की कलई खुलने लगी। पता चला की पूरी की पूरी मायानगरी ही गटर में नाक डुबोये हुए है। सोचने वाली बात है कि हस्तिनापुर के राजसिंहासन के सहयोग के बिना ही ये सबकुछ चल रहा है!  आम आदमी बाहरी रंगीनियों से चकाचौंध रहती है। भीतर के अन्धेरे का कुछखास पता नहीं होता। नतीजन, मुल्क के घुन, कीड़े-मकोड़े, जोंक और मगरमच्छों को नायक-महानायक माने बैठी रहती है जनता। इत्तफ़ाकन रंगीन पर्दे के पीछे का भयानक अन्धकार नज़र आया तो पल भर के लिए लगा कि सबकुछ अब बिलकुल बदल जायेगा। लिज़लिजाती मयानगरी का कायाकल्प हो जायेगा। अन्धभक्त फॉलोअर और सामान्य जनता ने भी काफी दिलचश्पी दिखायी बम्बईया गटर की सफाई में। मीडिया ने खूब टी.आर.पी. बटोरा। किन्तु थोड़े ही दिनों में सब टांय-टांय-फिश्स हो गया। चहकते तोते ने चुप्पी साध ली। ई.डी.बी.ड़ी.सी.डी. सारी जाँच एजेन्सियाँ अपने पुराने ट्यून में आ गयी। नतीजन, कूड़े और कूड़ेदान दोनों का महिमामण्डन होने लगा। ड्राईक्लीन्ड कोट झाड़ते कलंकी एक-एक कर बाहर होते चले गए कानूनी कालकोठरी से और काली करतूतों की कारगुजारी पहले की भाँति ही चलती रही।  

भगतजी की बातें अभी और चलती, किन्तु मैंने बीच में ही टोका— आँखिर उपाय क्या है भगतजी ! इस बजबजाते गटर की सफाई कैसे होगी, कौन करेगा? सरकार की अपनी समस्यायें हैं। काम करने का अपना तरीका है। फिल्मीजगत से अच्छा खासा टैक्स आता है। भीतरी पूजा-प्रसाद भी मिलते ही रहता है। जरुरत के मुताबिक गले की तरावट और विस्तर की गरमाहट की व्यवस्था हो ही जाती है। ऐसे में भला कौन पड़ने जाए इस साफ-सफाई में हाथ गन्दा करने ! हमारी संस्कृति को बरबाद करने में फिल्मजगत का बहुत बड़ा योगदान है। शुरु में स्वस्थ मनोरंजन, नाट्यकला का विकास, औद्योगिक विकास, रोजगार के अवसर आदि को मद्देनज़र रखते हुए लोगों का ध्यान इधर गया था। सच्चे समर्पित कलाकला-प्रेमियों के खून-पसीने से इन्डस्ट्री खड़ी की गयी थी तीस के दशक में। अच्छे-अच्छे कथानकों पर अच्छी-अच्छी फिल्में बनी थी। किन्तु साठ-पैंसठ आते-आते कला की कली मुरझाने लगी। रातों-रात करोड़पति बनने के अन्दाज में रातों-रात कलाकार बनने की होड़ लग गयी। और फिर एक से एक बेसुरे तानपूरे बजने लगे। घोड़े, गधे, सूअर, कुकुर खानदानी जमात के साथ कलाकार बन गए। पॉप-रॉक-शॉक का जमाना आ गया। संसद-परिषद के चालू सत्रों में राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार करने के वजाय, बेशर्मी पूर्वक पॉर्नवीडिओ देखे जाने लगे। सिंहासनों पर सिंहों की संख्या इनी-गिनी रह गयी । सूअरों का मज़मा लग गया।

ऐसे में गटर की सफाई कैसे सम्भव है? नामुमकिन भले न हो, कठिन तो जरुर है।

 

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