झारखण्डी डॉक्टरों का ‘कायव्यूह’ करिश्मा
भुलेटनभगत
तीन-चार
दिनों से जरा चिन्तित नजर आ रहे हैं। चिन्ता की रेखा उनकी ललाट पर भले न दीखे, किन्तु
रेखा-विशेषज्ञ न होते हुए भी मैं उनकी ललाट पढ़ सकता हूँ, क्योंकि उन्हें भलीभाँति जानता हूँ। देश-दुनिया में चल रही
हलचलों से भगतजी सदा चिन्तित रहते हैं और लाख समझाने पर भी चिन्ता करने से बाज
नहीं आते। ‘काज़ीजी दुबले क्यों, दुनिया की फिकर से’
वाली कहावत भगतजी पर बिलकुल फिट बैठती है।
हालाँकि
कुछ ऐसे ही दुनियादारी-सवाल लेकर आज मैं उनके पास पहुँचा था, जिसका सही जवाब मुझे
मिल नहीं रहा है कई दिनों से। राम-सलाम की औपचारिकता के बाद उनके पास ही बैठ गया,
एक तिनटंगा मोढ़े पर, जिसकी अन्तिम टांग का वर्षो पूर्व ही प्लास्टिक सर्जरी किया
गया था लकड़ी बाँध कर । बाकी के दो पैरों में तो पहले से ही लकड़ी बँधी थी।
उनके इस प्रयोग पर मैंने एक बार टोका भी
था और सहयोग के रुप में अपने घर से एक कुर्सी लाकर देने की बात कही थी, किन्तु
भगतजी कुर्सी के सख्त विरोधी हैं। कहते हैं कि ये बड़ी खतरनाक चीज है। ‘चुत्तड़’ से चिपक जाती है तो छोड़ने का नाम
ही नहीं लेती। पता नहीं किस विदेशी कम्पनी का हार्ड ‘एडेसिव’ लगा है इसमें।
आज
उनकी इसी बात की याद आ गयी, क्योंकि मेरा सवाल इसी के ईर्दगिर्द वाला है। सुना है
कि पड़ोसी प्रान्त में ‘कायव्यूह’
प्रैक्टिस का प्रयोग चल रहा है। विभागीय आलाकमान से फरमान जारी हुआ है कि प्रत्येक
सरकारी डॉक्टरों को एक साथ कई अस्पतालों में ड्यूटी देनी होगी।
प्रश्नवाचक
‘मोड’ में भगतजी ने पूछा — “अच्छा हुआ तुम ही आ गए। मैं सोच
ही रहा था तुम्हारे पास आने को। कहो क्या बात है, कुछ नया-सया है क्या? ”
मैंने
सिर हिलाते हुए कहा—कोई खास नहीं, फिर भी बहुत खास ।
“क्या मतलब ? तुम तो बेवाक किसी बात को कहने के आदी
हो। आज मेरा वाला फॉर्मूला कैसे अपना लिए? ”— भगतजी के चेहरे
का गम थोड़ी देर के लिए गायब हो चुका था मेरी बात सुनकर ।
खास
इसलिए नहीं कि मामला राजनीतिक हवाबाजी वाला है, जो आए दिन जनता को बेवकूफ बनाने के
लिए चलते ही रहता है। किन्तु बहुत खास इसलिए हो गया है, क्योंकि द्वापर के कृष्ण
के बाद अब कलियुग में ‘कायव्यूह’
संरचना की बात की जा रही है।
“ कायव्यूह संरचना ! वो भी घोर कलियुग में! ”— भगतजी चौंके।
हाँ
भगतजी ! मैं बिलकुल सही कह रहा हूँ। रासलीला के समय कृष्ण ने हजारों रुप धरा था।
हर गोपी की बाहों में समाकर, रासनृत्य की लीला हुयी थी। यानी जितनी गोपी उतने
कृष्ण । लगता है हमारे नेता लोग उस लीला से विशेष प्रभावित हुए हैं। अतः वही
प्रयोग अब डॉक्टरों को करने की सलाह दे रहे हैं।
“कृष्ण वाला प्रयोग ! क्या पहेली बुझा रहे हो?
