वन्देमातरम्-वन्देमातरम्-वन्देमातरम्


असली
आजादी मिली कहाँ है?

हाथ में  रोल किया हुआ तिरंगा लिए भुलेटनभगत को अपने घर की ओर जाते हुए देखा। उत्सुकता हुयी, कुछ जानने की। अतः लपक कर उनकी ओर बढ़ चला। पास पहुँचने पर राम-सलाम का मौका भी न दिया भगतजी ने और शुरु हो गए, एकदम से भविष्य-द्रष्टा वाले अंदाज में।

यही जानने के लिए लपके चले आ रहे हो न कि अभी तो कई दिन बाकी हैं स्वतन्त्रता दिवस के और मैं आज ही ये तिरंगा क्यों खरीदे जा रहा हूँ ? हो सकता है ये सवाल भी उठ रहा हो तुम्हारे फितूली दिमाग में कि झंडे की तरह ही जलेबी भी चार दिन पहले ही खरीद लाऊँगा क्या... ।

सच में भगतजी ने मेरे दोनों विचारों को एकदम से पुलिसिया अन्दाज में पकड़ लिया और साफ-सफाई का मौका दिये वगैर, आगे शुरु हो गए —   मुंडेर पर तिरंगा लहराकर ही थोड़ी तुष्टि मिलती है और कुछ-कुछ अहसास होता है कि हम आजाद हो चुके हैं, क्योंकि फिरंगियों के राज में तो ऐसा करना नामुमकिन था। आम आदमी तिरंगा लहरा कर या लहराता हुआ तिरंगा देख कर और हो सका तो जलेबियाँ खाकर ही सन्तोष करता है, क्योंकि जलेबी और तिरंगे का चोली-दामन वाला सम्बन्ध है। भिनभिनाती मक्खियों वाली जलेबी भी मुंहमांगे दाम पर बिक जाती है उस दिन और यही हाल तिरंगे का भी होता है। पिछले साल ही शहर छान मारा, मनमाफिक खादी का तिरंगा मिला नहीं कहीं। अब तो यूज एन थ्रो वाला सस्ते कागज और प्लास्टिक के तिरंगे मिलने लगे हैं। सुबह-सुबह तिरंगा बेचने वालों के शोर से नींद खुलेगी उस दिन और शाम होते-होते देखोगे कि ज्यादातर तिरंगे सड़कों-गलियों-नालियों की शोभा बढ़ा रहे होते हैं। खादी का महंगा तिरंगा खरीदना, शान से फहराना और शाम होने पर इज्जत के साथ उतार कर सुरक्षित रख देना, सबके बस की बात नहीं। तिरंगा फहरा लेना और तिरंगे की इज्जत करना—दोनों बिलकुल अलग बातें हैं। जिसे राष्ट्र की ही परवाह नहीं, वो भला राष्ट्रध्वज की क्या कदर जाने ! जो आदमी देश की शान्ति-सुरक्षा, प्रेम-सौहार्द्र, भाईचारे की परवाह नहीं करता, वो भला सूतों और रंगों की क्या परवाह करेगा ! हाँ, नोटों और वोटों की परवाह जरुर रहती है।  