अष्टादश महापुराण :: तत्त्व और क्रम

       ।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नमः।।

      अष्टादश महापुराण :: तत्त्व और क्रम

 

विस्तराय तु लोकानां स्वयं नारायणः प्रभुः।

व्यास रुपेण कृतवान् पुराणानि महीतले।। ( वेदों के अर्थ को विशद रुप से समझाने हेतु स्वयं भगवान नारायण ने ही व्यास रुप में भूतल पर अवतरित होकर पुराणों की रचना की)— ये वाक्य ही पुराणों के परिचय और उद्देश्य हेतु पर्याप्त है।

इसी आलोक में आगे विचार करने पर पाते हैं— इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति।। (महाभारत) एवं   पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः तथाच यस्मात् पुरा ह्यनितीदं पुराणं तेन तत् स्मृतम् । निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते।। (मत्स्यपुराण-५३-७१, वायुपुराण--२०) पुराण तो इतिहासों का इतिहास है। इतिहास शब्द की निरुक्ति है—इति ह + आस। इतिह का अर्थ होता है—परम्परा-प्राप्त कथा।  

वेद (ज्ञान) का विस्तरण है। पुरातन काल का विवरण है। पुराणों में पृथ्वी के किसी खण्ड विशेष अथवा सिर्फ पृथ्वी का ही वर्णन नहीं है अपितु विश्व-ब्रह्माण्ड का समग्र इतिहास सुरक्षित है। सत्य की सनातन निधि—वेदों में प्रतिपादित आध्यात्मिक तत्त्वों का विस्तार, पुष्टि, दृष्टान्त-प्रमाण के साथ सर्वसाधारण में प्रचारित करना—इत्यादि लोककल्याणार्थ अनेक उद्देश्य हैं पुराणकार के।

पुराण नाम की उक्त निरुक्ति को जो सम्यक् रुप से जान लेता है, वो सर्वविध पापों से मुक्त हो जाता है...। पद्मपुराण सृष्टिखण्ड .४५ में ऋषि कहते हैं—पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृत्म् ।। — भगवान नारायण से अपौरुषेय वेदों का ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम पुराणों का ही स्मरण किया।

ज्ञातव्य है कि मूलतः पुराण सौकरोड़ यानी एक अरब श्लोकों वाला है, जो भूलोक को छोड़कर अन्यान्य लोकों में यथावत है। यहाँ भूलोक में कालवसात क्रमशः क्षीण स्मृतिवश श्रीकृष्णद्वैपायनव्यास जी ने द्वापर-कलि के संध्याकाल में अति संक्षिप्त रुप में संकलित किया। इस अति संक्षिप्त पुराण संकलन में भी चार लाख श्लोक संग्रहित हैं।

इस पुराण-प्रशस्ति से जिज्ञाशा होती है कि पुराण मूलतः है क्या? तदुत्तर में ऋषि कहते हैं— सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणं ।। (वायुपुराण- -२०१) पुराणों के ये पंच लक्षण किंचित शब्द भेद से ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, विष्णु आदि लगभग सभी पुराणों में मिल जाते हैं। .सर्ग—सृष्टि, .प्रतिसर्ग— सृष्टि विस्तार, लय व पुनर्सृष्टि, .सृष्टिगत वंशावली, .मन्वन्तर वर्णन, .सूर्य-चन्द्रादि वंशानुचरित। किन्तु सच्चाई ये है कि इन पंचलक्षणों के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है पुराणों में। गहन विचार करने पर स्पष्ट होता है कि उक्त पञ्च विषय निरुपण की प्रधानता लक्षित होते हुए भी पुराणों का प्रतिपाद्य विषय सृष्टिविज्ञान अथवा सृष्टिविद्या ही है, शेष चार तो सहज उपोद्घात् मात्र हैं।

हमारी मान्यता रही है कि सृष्टि में सब कुछ चक्रिय है। तदनुसार सृष्टि के समस्त व्यापार की पुनरावृत्ति होती रहती है। ध्यातव्य है कि सृष्टि आनादि-अनन्त  है। अव्यक्त प्रकृत्ति से जगत् की उत्पत्ति होती है। स्वाभाविक है कि कालवसात उसका लय भी होता है और पुनः सृजन भी। सृष्टि-स्थिति-संहार का ये क्रम अनवरत चलते रहता है। पुनः ध्यातव्य है प्रत्येक आवृत्ति में मूल घटनायें लगभग समान ही होती हैं। फिर भी परिवर्तन का भी प्रचुर समावेश होता है। इन्हीं परिवर्तनों को सृष्टिचक्र में मन्वन्तर-भेद कहा गया है।

