मेरी नयी लेखन योजना- खासकर शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के लिए--
श्रीगणेशाय
नमः
श्री भास्कराय नमः
पुरोवाक्
मगविभूति,
बिहार प्रदेश के गया मण्डलान्तर्गत महुआइन ग्राम वासी स्वनामधन्य पंडित श्री रामधन
पाठक जी किसी विशेष परिचय के अवलम्बी नहीं हैं, फिर भी नयी पीढ़ी को, जिसे
भूलने-भुलाने की लत है, कुछ तो बतलाना ही पड़ेगा।
बड़े
दुःख और चिन्ता की बात है कि मुगलों और अंग्रेजों का झूठा-सच्चा इतिहास तो हम रट्टामार
लेते हैं, किन्तु अपने कुल-समाज के गौरवशाली इतिवृत्त के बारे में कुछ भी जानना
जरुरी नहीं समझते। मजे की बात है कि मेकाले शिक्षा ने हमें इतना अन्धा और पंगु बना
दिया है कि ‘पापा’ और ‘पापा के पापा’ से आगे का कुछ भी अतापता नहीं होता। जानकारी रखने
में अभिरुचि भी नहीं रहती। अर्थ-वहुल युग में म्लेच्छ भाषा के प्रति ऐसी शरणागति
हो गयी है कि अपनी देवभाषा (संस्कृत) सर्वाधिक दुरुह प्रतीत होने लगी है। ये कहने
में किंचित मात्र भी संकोच नहीं कि संस्कृत का ज्ञान न होने का ही परिणाम है कि हम
संस्कृति और परम्परा से भी दूर होते चले जा रहे हैं निरंतर। अपने आचार-विचार-व्यवहार
को भूल-विसार कर, परमुखापेक्षी बनते जा रहे हैं। आधुनिकता के दौड़ में, देखादेखी
के चक्कर में विन विचारे औंधेमुंह गिरते चले जा रहे हैं।
अब से शताधिक वर्ष पूर्व पंडित श्रीरामधन पाठक जी ने मग संस्कृति और परम्परा पर प्रकाश डालते हुए एक पुस्तक की रचना की थी, जिसका नाम है मगतिलकः । संयोगवश या कहें भूलवश, प्रकाशित प्रस्तावना खण्ड पर लेखन वा प्रकाशन का स्पष्ट काल निर्दिष्ट नहीं है। किन्तु तृतीय खण्ड के अन्त में अपना परिचय देते हुए पंडितजी लिखते हैं—
इति श्री रामधन पाठक विरचितं मगाख्यानकम् ।।
वहीं पुनः
लिखते हैं— रामधनपाठककृतौ मगाख्यानकटीकायां मगतिलकसमाख्यायां
द्वासप्ततिपुरवर्णनं नामान्तिमोभागः समाप्ताः ।।
और
उसके नीचे एक श्लोक है—
नवनन्दाङ्कचन्द्रेऽब्दे विक्रमे सर्वशास्त्रवित् ।
पौषशुक्लबुधेऽष्टम्यां स्वर्गः रामधनो द्विजः ।।
इससे
स्पष्ट है कि जीवन की अन्तिम अवस्था में—स्वर्ग जाने की तैयारी में लगे हुए विप्र रामधन
ने विक्रमाब्द १९९९ के पौष शुक्ल अष्टमी बुधवार को मगतिलक को समाप्त किया। यानी अब (विक्रमाब्द२०७८) से ७९ वर्ष पूर्व (ई.सन् १९४२ ) में लेखन-कार्य
सम्पूर्ण हुआ था। पुस्तक
के प्रथम (प्रस्तावना खण्ड) का मुद्रण कलकत्ते में हुआ था। पुस्तक की रचना मूलतः
देवभाषा—संस्कृत में ही है। वैसे भी हिन्दी का इतिहास ही कितने दिनों का है! संस्कृत ही उन दिनों के लिए साहित्य रचना की
बहु प्रयुक्त भाषा थी। ये वह काल था जब अंग्रेजी हुकूमत अपने चरम पर थी और
अंग्रेजियत के पुच्छल्लों का चहुँ ओर वर्चश्व
