यज्ञ :: सनातन धर्म का प्राण

 




                      यज्ञ :: सनातन धर्म का प्राण

 

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

      परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। (गीता-३-११)

श्रीकृष्ण कहते हैं—देवताओं को उन्नत करो। वे तुमलोगों को उन्नत करें। परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए परम कल्याण को प्राप्त हो जाओ।

प्रश्न उठता है कि कैसे? उत्तर सीधा सा है—शास्त्र-विहित यज्ञानुष्ठान से। क्योंकि शास्त्र कहते हैं— नास्ति यज्ञसमो मित्रः, नास्ति यज्ञसमो रिपुः।

किन्तु ये जरा चौंकाने वाली बात है— यज्ञ के समान मित्र नहीं और यज्ञ के समान शत्रु भी नहीं—क्या मतलब?

ये जरा समझने वाली बात है— यज्ञ के द्वारा यदि हम देवताओं को प्रसन्न करते हैं, तो परिणाम मित्रवत प्राप्त होता है। तो फिर यज्ञ शत्रु कैसे हो सकता है?

वस्तुतः यज्ञ शत्रु नहीं होता, प्रत्युत याज्ञिक क्रियाओं में त्रुटि विपरीत फलदायी हो जाता है। धारदार चाकू यदि सब्जी को शीघ्र काट सकता है, तो जरा सी असावधानी से अँगुली भी कट सकती है।

यज्ञ तो वैदिक वा सनातन धर्म का प्राण है। सृष्टि संरचना तपयज्ञ से प्रारम्भ हुयी। नाभिकमलोद्भव पितामह ब्रह्मा ने तप द्वारा ही बौद्धिकशक्ति प्राप्त की। उन्हें अपना कर्त्तव्यबोध तपयज्ञ से ही हुआ।

 

प्राणिमात्र सृष्टि के अंग हैं। मनुष्ययोनि उत्कृष्टतम सर्जना है। यूँ तो प्राणीमात्र मुक्ति का अधिकारी है, किन्तु मुक्ति की स्थिति और सुविधा या कहें पूर्ण अधिकार सिर्फ इसे ही प्राप्त है। यही एकमात्र कर्मयोनि है, चौरासी लाख योनियों में। शेष तो मात्र भोग योनियाँ हैं। देव, दानव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व सबके सब भोग योनियाँ ही हैं। स्वर्ग-नरक भोगस्थल के सिवा कुछ और नहीं।

हथकड़ी सोने की हो तो हम उसे आभूषण मान बैठते हैं और लोहे की हो तो सजा का प्रतीक बन जाता है। किन्तु सच्चाई ये है कि दोनों बन्धन ही देने वाले हैं। दोनों हमारे ही कर्मों के परिणाम हैं। स्वर्ग सोने की हथकड़ी है, तो नरक लोहे वाली। इसीलिए बुद्धिमान लोग कर्मफल में स्पृहा नहीं रखते—नास्ति कर्मफलेस्पृहा। क्योंकि फलेस्पृहा ही भोग रुपी बन्धन में जकड़ती है। स्वर्ग की कामना भी एक प्रकार का बन्धन ही है। अन्ततः है तो कामना ही न ! पुण्यफल जिस दिन समाप्त हो जायेंगे, उसी दिन स्वर्ग से पतन हो जायेगा। पापफल का हिसाब जिस दिन चुकता हो जायेगा, नरक से निकल जायेंगे। किन्तु आवागमन का ये दुष्चक्र सदा चलता ही रहेगा, जबतक मुक्ति नहीं मिलेगी।

 

विचारणीय ये है कि यज्ञ हम करते कैसे हैं और किस उद्देश्य से करते हैं—लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए देवताओं को प्रसन्न करते हैं या स्वर्ग-सुखादि कामना से? या इन दोनों से भिन्न कोई और उद्देश्य होता है!

ध्यातव्य है कि देवता सांसारिक सुख-संसाधन भले दे दें, स्वर्ग तक पहुँचा दें, किन्तु मोक्ष उनके वश की बात नहीं है। उसके लिए हमें निष्काम होना होगा। पुण्य-पाप दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय करना होगा।

निष्काम होने का एक बहुत अच्छा तरीका है—सर्वस्व स्वाहा कर देना—यज्ञकुण्ड में समर्पित कर देना।

किन्तु ये उतना आसान नहीं है।

 

श्रीमद्भगवत्गीता में कई तरह के यज्ञों की बात की गयी है। गीता का मनन-चिन्तन करके इसे ठीक से समझने और पालन करने की आवश्यकता है।  

यज्ञार्थात्कर्मणोन्यत्र लोकोयं कर्मबन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ।। (गीता -) यहाँ अन्यत्रकर्म का आशय है, स्वयं के लिए कर्म करना, स्वार्थ परक कर्म करना। अतः जो कुछ भी है—धन, सम्पदा, अन्न, जल, वायु, यहाँ तक कि शरीर भी—जिसका है, उसे ही लौटा दो। संसार की वस्तु संसार को ही समर्पित कर दो, उसकी सेवा में लगा दो, मुक्ति का मार्ग स्वतः मिल जायेगा। यही कारण है कि कुछ सम्प्रदायों ने निष्काम सेवा को ही सर्वोत्तम यज्ञ माना है। सेवा तो नर्स भी करती है और माँ भी। इन दोनों की सेवाओं में जो अन्तर है—उसे समझने की जरुरत है।