विषय-विभाग के अनुसार पुराणों की संख्या अठारह हुई, किन्तु इतने पर भी सारे विषयों का समावेश नहीं हो सका, अतः तद्स्पष्टी हेतु सनत्कुमार, नृसिंह, गणेश, सूर्य आदि अठारह उपपुराण भी ग्रथित हुए। मनोरंजक आख्यानों-उपाख्यानों के रुप में पाठक को बाँध लेना पुराणों की अद्भुत विशेषता है। वर्णन-शैली इतनी रहस्यमयी है कि उनके एकाधिक अर्थ भी दिखायी देते हैं, जो नासमझ आधुनिकों के भ्रम का कारण बनता है।

अब सृष्टिविद्या के मूल प्रसंग पर आते हैं ताकि पुराणों का क्रम स्पष्ट हो सके। महापुराणों की संख्या अठारह कही गयी है—

‘म’ द्वयं ‘भ’ द्वयं चैव ‘ब’ त्रयं ‘व’ चतुष्टयं ।

‘अ’ ‘ना’ ‘प’ ‘लिं’ ‘ग’ ‘कू’ ‘स्का’ नि पुराणि पृथक-पृथक।।

यानि म से दो- मत्स्य, मारकण्डेय, भ से दो- भविष्य, भागवत, ब से तीन-ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, व से चार- विष्णु, वामन, वाराह, वायु तथा अ- अग्नि, ना- नारद, प-पद्म, लिं-लिंग, कू-कूर्म, स्क-स्कन्द —ये कुल अठारह महापुराण हैं। ध्यातव्य है कि भागवत दो हैं- श्रीमद्भागवत और देवीभागवत। वैष्णव मतावलम्बी श्रीमद्भागवत को महापुराण मानते हैं और शाक्त मतावलम्बी देवीभागवत को। किन्तु महत्वपूर्ण बात ये है कि इन दोनों का वर्ण्यविषय परात्परब्रह्म श्रीकृष्ण ही हैं। उक्त अठारह के अतिरिक्त जो पुराण हैं, उपपुराण कहे गये हैं।

            ध्यातव्य है कि पुराणों का एक सुनिश्चित क्रम है। ऐसा नहीं है कि हम मनमाने ढंग से किसी पुराण को कहीं रख दें। वस्तुतः सृष्टिविद्या रुपी महाग्रन्थ के ये अठारह अध्याय हैं। विषयवस्तुक्रम से जैसे किसी पुस्तक के अध्यायों का क्रम सुनिश्चित होता है, वैसे ही अठारह पुराण हैं। सृष्टिविद्या को आत्मसात करने के क्रम में स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा के पड़ाव हैं ये अठारह पुराण। कार्य से कारण की ओर गमन का विवरण है इन पुराणों में।

            यहाँ पहले इन्हें क्रम से रख लें, फिर समझने की चेष्टा करें। सृष्टिविद्या के नियमानुसार इसका क्रम इस प्रकार बनता है—

. ब्रह्मपुराण,.पद्मपुराण,.विष्णुपुराण,.वायु(अथवा शिव)पुराण, .भागवतपुराण, .नारदपुराण, .मार्कण्डेयपुराण, .अग्निपुराण, . भविष्यपुराण, १०.ब्रह्मवैवर्तपुराण, ११.लिङ्गपुराण,१२.वाराहपुराण, १३.स्कन्दपुराण,१४.वामनपुराण,१५.कूर्मपुराण,१६.मत्स्यपुराण, १७. गरुड़पुराण, १८.ब्रह्माण्डपुराण।

१.        स्थावर-जांगम जगत के निर्माता ब्रह्मा के मूल तत्त्व का प्रसंग है प्रथम यानी ब्रह्मपुराण में।

२.        बह्मा की उत्पत्ति का स्रोत – नाभिकमल। इस नाभिपद्म का निरुपण ही मुख्य विषय है पद्मपुराण का।

३.        पद्म का उद्भव स्थान हैं भगवान विष्णु। इनसे परिचय कराता है तीसरा पुराण- विष्णुपुराण।

४.        विष्णु का आधार (शयनस्थान) हैं शेषनाग। शेष कहते हैं वायु को। चतुर्थ यानी वायुपुराण में इसी का निरुपण है।