और जब वोट बटोरने में ही नियत की खोट हो, तो उसकी चोट तो जनता को सहनी ही पड़ेगी न ! क्योंकि लोकतन्त्र है। व्यावहारिक तल पर प्रजातन्त्र, मूर्खतन्त्र, भेड़तन्त्र... तुम कुछ भी कह लो । लोकतन्त्र का कागजी ठप्पा लगाकर, सरकारी स्कूलों में बँटने वाले मिड डे मिल  की तरह, अबसे पचहत्तर वर्ष पहले मिड नाइट बिल पर दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हुए थे और जस्ट लाईक  ट्रान्सफर ऑफ पावर ऑफ एटर्नी वाले अन्दाज में आजादी का सहमा-सहमा सा बिगुल बजा था—ताऊ-चाचाओं की शागिर्दगी में, क्योंकि बाप उस जश्न में शामिल न था। और शामिल इसलिए नहीं था, क्योंकि उससे लहुलुहान भारत माता की कटी बाहों का दर्द देखा वा झेला न जा रहा था। फिर भी देखने-झेलने को मजबूर था, इसीलिए राजधानी दिल्ली से भागकर, सुदूर पूर्वांचल के दौरे पर निकल पड़ा था। खैर, ये सब तो पुरानी बातें हो गयी, जिन्हें याद करके दुःख होता है । वैसा दुःख जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। भुलाना भी नहीं चाहिए किसी सपूत को। जश्न-ए-आज़ादी की बात सिर्फ इतनी ही है कि फिरंगी बड़े कायदे से कांटे-चम्मचों से खा रहे थे आहिस्ते-आहिस्ते, थोड़े सब्र के साथ और अब नोच-चोंथ कर खाया जा रहा है बेसब्र होकर, माँ के लहुलुहान जिश्म को तथाकथित अपने ही लोगों द्वारा। पवित्र संसद-भवन चुनिंदे गुंडे-शोहदों का खुला अखाड़ा बना हुआ है।  बत्तीश दांतों के बीच अकेली जीभ की तरह बिरले शरीफ बैठे हैं उस मन्दिर की मान-मर्यादा की रक्षा में। कितना बचा पायेंगे, ये तो समय ही बतलायेगा। किन्तु क्या हर नागरिक का ये कर्त्तव्य नहीं बनता कि इस विषय पर गम्भीरता से सोचे-विचारे और पहल करे? लेकिन एक बात ध्यान में रखने की है कि अब की जंग-ए-आज़ादी पिछली वाली लड़ाई से भी कहीं ज्यादा पेचीदी है। वो लड़ाई दूसरों के साथ थी। उनके साथ, जो प्रत्यक्ष रुप से हमारे शत्रु थे। किन्तु अब वाली लड़ाई उन दरिन्दों से है, जो अपना होने का लबादा ओढ़े हुए हैं। कौन राष्ट्र का सच्चा हितैशी है और कौन शत्रु —इस बात की बारीकी से पहचान करनी होगी, साथ ही राष्ट्रद्रोह और राजद्रोह  के अन्तर को समझना होगा। क्योंकि ज्यादातर लोगों को इन दोनों में फर्क ही नहीं मालूम। आज भी हम उन्हीं सड़े-गले कानूनों को आदर के साथ ढोए जा रहे हैं या कहें ढोने को विवश हैं, जो स्वतन्त्रता सेनानियों के गतिरोध के उद्देश्य से अंग्रेजों द्वारा बनाये गए थे; जो स्वार्थपूर्ण निष्कंटक शासन के लिए बनाये गए थे; जो लूट-खसोट के लिए बनाये गए थे...।