था। धर्मप्राण ब्राह्मणों के विरुद्ध विविध षड़यन्त्र रचे जा रहे थे। अपने
द्वारा ही अपनों की निन्दा की परिपाटी गहराती जा रही थी। वैदिक-पौराणिक काल से चले
आ रहे जम्बूद्वीपीय पञ्चद्रविण-पञ्चगौढ़ (कुल दस प्रकार) ब्राह्मणों के अतिरिक्त
एक नया तथाकथित ब्राह्मण वर्ग भी कालीयनाग सा सिर उठाने लगा था, जो विशेष
कर शाकद्वीपीय ब्राह्मणों पर दुर्नीतिक कटाक्ष किए जा रहा था। इन्हें श्राद्धादि
कर्मों में त्याज्य प्रमाणित किया जा रहा था, जो बिलकुल शास्त्र सम्मत नहीं है। उन
दिनों प्रचुर मात्रा में मगविप्रों के विरुद्ध कल्पित प्रमाण संकलित-प्रकाशित किए
जा रहे थे।
ऐसे
विकट काल में पंडित श्री रामधन पाठकजी ने मग-एकता और मगोत्थान का बीड़ा उठाया ।
प्रस्तुत पुस्तक—मगतिलकः उसी प्रयास की एक कड़ी है। कलकत्ते से प्रकाशित (उपलब्ध)
पुस्तिका (मात्र सत्तर पृष्ठ) वस्तुतः मगतिलकः का प्रस्तावना खण्ड मात्र है। इस
खण्ड में मुख्यतः बारह उपखण्ड हैं, जिसकी तालिका आगे यथास्थान दी गयी है। विश्वस्त
सूत्रों से ज्ञात हुआ कि मूल रचना तीन खण्डों में हस्तलिखित थी। स्पष्ट है कि किसी
वृहद् योजना का आंशिक भाग ही उपलब्ध हो सका है प्रकाशित होकर जनसमान्य को। सम्पूर्ण
पुस्तक तो अप्रकाशित ही रह गयी। (अस्पष्ट रुप से ऐसी जानकारी भी मिली है कि
द्वितीय खण्ड भी प्रकाशित हुआ था, वहीं कलकत्ते के उसी प्रेस से।) जो भी हो। किन्तु
इतना भी कम नहीं है मगों की दिव्यता को प्रमाणित करने हेतु।
कलिकालवसात्
संस्कृत से दूरी बनती जा रही है प्रबुद्ध समाज की। हमारा मगसमाज भी अछूता नहीं है
इस व्याधि से। ऐसे में संस्कृत भाषा में
रखी (लिखी) गयी किसी बहुमूल्य धरोहर को नयी पीढ़ी चाह कर भी कैसे सहेज पायेगी—इस समस्या
के समाधान स्वरुप संकल्प लिया “मग जागृति फाउण्डेशन ट्रस्ट, राँची” ने । पिछले ही दिनों “मगबन्धु” अखिल के सम्पादक प्रिय डॉ.सुधांशु शेखर मिश्रजी
ने निवेदन पूर्वक इच्छा व्यक्त की कि मगतिलकः (प्रकाशित-अप्रकाशित) की मूल प्रति
उपलब्ध हो जाए तो उसे सानुवाद प्रकाशित कराया जाए ।
‘जहाँ चाह वहाँ राह’ वाली कहावत चरितार्थ हुयी। संयोग से
डॉ.मिश्रजी ने तीनों खण्डों की छायाप्रति किसी तरह उपलब्ध की। इस प्रकार सम्पूर्ण
मगतिलकः की उपलब्धी से प्रकाशन की इच्छा और बलवती हो गयी और इसे कार्यरुप देने की
दिशा में समुचित प्रयास प्रारम्भ हो गया।
मेरे
पितृव्य पं.श्री बालमुकुन्द पाठकजी को पंडितजी ने प्रस्तावना खण्ड की एक प्रति
भेंट की थी, जो आज भी श्रीगोपाल पुस्तकालय, मैनपुरा, अरवल में सुरक्षित है। उस प्राचीन
प्रति को अद्यतन रीति से कम्प्यूटर द्वारा यथावत पुनर्टंकित करने का कार्यभार मुझे
दिया डॉ. मिश्रजी ने, जिसे अपना सौभाग्य समझ, मैंने स्वीकृति प्रदान की। मूल रचयिता
के प्रत्येक वर्णमात्रादि को यथावत मैंने टंकित किया है। फिर भी प्रमादवश