 

आधुनिक जीवनशैली में पगे लोग तर्क देते हैं कि दुनिया में लाखों लोग कुपोषित हैं। भूखे मर रहे हैं। ऐसे में अन्नादि पदार्थों को आग में झोंकना कौन सी बुद्धिमानी है। लाखों बच्चों को जरुरत भर दूध नहीं मिलता और लाखों लीटर दूध हम रुद्राभिषेक करके बहा देते हैं...।

ऐसे नासमझों को यज्ञ का विज्ञान समझाना बहुत कठिन है। स्वयं को ताकतवर बनाये रखने में करोड़ों-अरबों लगा देते हैं। विश्व में तरह-तरह के घातक हथियारों पर पानी की तरह धन बहाये जा रहे हैं। वे सांयन्सवादी हथियारों पर खर्च न करके, कुपोषण और भूखमरी या कि रोग-बीमारी पर खर्च करते तो क्या मानवता का कल्याण नहीं होता? घातक कार्बन उत्सर्जन से पृथ्वी का पर्यावरण संतुलन दिनों दिन बिगड़ता जा रहा है।

सच पूछें तो हम संसार का दोहन कर रहे हैं। प्रकृति-प्राप्त संसाधनों का दुरुपयोग कर रहे हैं। जिसका घातक परिणाम हम सबको भुगतना पड़ रहा है। विकास के नाम पर सांयन्स की अँधी दौड़ एक दिन सबकुछ नष्ट करके छोड़ेगी।

हालाँकि नष्ट तो होना ही है संसार को, किन्तु गलत तरीके से, गलत दिशा में यात्रा जारी है। इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। सांयन्सवादी यज्ञकुण्ड से निकले धुँए और कल-कारखानों की चिमनियों से निकले धुँए को एक समान सिद्ध करने पर तुले हैं—यही मूर्खतापूर्ण सोच है।

 

यज्ञ सृष्टि का प्राण है। इसे सही विधि से सही समय पर सम्पन्न करने की आवश्यकता है। तभी सही दिशा में लाभ होगा, अन्यथा नास्ति यज्ञसमो रिपुः की स्थिति चरितार्थ होगी। वर्तमान समय में एक वर्ग ऐसा है जो यज्ञों का घोर विरोध कर रहा है, तो वहीं दूसरा एक वर्ग ऐसा भी है जो यज्ञ को रोजगार बना लिया है।  

संसाधन सुलभ हो जाने के कारण, आये दिन कहीं न कहीं यज्ञों के आयोजन होते रहते हैं। प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि घोर कलिकाल में भी धर्म-ध्वज इतने शान से लहरा रहा है। श्रद्धावान भक्तों की भीड़ है चहुँ ओर।

किन्तु ध्यान से देखें तो पता चलेगा—मन्त्रहीनं क्रिया हीनं विधि हीनं विशिष्यते...की स्थिति है। देखादेखी की बीमारी लग गयी है लोगों को। हम क्या कर रहे हैं— विचार गौण है। मुख्य है कि और लोग कर रहे हैं, तो हम क्यों न करें।

धर्मभीरु भोली जनता को बहला-फुसलाकर, मिथ्या आडम्बर दिखाकर, ठगने का उपाय बन गया है—यज्ञानुष्ठान। इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण ने भी स्पष्ट संकेत किया है—अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपोजनाः। दम्भाहंकार संयुक्ताः कामरागबलान्विताः।। (गीता १७-)  कलिकाल में लोग शास्त्र भी मनमाने ढंग से गढ़ लेंगे। दम्भ और अहंकार के वशीभूत तीर्थाटन और यज्ञादि कर्म होने लगेंगे।

शत-सहस्र यज्ञों में शायद ही कोई एक सात्त्विक यज्ञ होता होगा आज के समय में। राजस यज्ञ भी विरले ही देखने को मिलता है। जो भी होता है—विशुद्ध तामसी यज्ञ। ऐसे यज्ञों में सजावट बहुल आडम्बर तो खूब होते हैं, किन्तु द्रव्यशुद्धि , क्रियाशुद्धि, भावशुद्धि नगण्य होती है।   

अतः हमें ऐसे तामसी यज्ञों से बहुत सावधानी पूर्वक बचने की आवश्यकता है। सावधानी इसलिए कि त्रिगुणात्क भेद समझने में थोड़ी कठिनाई है। आडम्बर हमें खींच ले जाते हैं। तथाकथित बाबाओं की लच्छेदार वाक्जाल में हम सहज ही फँस जाते हैं। लकदक चोला, चीवर, चिमटा, लम्बी दाढ़ी और भस्मीभूत काया—योग्य आचार्य होने का प्रमाणपत्र नहीं है।  

ध्यान रहे—योग्य आचार्य द्वारा सम्पन्न यज्ञ ही हमारा या कि विश्व का कल्याण कर सकेगा, अन्यथा बाबाओं का कल्याण तो हो ही रहा है— जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः, काषायाम्बर बहुकृतवेषः। पश्यन्नपि न च पश्यति मूढ़ः उदर निमित्तं बहुकृतवेषः।। अस्तु।

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