स्वामी सन्त संन्यास
विविध
शास्त्रों
ने स्वामी, सन्त, संन्यास आदि शब्दों (पदों) को बड़ा ही महिमामंडित किया है, जिनकी
परिभाषा और सीमा कलिकाल में आकर बिलकुल बदल गयी है। ये सभी शब्द अपना मौलिक अर्थ, भाव
और गरिमा खो चुके हैं। इनका आन्तरिक स्वरुप बिलकुल बदल चुका है। बाहरी स्वरुप के
नाम पर जटा-जूट, चीवर-चिमटा, माला-डोरा, गंडा-ताबीज़, टीक-टीका वगैरह पहले से भी
अधिक घनीभूत हो गया है। जितनी लम्बी दाढ़ी,
उतना बड़ा सन्त । और दाढ़ी लम्बी है, गले में पड़ी मालाओं की संख्या अधिक है, अंगीठी
की सारी राख ललाट की शोभा बढ़ा रहा है, तो ऐसे में शिष्यों की मण्डली भी बड़ी होगी
ही—निश्चित है। शिष्य ज्यादा होंगे तो चढ़ावा भी ज्यादा आयेगा ।
यही
कारण है कि जीवन-रक्षक दवाइयों के कारोबार
से भी बड़ा कारोबार है शान्ति-भंजक धर्म का । एक सर्वेक्षण के मुताबिक हमारे यहाँ
धर्म का वार्षिक कारोबार तीन लाख तीस हजार करोड़ का है, जबकि दवा का
कारोबार तीन लाख पन्द्रह हजार करोड़ का। हालाँकि नेतागिरि का कारोबार इससे भी कई
गुना बड़ा होना चाहिए, परन्तु ये ‘डिजिटल डाटा एन्ट्री’
में नहीं आया है अभी तक शायद । आया भी होगा तो मुझे पता नहीं है।
हो
सकता है मेरी ये बातें अटपटी लगें—शान्तिदायक धर्म भला शान्ति-भंजक कब से हो गया ! किन्तु इतिहास गवाह है कि आजतक जितने
युद्ध हुए हैं, जितनी हत्यायें हुयी हैं, उनके लिए धार्मिक उन्माद विशेष उत्तरदायी है।
सच्चाई ये ये कि धर्म कभी उन्मादी नहीं हो सकता और
उन्मादी को धर्म से कोई वास्ता नहीं होता।
दरअसल “धर्म” के मर्म
को ठीक से समझने में ही चूक हुयी है, कमोवेश प्रायः हर युगों में। और कलियुग में
तो धार्मिकता की बाढ़ आ गयी है। धर्म को हर व्यक्ति अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर
लिया है। परिणामतः बाहरी ढाँचा बहुत ही लुभावना हो गया है, भीतर सबकुछ पोला-पोला
है। नेतागिरी, बाबागिरी और डॉक्टरी ये
बेरोजगारी हल करने के सबसे आसान उपाय हैं ।
‘जाति न पूछो साधु की’— कहा तो बिलकुल सही गया है, किन्तु समझा गया गलत ढंग से
इस उक्ति को। भला साधु की जाति क्या पूछना
! जाति-धर्म-सम्प्रदाय, मानापमान, काम, क्रोध,
लोभ, मोह आदि से जो ऊपर उठ गया है, उसकी भला जाति ही क्या रह जायेगी । जाति तो मानव
की होती है। महामानव तो देवता से भी ऊपर, ईश्वर के करीब होता है। साधु, सन्त, स्वामी,
संन्यासी आदि शब्द इसी महामानव के ईर्दगिर्द चक्कर लगाते हैं। और ठीक से यदि परखने
की क्षमता हो, तो स्पष्ट हो जायेगा कि आज के समय में इन शब्दों में समाने की
क्षमता वाले एक भी नहीं हैं। वस सिर्फ ओढ़ लिए चादर की तरह इन शब्दों को, इन पदों
को, साधु के बाने को, बाहरी ढाँचे को। ऐसे में निश्चित है कि ऊपर से ओढ़ी हुई चादर—काम,
क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और अहंकारादि सप्तरिपुओं के झोंके में कभी भी उड़ सकती
है और असली रुप उजागर हो सकता है।
स्मृतिकार कहते हैं— अश्वलम्भं गवालम्भं सन्यासं पलपैतृकम् ।
देवराच सुतोत्पतिः कलौ
पञ्च विवर्जयेत् ॥
(अश्वमेधयज्ञ, गोमेधयज्ञ, संन्यासदीक्षा, मांस से पिण्डदान और देवरादि (परपुरुष) से
सन्तानोत्पत्ति—ये पाँच काम बड़ी सख्ती से निषेध किया गया है कलियुग में।
सतयुगादि युगों की तुलना में कलियुग में बहुत सी
वर्जनाएं हैं, तो बहुत सी सुविधाएं भी हैं। इस सम्बन्ध में स्मृति-धर्मशास्त्र
चीख-चीखकर कह रहे हैं। किन्तु उन आदेशों-निर्देशों को हम मानेंगे तब न । तथाकथित
धर्मनिर्पेक्षता के कवच से सबकुछ आवर्णित-रक्षित है।
लोकतन्त्र में सबकुछ लोकतान्त्रिक हो गया है।
मनमानी करने की पूरी छूट है।
स्वामी, सन्त, संन्यासी भी इसी लोकतन्त्र का
हिस्सा हैं। फिर वो मनमानी क्यों न करे !
घर-परिवार की छोटी सी जिम्मेवारी निभती नहीं, तो इसे
त्याग कर संन्यास ले लेते हैं। और संन्यास लेकर चेले-चेलियों का बड़ा सा परिवार
जुटा लेते हैं। सीमित पारिवारिक दायित्व में जो नहीं मिल सकता था, उससे कई गुना
ज्यादा वहाँ मिल जाता है। वीधे-दो वीधे जमीन की व्यवस्था को कौन कहें, हजारों हजार
एकड़ जमीनें मठाधीन हैं। करोड़ों-अरबों की दौलत है। भोगो जितना राज भोग सकते हो—संन्यासी
और मठाधीश बन कर।
‘भोग’ अपने साथ अनेक दुर्गुण लेकर आता है। सुविधाएं अपने साथ
अनेक असुविधाएं भी लेकर आती हैं। राग है तो द्वेष भी रहेगा ही। सम्पत्ति के साथ
विपत्ति का चोली-दामन सम्बन्ध है। सिक्के के किसी एक पहलु पर स्थिर या निर्भर नहीं
रहा जा सकता।
एक गृहस्थ जीवन में जितनी तृष्णा है उससे कहीं अधिक तृणा
उनमें दर्शित होती है, जो गृहस्थी त्याग चुके हैं। एक कटु सत्य है कि ब्रह्मचारी
के जीवन का निन्यानबे प्रतिशत समय ब्रह्मचर्य से लड़ते हुए गुज़र जाता है। क्योंकि
ब्रह्मचर्य उनके सामने एक दुर्जेय शत्रु की भाँति खड़ा होता है। और जब साधना का ‘ककहरा’ ही नहीं सधता, फिर बाकी किताबें पढ़ी कैसे जायेंगी !
सच पूछें तो गृहस्थाश्रम से पावन कोई और आश्रम नहीं हो
सकता—विशेषकर कलिकाल में। गृहस्थ भी संन्यासी रह सकता है, सन्त हो सकता है, स्वामी
हो सकता है।
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