हो सकता है कुछ त्रुटियाँ रह गयी हों, जिसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। प्रसंगवश मैं
यहाँ स्पष्ट कर दूं कि आदरणीय श्री रामधन पाठक जी पुण्यार्क पुर के ही थे, तदनुसार
मेरे परिवारिक सम्बन्ध भी रहे ही होंगे। इसी क्रम में ये पुस्तिका मेरे चाचाजी को प्राप्त
हुयी होगी।
परम
सौभाग्य की बात है कि पुस्तक का हिन्दी रुपान्तरण करमडीह,नवीनगर (औरंगावाद) निवासी
आदरणीय डॉ.मधुसूदन पाण्डेय जी ने किया है। इस प्रकार अनुवाद की समस्या भी सहज ही
हल हो गयी और सम्पादन पूर्वक प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त हो गया।
हिन्दी
रुपान्तरण सहित मगतिलकः (संस्कृत में मूल तीनों खण्ड) के प्रकाशन हेतु यदि
मगसमाज कुछ श्रेय देना चाहे तो सर्वप्रथम इसके अधिकारी डॉ.सुधांशु शेखर मिश्रजी
हैं, जिनके अन्तर्मन में प्रकाशन हेतु स्फुरणा जगी और इस सद्विचार को धरातल पर
उतारा। इसके साथ ही अगला श्रेयभागी आदरणीय पंडित श्री मधुसूदन पाण्डेय जी हैं, जिनकी
विद्वत्ता और लगनशीलता से दुष्पाठ्य मूल रचना का भाषान्तर हो पाया।
मेरा
विश्वास है कि भगवान भुवनभास्कर की कृपा से सानुवाद, सम्पूर्ण मगतिलकः को इस
नये कलेवर में देखकर गोलोकवासी परम श्रद्धेय पंडितजी को परम तुष्टि मिलेगी और उनका
स्नेहाशीष मगसमाज को अवश्य प्राप्त होगा।
आशा
ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि मगसमाज इस
पुस्तक को समुचित स्थान देगा। वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी को भी अपने आपकी
विस्मृति से उबरने का एक सुवसर प्राप्त होगा । अस्तु
निवेदक—
कमलेश
पुण्यार्क राधाष्मी,
मैनपुरा,चन्दा,कलेर,अरवल विक्रमाब्द २०७८
(सम्प्रति
गया प्रवासी)
मो./वाट्सऐप— 8986286163
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भूमिका -
१. भारतवर्षे शाकद्वीपीयानामागमनम्-
२. शाकद्वीपनिरुपणम्—
३. पुराणप्रामाण्यम्—
४. द्वीपादिविषयेपरमतखण्डनम्—
५. मगानां देवलकत्वदोषाऽभावनिरुपणम्—
६. भविष्यपुराणीयश्लोकानां गूढ़ार्थप्रकाशनम्—
७. एकचत्वारिंशदुत्तरशतमाध्यायस्थश्लोकानां
परोत्प्रेक्षितार्थस्यखण्नम्—
८. परमतखण्डनपूर्वकं शाकद्वीपीयानां ग्रन्थकर्तृणां
गणना—
९. शाकद्वीपीयानां सकल ब्राह्मणकर्मस्यधिकार
निरुपणम्—
१०. कूष्माण्डमहिषीक्षीरमित्यादिश्लोकानां
वास्तवार्थं निरुपणम्—
११. शाकद्वीपीयानांश्राद्धेषु भोजनपूजनादिमाहात्म्यम्—
१२. शाकद्वीपीयोत्पत्तिवर्णनपूर्वकंसमानगोत्रेष्वेवैषां
विवाह इति मतखण्डनम्—
(अग्रे वहवः आनुषङ्गिका विषयाः)
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भूमिका
इह मर्त्यलोके चत्वारो वर्णास्तथाऽऽश्रमाश्च वहुषु स्थेलषु सन्ति, तत्र
तद्नुकूलसंस्काराश्च विहिताः सन्ति तेषामनुष्ठानेनैहलौकिकंपारलौकिकञ्च फलजातं