भगतजी की लम्बी व्याख्यान के बीच ही मुझे बोलना पड़ा— बात तो आप बिलकुल सही कह रहे हैं भगतजी !

भगतजी सिर हिलाते हुए बोले— मैं गलत कब कहता हूँ ! सुनने वाले को गलत लगे तो लगता रहे, उसकी परवाह भी नहीं मुझे।  राष्ट्रभक्ति और  राजभक्ति में फ़र्क ही नहीं लगता लोगों को, फिर दोनों द्रोहों में फ़र्क कैसे समझ आयेगा। जटिल प्रतिज्ञावद्ध पितामह भीष्म की तरह राजभक्ति के नशे में डूबे हुए हैं कुछ लोग और इस बात पर ध्यान ही नहीं कि हस्तिनापुर के लिए धृतराष्ट्र सदा घातक होता है। देवव्रत की पहली प्रतिज्ञा ने भीष्म बना दिया उन्हें, किन्तु दूसरी प्रतिज्ञा ने राष्ट्र को तहश-नहश कर दिया। राष्ट्र प्रसाद जैसी कोई चीज नहीं है, जिसे बाँट दिया जाये—जाति, धर्म, समुदायों में। राष्ट्र मुट्ठी में कैद करने वाली वस्तु भी नहीं है। राष्ट्र किसी की पुश्तैनी मिल्किय़त भी नहीं हो सकती कभी। किन्तु चिन्ता की बात ये है कि शकुनी मामा का भले ही अता-पता न हो, परन्तु अब के हस्तिनापुर पर खुली आँखों वाली गांधारी  की बक-दृष्टि है। वो व्याकुल है सत्तासीन होने के लिए या कहें राजगद्दी पर एक नये दुर्योधन का राज्याभिषेक करने के लिए। देख रहे हो न, संसद में रोज नयी-नयी नौटंकियाँ हो रही हैं। कोई भी सत्र कायदे से चल नहीं पाता। संसदीय कार्यों में सुनियोजित ढंग से गतिरोध उत्पन्न किया जाता है। करोड़ों-अरबों का नुकसान सांसदों द्वारा किया जाता है हर सत्र में। सांसदीय मर्यादाओं को तारतार किया जा रहा है। तथाकथित माननीयों द्वारा लहुलुहान भारतमाता का चीरहरण हो रहा है। मजे की बात तो ये है कि एक दुर्योधन, दुःशासन और शकुनी ने  सर्वनाश करा दिया था। यहाँ तो दुर्योधन, दुःशासन और शकुनियों की भरमार है। कोई पुरानी वाली टोपी में है, तो कोई न्यू ब्रांडेड टोपी में, कोई चौड़ी पाड़ की सफेद साड़ी में है, तो कोई बुर्के में, कोई जनेऊ पहनने-उतारने की कवायद करता है, तो किसी की नाक ही खानदानी टेढ़ी है, तो किसी को बत्तमीजी में ही पी.एच.डी. हासिल है। उड़े बाल वाले, घने बाल वाले, लम्बे बाल वाले, बॉककट बाल वाले—शिव के भूत-बैतालगणों की तरह तरह-तरह के रुप बनाये फिर रहे हैं—जनता को अपने-अपने अंदाज़ में लुभाने-फुसलाने-बहकाने के चक्कर में। स्वतन्त्रता की सिर्फ एक ही बात नज़र आती है—मनमानी, जिसे जो चाहे करे। हत्या, बलात्कार, तोड़-फोड़, आगजनी, सड़क जाम... जो कुछ करना हो भीड़ बन जाओ, पूरी छूट है सब कुछ करने की। और बेचारे प्रशासन की औकात कहाँ है इन सबको रोकने की ! वो तो राजकीय कर्मचारी है न। व्यस्त है राजनेताओं और उनकी परिवारों की रक्षा में। उधर से थोड़ा-बहुत जो समय बचता है, उसे उगाही करने में गुजार देता है। उगाहियाँ भी तरह-तरह की हैं—वालू वाली,पहाड़ों वाली, जंगलों वाली, कोयले वाली, ट्रान्सपोर्ट वाली। और अब तो एक नयी उगाही-ट्रेन्ड चल पड़ी है—कोरोना वाली...।

सच में भगतजी की व्यथा-कथा पर गम्भीरता से विचार करने की जरुरत  है। किन्तु रास्ता वस एक ही है—फिर से सिपाहीविद्रोह जैसी कोई कारवाई करने की जरुरत है। अद्यतन स्वतन्त्रता संग्राम का बिगुल फूँकने की जरुरत है। राष्ट्र-वृक्ष के लहलहाते तने-टहनियों में छिपे बैठे घुनों, दीमकों, कीड़े-मकोड़ों का, उस पर बैठे गिद्धों का, इर्द-गिर्द मड़राते गीदड़ों का जड़-मूल से सफाया करने की जरुरत है। किन्तु ये भी ध्यान रखने की जरुरत है कि लड़ाई पहले से कहीं ज्यादा संगीन होगी, क्योंकि वो दूसरों से थी और ये अपनों से है।

।।वन्देमातरम्।।


 

 

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