नरक चाहिए तो पौरोहित्य करो

 

                     नरकाय मतिस्ते चेत् पौरोहित्यं समाचर

             (नरक चाहिए तो पौरोहित्य करो)

नरकाय मतिस्ते चेत् पौरोहित्यं समाचर ।

वर्ष यावत् किमन्येन मठचिन्तां दिन त्रयम् ।।

           (पंचतन्त्र-मित्रसम्प्राप्ति-६९)(नरक जाने का विचार हो तो पौरोहित्य कर्म करो। वर्षयावत् अन्यान्य कार्य करने से अच्छा है कि तीन दिनों के लिए भी मठाधीश बन जाओ। यानि नरक जाने की बहुत जल्दीबाजी हो तो कम से कम तीन दिनों के लिए मठाव्यवस्था में लग जाओ)—ये पंक्तियाँ मुझे प्रायः झकझोरते रहती हैं, क्योंकि ईश्वर कृपा से ब्राह्मणकुल में पैदा हुआ हूँ।            

      मनुस्मृति-८८ में कहा गया है— अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।

                     दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥  

स्पष्ट है कि अध्ययन-अध्यापन,यजन-याजन,दान-प्रतिग्रह — ब्राह्मणों के लिए ये छः विहित कर्म निर्दिष्ट हैं।  बात बिलकुल साफ है कि अध्ययन करो, तब अध्यापन करो। स्वयं यज्ञादि कर्मकाण्ड करो, साथ ही यजमानों का कर्मकाण्ड भी कराओ । दान ग्रहण करो और तदनुसार स्वयं भी दान करो ।  

ऐसे में पौरोहित्यकर्म को त्याज्य और निन्दित क्यों किया गया—विचारने वाली बात है।

विचार, चिन्तन, अन्वेषण, मनन में कुछ बातें सामने आयी। सतयुग में ही गुरु वशिष्ठजी, जो स्वयं एक स्मृतिकार भी थे, एक बार पौरोहित्य-कर्म त्यागने का संकल्प ले चुके थे। तब बड़ी कठिनाई से नारदजी ने उन्हें समझाया कि आप जिस कुल के पुरोहित है, उसी कुल में आगे, त्रेतायुग में विष्णु का मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामावतार होने वाला है। और तब से वे इस लालसा में उक्त कुल का पौरोहित्य-कर्म-निर्वाह करते रहे, ताकि श्रीराम के दर्शन से सारे पाप धुल जायेंगे और मोक्ष लब्ध हो जायेगा । हालाँकि वशिष्ठ जैसे महानुभावों के लिए तो मोक्ष भी तुच्छ स्थिति है। । सन्त तुलसी ने भी रामचरितमानस में इस बात की चर्चा की है। । श्रीमद्भावतादि पुराणों में भी पौरोहित्य-कर्म निन्दित कहा गया है। देवलक, तिथिसूचक आदि ब्राह्मणकर्म भी निन्दित ही हैं। विदित हो कि वेतन लेकर देवमन्दिरों में पूजा-अर्चना करना देवलककर्म कहलाता है तथा ज्योतिष का विशेष ज्ञान रखे बिना सिर्फ तिथि-नक्षत्रादि की जानकारी देकर, जीविका चलाने वाले ब्राह्मण को तिथि-सूचक कहते हैं। ये दोनों कर्म निन्दनीय हैं।

वाल्मीकीय रामायण का एक रोचक प्रसंग है—श्रीराम के राजदरवार में न्यायेच्छुक एक कुत्ता आया, जिसे एक ब्राह्मण ने अकारण ही दण्डित किया था। श्रीराम ने उस कुत्ते से ही पूछा कि इस विप्र को कौन सा दण्ड दिया जाय? कुत्ते ने निवेदन किया कि इस ब्राह्मण को मन्दिर का पुजारी बना दिया जाए। अनोखे दण्ड-विधान से दरवारी सहित श्रीराम भी चौंके। पुनः पूछने पर कुत्ते ने बतलाया कि वह पूर्व जन्म में देवस्थल में वेतनभोगी पुजारी ही था। उसी पाप के कारण ये निकृष्ट पशु-योनि मिली है। देवलकत्व की निन्दा हेतु ये प्रमाण मननीय है।

इस प्रकार बात स्पष्ट है कि अल्पज्ञ, क्रियाहीन, संस्कारहीन, तेजहीन विप्र तुलसी का पता बड़ा या छोटा मानकर, सर्वथा-सर्वदा सम्मान्य नहीं हो सकता ।  

सत्य ये है कि पौरोहित्य-कर्म से शनैः-शनैः संस्कारहीनता आती है। यजमान के घर जाकर, उस वातावरण में लम्बे समय तक बैठ कर पाठ-पूजा कराना भी शरीर और मन को प्रभावित करता है। विना विचारे जिस-तिस के अन्न का भोजन, अन्न,वस्त्र,द्रव्यादि पदार्थों का दान-ग्रहण तेजहीनता के लिए प्रचुर संसाधन जुटा देता है। यानी अन्न-द्रव्यादि का स्रोत कैसा है, इस पर उसका परिपाक और परिणाम निर्भर करता है। चौर-चाण्डाल, मद्यपी, रिश्वतखोर आदि का अन्न-द्रव्य कदापि ग्रहणीय नहीं है।

