पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

      


     
            (ये पुस्तक शाकद्वीपीय ब्राह्मणों पर लधु शोध है)              



                              पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

हमारे शास्त्रों में एक से बढ़ कर एक संदेश भरे पड़े हैं। को बड़ छोट कहत अपराधू वाली बात है, किसी को कमतर नहीं आँका जा सकता । आवश्यकता है सिर्फ सधन दृष्टिपात की। श्रद्धा-विश्वास पूर्वक ढूढ़ेंगे तो कुछ न कुछ महत्त्वपूर्ण मिल ही जायेगा।

अर्थ बहुल सांसारिक जीवन में अर्थ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है, किन्तु इसकी सम्यक् प्राप्ति और प्राप्ति के पश्चात् समुचित भोग हेतु स्वस्थ्य शरीर और शान्त-सुखद पारिवारिक-सामाजिक परिवेश भी होना उतना ही आवश्यक है, अन्यथा शरीर और परिवार ही साथ न दिया तो फिर संचित धन का भोग कैसे करेंगे—सोचने वाली बात है।

तटस्थ भाव से विचार करें तो आसपास में ही एक से एक धनाड्य मिल जायेंगे, किन्तु निकट से उन्हें देखेंगे तो शारीरिक-मानसिक पीड़ा के कारण उपलब्ध धन से सुख प्राप्त नहीं है उन्हें। मिठाइयाँ तो फ्रिज में पड़ी है,किन्तु ब्लडसूगर है। मिठाई खा नहीं सकते । घी है,किन्तु कॉलेस्ट्रोल का खतरा है। ए.सी.में डनलप दीवान पर पड़े करवटें बदलते रातें कटती है। नींद की गोलियाँ भी बेअसर हो जाती हैं। पारिवारिक अशान्ति से उब कर आत्महत्या के विचार मन में आते हैं....इत्यादि।

वस्तुतः धन की अपनी सीमा है, जिसकी सीमा में सुख समा नहीं सकता। और जब सुख ही नहीं समा सकता तो फिर शान्ति कहाँ से समायेगी । और रही बात आनन्द की तो वो बहुत दूर की चीज है, जिसे धन से कुछ लेना-देना नहीं। इसे ठीक से समझें तो पता चलेगा कि सुख की सीमा शरीर तक ही सिमटी हुयी है। प्रयास करके धन के माध्यम से यत्किंचित सुख की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु शान्ति तो मन का विषय है और आनन्द इससे भी ऊपर—आत्मा का विषय है। और इन दोनों का धन से दूर-दूर तक का भी सम्बन्ध नहीं है। धन से सुख के संसाधन जुटाये जा सकते हैं, किन्तु शान्ति और आनन्द को धन से कदापि पाया या खरीदा नहीं जा सकता।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखें तो संसार का अस्तित्व सूर्य पर टिका हुआ है। शास्त्रों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है— सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्चस्पष्ट है कि सूर्याराधन से हमारी लौकिक-पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो सकती है। विशेष कर शाकद्वीपियों के लिए तो एक मात्र सूर्य ही आराधक होने चाहिए। इनकी आराधना त्रिदेवों— ब्रह्मा, विष्णु, महेश की आराधना है। वेदमाता गायत्री इनकी शक्ति है। सावित्री और गायत्री में बहुत निकट का सम्बन्ध है। इस अन्योन्याश्रित सम्बन्ध की चर्चा पुराणों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। भविष्यपुराण तो मुख्यतः सूर्य-प्रधान ग्रन्थ ही है।

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को सूर्यांश कहा गया है, क्योंकि सूर्य के तेज से ही इनकी उत्पत्ति हुयी है। ध्यान रहे—सूर्यांश हैं ये, सूर्यवंशी नहीं। अंश और वंश में पृथ्वी और आकाश का अन्तर है।

हमें चाहिए कि इस जगदात्मा सूर्य की सम्यक् आराधना नियमित रुप से करें। इनकी कृपा से पुरुषार्थ चतुष्टय—धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष की सिद्धि अवश्य होगी। आवश्यकता है श्रद्धा-विश्वास पूर्वक इसे साधने की। उपनयनोंपरान्त संध्या-गायत्री की अनिवार्यता इसी बात का संकेत है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो विप्र अकारण लागातार तीन दिनों तक संध्या-गायत्री नहीं करते , वे चाण्डालवत हो जाते हैं। उन्हें चाहिए कि पुनः मुण्डन-संस्कार करा कर, शुद्ध उपवीती होकर, क्रिया प्रारम्भ करें।

वर्तमान परिवेश की विडम्बना ये है कि समय पर यज्ञोपवीत संस्कार शायद ही होता है। हैपीवर्थ डे के अंडे वाले केक की याद रहती है, किन्तु जनेऊ की महत्ता समझ नहीं आती। संस्कारहीनता कूट-कूट कर भरती जा रही है—पछुआ वयार में।

विप्रबन्धु यदि उपनयन की महत्ता को हृदयंगम करें, संध्या-गायत्री की उपादेयता को समझ लें और जगत की आत्मा सूर्य के शरण में आ जायें तो उनकी सारी समस्याओं का निदान मिल जाए। यूँ तो ये सबके लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है, किन्तु विशेषकर सूर्याशों—शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का तो काम ही नहीं चल सकता इसके बिना। संध्या-गायत्री के बिना हमारी स्थिति वैसी ही है जैसे किसी सुव्यवस्थित मकान में विजली के सारे उपकरण तो लगे हुए हैं, किन्तु विजली का कनेक्शन ही नहीं लिया है।

आधुनिक भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में विशेष कुछ न भी कर सकें तो कम से कम संक्षिप्त संध्योपासन और आदित्यहृदयस्तोत्र (भविष्योत्तरपुराण वाला) का एक पाठ तो अवश्य कर लिया करें। १७२ श्लोकों का पूरा पाठ न सम्भव हो तो अन्त के मंगलाष्टक  के बारह श्लोकों का भावमय पाठ तो कर ही सकते हैं नित्य प्रातः स्नान के बाद। ये घनीभूत भाव ही जीवन के समस्त अभाव को दूर करेगा।

आप इसे साध कर देखें—आपकी दुनिया बदल जायेगी। चमत्कार घटित हो जायेगा आपके जीवन में। रिश्वसखोरी वाला सरकारी टेबल भले न मिले, हवाई जहाज का सफर भले न कर पायें, किन्तु जीवन का सफर तो आनन्ददायक अवश्य हो जायेगा—इसमें दो राय नहीं।

(नोट—मांसाहारी इस क्रिया को भूल कर भी न आजमायें, अन्यथा भयंकर क्षति होगी)

 

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