कुछ साफ-साफ कहो। ” – भगतजी ने जिज्ञासा व्यक्त की।
बात
बिलकुल साफ है भगतजी । झारखण्ड की कुल आबादी लगभग साढ़े तीन करोड़ के करीब है और
उसके एवज में सरकारी डॉक्टरों की संख्या महज तेईस सौ । जबकि सही आँकड़े के मुताबिक
डॉक्टरों की नियुक्ति करीब बारह हजार होनी चाहिए। हालाँकि ये संख्या भी बहुत नहीं
है। वोटवैंक के दवाब में अस्पताल या अन्य सरकारी भवन तो बना दिए जाते हैं, किन्तु
उसके लिए बाकी व्यवस्था और सुविधा के अभाव में ज्यादातर भवन आवारा चौपायों या दो
पायों के पनाहगार बन कर रह जाते हैं। दिन भर मुहल्ले के रंगरुट वहाँ बैठ कर
जूआ-शराब का जश्न मनाते हैं और रात में बेचारे पशु पनाह पाते हैं। कुछ ही दिनों
में ईंटें उखड़कर आसपड़ोस में चली जाती हैं किसी और का आवासीय-कल्याण करने ।
भगतजी
ने हामी भरी— “
बात बिलकुल सही कह रहे हो। मंत्रियों को जनकल्याण से क्या वास्ता !
ये सरकारी विल्डिंगें इसलिए बनायी जाती हैं, ताकि नजदीकी भाई-भतीजे
ठेकेदारों के साथ-साथ अपना भी कुछ कल्याण हो जाए। वजट पास हुआ है, तो उसका लाभ तो
उठाना ही चाहिए न। पोस्टर-बैनर, उद्घाटन समारोह, शिलापट्ट आदि देख कर जनता को भी
थोड़ी सन्तुष्टि मिलती है और विरोधी दल को भी जनकल्याण-मुद्दा ढूढ़ने में दिक्कत
होती है। ”
यही
बात है भगतजी। जनकल्याण के पीछे आत्मकल्याण छिपा हुआ है। पोलियो मुक्त करने में
हमारे देश को करीब साठ साल लग गए। चिकेन पॉक्श, चिकिनगुनिया, डेंगू आदि अभी भी सिर
उठाये फिर रहे हैं। भला हो इस नये वाले जनसेवक का कि कोरोना जैसी अजूबी संक्रामक
बीमारी पर काबू पाने का बीड़ा उठा लिया और थोड़े ही दिनों में काफी हद कर काबू भी
पा लिया। दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम करने का ज़ज़्बा ही कुछ और होता है, जो हरकोई
में नहीं होता । अब देखना है कि ये कायब्यूह वाला नया ज़ज़्बा कितना कारगर होता
है। एक डॉक्टर को तीन-चार अस्पतालों को सम्भालने का जिम्मा दिया गया है। जबकि एक
डॉक्टर सही ढंग से एक अस्पताल को ही ठीक से सम्भाल नहीं पाता। प्राइवेट पैक्टिस पर
रोक लगा दी गयी है । यही कारण है कि बहुत से डॉक्टर लेटनाइट प्रैक्टिस वाला नुस्खा
आज़मा रहे हैं। रात भर अपने क्लीनिक में बैठ कर मरीज देखते हैं और दिन भर अस्पताल
में आकर आराम फरमाते हैं। ये बात दिगर है कि कुछ खास किस्म के अस्पतालों में
ईमानदारी से ईलाज हो रहा है। नतीजन सारी भीड़ वहीं खिंची चली आती है और वहाँ की
भलीचंगी व्यवस्था में सेंधमारी होने लगती है।
भगतजी
ने हाथ के इशारे से मुझे रुकने का संकेत किया— “ तो यही है
तुम्हारी समस्या कायब्यूह वाली कि एक डॉक्टर कई अस्पतालों में ड्यूटी कैसे करेगा
! क्या अपना ‘क्लोन’ बनायेगा ? इस खबर
के बारे में मुझे अपडेट देते रहना। मुझे भी उत्सुक्ता हो रही है इस फॉर्मूले को
जानने की। ”
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