५.        शेषनाग का स्थान है सरस्वान्(क्षीरसागर)। सरस्वतम् इदं सारस्वतम्। इस प्रकार सारस्वत यानी भागवत हुआ पंचम पुराण।

६.        परमेष्ठिमण्डल आपोमय है, इसीलिए क्षीरसागर कहा गया। आप यानी नर (स्वयंभू) । नरोत्पन्न होने से नार हुआ। नार को देनेवाला हुआ—नारद। इस प्रकार नारदपुराण छठे क्रम में है।

७.        उक्त षटक में सृष्टिक्रम निरुपित हुआ। जिज्ञासावश इसके मूलतत्त्व पर विचार जाता है। इस मूलतत्त्व- प्राकृतवाद का प्रदर्शन हुआ है सप्तम यानी मार्कण्डेयपुराण में।

८.        मतान्तर से मूलतत्व अग्नि को माना जाता है, अतः अगला क्रम है अग्निपुराण का।

९.        पुनः मतान्तर से सौरप्राण को मूलतत्व स्वीकारते हैं,फलतः नवम क्रम में भविष्यपुराण इसका विश्लेषण करता है।

१०.   उक्त तीन विप्रतिपत्तियाँ दिखाकर, दशम— ब्रह्मवैवर्तपुराण में पुनः ब्रह्मस्वरुप का विवर्तन किया गया है, अर्थात् मूलतत्त्व तो ब्रह्म ही हैं, उसका अतात्त्विक अन्यथाभाव ही सृष्टि है। ये ब्रह्म मन और वाक् से परे है। जो कुछ भी सृष्टि प्रतीत होती है, वह सब परब्रह्म का अवतार ही है। उसी अवतार के द्वारा परब्रह्म उपास्य होता है। अतः

११.   से १६. पर्यन्त छः पुराण क्रमशः— लिंग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म और मत्स्य अवतार प्रतिपादक हैं।

(ध्यातव्य है कि इनमें लिंग और स्कन्द ये दो भगवान शंकर के अवतार कहे गए हैं एवं वाराह, वामन, कूर्म और मत्स्य भगवान विष्णु के अवतार। पुनः यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि शिव और विष्णु में तात्विक अभेद है। )

१७. सृष्टिचक्र में घूमने वाले जीवों की किस कर्म के अनुसार क्या- क्या गति होती है—इस आवति- सृष्टि का परिणाम (जीवों का कर्मफलभोग प्रयोजन) विषय का वर्णन है गरुड़पुराण में।

१८. इस गति का आवतन क्या है या कहें—सृज्यमान वस्तु की सीमा कितनी है, इसका निरुपण हुआ है अन्तिम रुप से अठारहवें यानी ब्रह्माण्डपुराण में।

     इस प्रकार ब्रह्म से ब्रह्माण्ड तक की यात्रा पूरी होती है और सृष्टिविज्ञान की पूर्णता भी सिद्ध हो जाती है। यजज्ञात्वा नेह भूयोन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते इससे आगे और कुछ जानने को शेष ही नहीं रह जाता।

हालाँकि विदेशी चश्मे से पुराणों का अध्ययन करने पर अनेक त्रुटियाँ दृष्टिगत होती हैं। एक ही प्रसंग की पुनरावृत्ति, कथाक्रम भेद, समान कथ्य का भिन्न-भिन्न स्वरुप इत्यादि। कहनेवालों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि पुराण चंडूखाने के गप्प के सिवा कुछ और नहीं। विदेशियों की कुत्थित टिप्पणियों से प्रभावित भारतीय परमुखापेक्षी तथाकथित विद्वान भी बिना स्वयं जाँच-परख के इसी निर्णय पर पहुँच गए। किन्तु सौभाग्य की बात है कि इतने के पश्चात् भी पुराणों का आदर हमारे यहाँ कम नहीं हुआ।  हमें चाहिए कि पूर्वाग्रह रहित होकर, औरों की टीका-टिप्पणियों पर आँख मूंद कर भरोसा न करके स्वयं की बुद्धि-विवेक का प्रयोग करते हुए पुराणों का अध्ययन-मनन करें, ताकि सनातन धर्म को सम्यक् रुप से आत्मसात कर सकें। इहलोकीय सुखोपभोग के साथ-साथ परलोक या कि परब्रह्म की साधना भी सम्पन्न हो सके। अस्तु ।।  

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