श्रीमद्भगवद्गीता १८-४२ में श्रीकृष्ण ने कहा है—शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। (मन का निग्रह करना, इन्द्रियों को वश में रखना, धर्मपालन हेतु कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद-शास्त्रादि का ज्ञान होना, यज्ञविधि का ज्ञान व अनुभव, परमात्मा-वेद आदि में आस्तिक भाव रखना—ये सब के सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।)

यहाँ ध्यान देने योग्य विशेष बात ये है कि वर्ण-व्यवस्था और परम्परा बिलकुल ठीक हो तो ये गुण ब्राह्मण में स्वाभाविक रुप से होंगे ही। किन्तु वर्णसंकरता आदि के कारण इन गुणों में निरन्तर न्यूता आयेगी। इसीलिए इस कथन के ठीक पूर्व प्रसंग में ही श्रीकृष्ण कह चुके हैं— कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः । (यानी स्वभाव बनने में जन्म की प्रधानता होती है। उसके बाद संगति मुख्य होता है। ध्यातव्य है कि संगति, स्वाध्याय, अध्यास आदि के कारण स्वभाव बदलता रहता है।)

सम्भवतः इन्हीं सारी बातों को ध्यान में रखते हुए गुरु वशिष्ठ ने भावी पीढ़ी के लिए एक आदर्श स्थापित करने की चेष्टा की हो और इसी संदर्भ में पौरोहित्य-कर्म को गर्हित कर्म कहा गया हो।

वर्तमान कलिकाल में गौर से देखें-विचारें तो बात बिलकुल साफ हो जायेगी ।  

एक ओर तो ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और सम्मान को देखते हुए अन्यान्य वर्ण भी लोभवश छद्म रुप से ब्राह्मणों का अनुकरण करने लगे हैं। त्रेतायुग में एक कालनेमि सन्त बना था—संजीवनी वाहक श्रीहनुमान को छलने के लिए और आज वर्णेत्तर साधु-सन्तों की भरमार है चतुर्दिश। साधु-सन्त-संन्यासी का बाना बना लेना बहुत ही सहज हो गया है आजकल। गुरु-शिष्य-परम्परा सबसे बड़ा व्यापार बन गया है। लोकतन्त्र बहुल व्यवस्था में दीक्षण-शिक्षण कार्य में वर्णेत्तरों का वर्चश्व हो गया है।

और दूसरी ओर ये भी सत्य है कि ब्रह्मणों ने अपना तेजोदीप्त संस्कार खो दिया है। वेद, पुराण, कर्मकाण्ड, ज्योतिष, स्मृति, धर्मशास्त्रादि के अध्ययन-मनन में अभिरुचि नहीं और प्रवचन-अध्यापन में जुट गए हैं। स्वयं पूजा-पाठ, धर्म-कर्म से कोई मतलब  नहीं, किन्तु यजमान को जटिल कर्मकाण्डों में उलझा देना सामान्य बात है । हनुमानचालीसा भी ठीक से बाँच नहीं सकते और यजमान के घर भागवत बाँचने पहुँच जाते हैं मोटी दक्षिणा के लोभ में। सामान्य संकल्प भी शुद्ध बोल नहीं सकते और शतकुण्डीय-सहस्रकुण्डीय यज्ञों में आचार्य पद को सुशोभित करने लगते हैं। स्वयं भिखारी को भीख भी न दें और यजमान से दान लेने के लिए सदा हाथ पसारे रहते हैं। इस स्थिति को देखते हुए ही कहा गया होगा— जिह्वादग्धं परान्नेन हस्त दग्धं प्ररिग्रहः ।  इतना ही नहीं इन्द्रिय लोलुपता के वशीभूत होकर वर्णेतर संसर्ग-सम्पर्क भी खूब हो रहा है। कुल मिला कर देखा जाए तो न मनु के निर्देश पर ही अमल हो रहा है और न श्रीकृष्ण का संदेश ही कानों में समा पा रहा है।

ब्राह्मणों की इस दुर्दशा का लाभ ब्राह्मणेतर वर्ण सहज ही उठा रहे हैं। मन्दिरों के दान और चढ़ावे आकर्षित कर रहे हैं धनलोलुपों को। मृगनयनी मेनकाएं भरमा रही हैं, रिझा रही हैं— कलियुगी विश्वामित्रों को। मठों-मन्दिरों  की अकूत सम्पदा पर तो जनतन्त्र के अधिष्ठाता राजा-महाराजाओं के भी लार टपक रहे हैं, जिन्हें लूटने के सारे हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं—नये-नये कानून बनाकर ।

और जब भोगैश्वर्य की सारी सुविधाएं उपलब्ध हों तो फिर नरक का दरवाजा खुलने में देर ही कितनी लगनी है !

मठ चिन्ता दिनत्रयम् ।

 

 

 

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