हक हिस्सा हकीकत

 

                               हक हिस्सा हकीकत

दरवाजे पर बने मिट्टी के चौकीनुमा चबूतरे पर पैर लटकाए, हाथ पर गाल टिकाये बैठे भुलेटनभगत चिन्तित से दीखे, जब मैं उनके यहाँ पहुँचा।  

क्या बात है भगतजी ! चल क्या रहा है— चिन्ता या चिन्तन?— राम-सलाम के बाद मेरे पूछने पर बड़े मायूस होकर कहने लगे — तुम जानते ही हो बबुआ कि जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है। बैलगाड़ी वाली दुनिया रॉकेट युग में पहुँच गयी है। धरती पर तीर्थ यात्रा पुरानी बात हो गयी। अब तो सीधे चाँद-सूरज की यात्रा के लिए टिकटें बुक होने लगी हैं। सांयन्स ने दुनिया को मुट्ठी में ला डाला है। यही कारण है कि हरकोई इसे अपनी-अपनी मुट्ठी में कैद करने की जुगत में है। मुट्ठी की हैशियत से ही दुनिया की मिल्कियत तय होनी है। मजे की बात ये है कि मुट्ठी की ऐक्चूअल साइज डिजिटल यूमइन-जूमआउट प्रोग्रामिंग पर डिपेन्ड है। ऐसी हालात में हक-हिस्सा-हकीकत पर जरा फिर से विचार जरुरी लग रहा है। अंटार्टिका के सघन बर्फीले भागों पर शक्तिमानों का झंडा गड़ने लगा है। पता नहीं अन्तरिक्ष के किस हिस्से पर कौन-कब अपना हक जता दे...।

हक-हिस्सा हमेशा से थोड़ा उलझन वाला विषय रहा है। हर युग में अपने-अपने अधिकार और अंश को लेकर टकराव होते रहे हैं। सतयुग का देवासुर संग्राम हो या त्रेता का राम-रावण युद्ध, द्वापर का महाभारत हो या  कलियुग का विश्वयुद्ध...। धर्म, धरती और सम्पत्ति ही झगड़े-टकराव के मुख्य कारण रहे हैं हमेशा । चुँकि पुरुष-शासित समाज स्त्री को भी सम्पत्ति ही माने बैठा है, इस कारण झगड़े-टकराव के मुख्य कारणों में स्त्री भी एक है। सीता-अपहरण और द्रौपदी-चीरहरण इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। कलिकाल में तो स्थिति और भी गहरा गयी है। अपहरण के मामले में औरतें सौफ्ट टार्गेट बनती हैं। उम्र, जाति, धर्म, रुप, रंग कुछ भी मायने नहीं रखता बलात्कार और उत्पीड़न के मामले में।  बस, स्त्रीलिंगी होना ही काफी है। दहेज की बलिवेदी पर स्त्री की ही आहूति पड़ती है। जमीन के छोटे से टुकड़े को लेकर लाशें बिछ जाती है। किसान के खेत का ईंच भर मेढ़ हो या पड़ोस की गली-नाली का मामला। राज्य वा देश की सीमा-विवाद का निपटारा तो कभी होता ही नहीं। गणतन्त्र कहे जाने वाले भारत में भी राज्यों का आपसी सीमा-विवाद अन्तर्राष्ट्रीय-सीमा-विवाद की तरह सदा गहराया ही रहता है। अपने ही लोग अपने ही लोगों पर इस कदर गोलियाँ बरसाते हैं, जैसे आतंकवादियों या कि दुश्मन देश के सैनिकों पर बहादुरी दिखा रहे हों। एक ओर हम वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करते हैं और दूसरी ओर पड़ोसी से भी रोज दिन उलझते रहते हैं।  बड़े-बड़े मंचों पर नारी सशक्तिकरण और स्त्रीविमर्श पर चर्चायें चलती हैं, किन्तु घर की औरत पर जताया जाने वाला हक उतना ही गहरा है आज भी, जितना पहले था। खुद पर अँकुश रत्ती भर भी मंजूर नहीं, किन्तु औरत पर हाथी वाला नुकीला अंकुश हमेशा तना रहता है। साक्षर, निरक्षर, नौकरीपेशा, घरेलू...कोई भी औरत हो पारिवारिक वा सामाजिक उत्पीड़न व हिंसा का शिकार होती है...।

भगतजी की लम्बी विचार-धारा में अपने सवाल की कंकड़ी मारी मैंने—आँखिर इसका समाधान क्या हो सकता है भगतजी?

यही तो सोचने वाली बात है बबुआ ! ” — सिर हिलाते हुए भगतजी ने कहा — सदियों-सदियों से चली आ रही ये सोच जब तक नहीं बदलेगी, तब तक कुछ नहीं होगा। मंचीय भाषणबाजी से सुधार की बयार कतई नहीं बह सकती और न बौद्धिक मलीनता की मोटी काई ही छंट सकती है। सरकारी योजनाओं से भी ज्यादा कुछ नहीं बदला जा सकता। आरक्षित सीटों के बदौलत जीत का बिगुल फूँक कर पार्षद-सांसद भले बना दें, किन्तु औरत की असली स्थिति में खास सुधार आने को नहीं है। हाँ, इतना अवश्य हो जा सकता है कि महिमामंडित नारी स्वयं को सशक्त समझने लगे और विषकुम्भपयोमुखं वाले पुरुष की इस चतुराई से बेफिक्र हो जाये । हक-हिस्सा की हकीकत यही है और शायद नारी की नियति भी।

मैंने टोका— किन्तु ऐसा भी तो हो सकता है भगतजी ! नारी अपना रम्भा रुप त्याग दे । सनातनी रमणी’ ‘रणचण्डी बन जाए। अधिकारों की भीख के लिए आँचल फैलाने के बजाये महाकाली वाली कटार उठा ले, जिसके सामने शिव भी शव की भाँति लेट जाने को विवश हों?

 

 

 

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