सिध्यति । अहं ब्राह्मणः। अहं क्षत्रिय इत्याद्यभिमानाऽभावे ते संस्कारः नैव भवितुमर्हन्ति
तेषामनुष्ठानेन च तस्य तस्याभिमानस्यौत्कट्यं भवति । एतादृशपरम्परैवानुवतमानाब्राह्मणत्वादौ
प्रमाणम् । तद्विपरीतोद्घोषणेन यदि कश्चित्कस्यचिन्निन्दां करोति तदा सोऽनादिकालात्प्रचलितां वर्णाश्रमव्यवस्थां न
स्वीकरोति सर्वथा नास्तिक इति ज्ञातव्यम् । यश्य ब्राह्मणस्य निन्दां करोति स तु
पतित एव भवति । भगवतापि कथितम्—
नाहं
विशङ्केऽसुरराजवज्रान्न
त्र्क्षशूलान्न यमस्य दण्डात् ।
नाग्न्यर्कसोमानिल वित्तपास्त्राच्छङ्के भृशं
ब्रह्मकुलावमानात् ।।
शिष्टानामेषैव
रीतिः । बहव आधुनिका ग्रन्थकाराः पक्षपातिनो ब्राह्मणस्य सत्कारमुन्नतिं चाऽसहमानाः स्वस्वग्रन्थेषु प्रतारणार्थं मिथ्या
लिखन्ति । यथा सारसमुच्चयै केनापि लिखितम्—
कुष्माण्डं महिषीक्षीरं विल्वपत्रमगद्विजः ।
श्राद्धकाले समापन्ने पितरो यान्ति
निराशयाः ।।
अयं
श्लोको निर्मूलः । असूयादोषेण लिखितः । अस्य श्लोकस्य स्वरुपन्तु—
कुष्माण्डं
महिषीक्षीरमाढक्यो राजसर्षपाः ।
चणका राजमाषाश्च घ्नन्ति
श्राद्धं न संशयः।।
एताद्रशमस्ति
। इदं पाराशरवचनं निर्णयसिन्धावप्युलिखितम् । विल्वपत्रमित्यादि पादत्र्यं
स्वकपोलकल्पितं संयोज्य सारसमुच्चये लिखितम् । अतएव कुत्रापि स्मृतौ पुराणे वा न
लभ्यते इति विल्वपत्रादि न श्राद्धे निषिद्धं किन्तु महापवित्रम् । यथाह
ब्रह्माण्डपुराणे तृतीय उपोद्धातपाद एकादशाध्याये—
विल्वोदुम्बरपत्राणि
फलानि समिधस्तथा ।
श्राद्धे महापवित्राणि मेध्यानि
च विशेषतः ।।
मेध्यानि
संगमनीयानि । मेधृ संगम इतिधातोर्ण्यत् । भविष्ये ब्राह्मपर्वणि
सप्ताशीत्युत्तरशततमेऽध्याये—
पितृनुदिश्य यः
श्राद्धे भोजयेद् भोजकान्नरः ।
स स्थानं समाप्नोति
भानवीयमसंशयः ।।
इति
प्रशंसादर्शनेन विल्वपत्रमित्यादिपादत्रयघटितश्लोकः कल्पितः प्रथमान्त- विशेष्यत्वेन सप्तमपन्तस्य
लेखोप्यसंङ्गत इति सुधीर्भिर्विचार्य्यम् ।
मनुना
तृतीयेऽध्याये—
श्रोत्रियायैव
देयानि हव्यकव्यानि दातृभिः ।
अर्हत्तमाय विप्राय तस्मै
दत्तं महाफलम् ।। १२८।।
इत्युपदिष्टं
तदनुसारेण योग्याय शाकद्वीपब्राह्मणाय दत्तं महाफलम् । तथा ब्राह्मणनिर्णयनामक
आधुनिके ग्रन्थे केषां चिद् ब्राह्मणानां निन्दा दृश्यते सा नास्तिकत्वदोषेणाऽल्पज्ञदोषेण पण्डितंमन्यतादोषेण चेति
पक्षपातरहितैर्महामहोपाध्यायैः शिवकुमारशास्त्र्यादिभिरसकृदुद्धोषितम् । असूयका
योग्यान्निन्दन्त्येवेति मगाऽपरनामशाकद्वीपीयब्राह्मणविषयजिज्ञासु-भिर्मगतिलकग्रन्थोऽवश्यं
द्रष्टव्यः । अतृच निष्पक्षपातरुपेण विचारितमिति ।
श्रीधर्मनाथ
त्रिपाठी,व्याकरणतीर्थ
छपरामण्डलान्तर्गत मोबारकपुर ग्रामवास्तव्यः
।
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