ब्राह्मण क्या करें ?
(पौरोहित्य-कर्म-दोष-परिहार)
पौरोहित्य-कर्म निन्दित है,
महानिन्दित है—इसमें कोई दो मत नहीं। इस सम्बन्ध में पूर्व आलेख में बहुत कुछ कहा
जा चुका है।
मेरा उद्देश्य किसी को चोट
पहुँचाना नहीं, बल्कि सावधान कराना है। ब्राह्मणों
की दयनीय स्थिति (बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक आदि) देख कर बहुत दुःख होता
है। स्वयं ब्रह्मण होने के कारण विपरीत दृश्य अधिक कष्ट देते हैं। किसी ब्राह्मण
को किसी बनिये-व्यापारी-धनासेठ के सामने गिड़गिड़ाते या खुशामद करते हुए देखकर
बहुत कचोट होता मन को।
वस्तुतः हम स्वयं को भूल गए
हैं। अपने अधिकार और कर्त्तव्य को भुला दिए हैं। लक्ष्मी (कामना) की भूख ने हमें
सरस्वती (ज्ञान) से दूर कर दिया है। ये जान रखें कि ब्राह्मण के पास दुम नहीं होता,
जिसे औरों के सामने हिलाता रहे। ब्राह्मण का सिर सिर्फ माता-पिता, गुरु और परमात्मा
के पास झुकना चाहिए।
जागो
विप्रवर
! जागो ।
सरस्वती
को साधो। लक्ष्मी घुटने टेकेगी ।
प्रश्न उठता है कि परम्परानुसार
ब्राह्मणों के लिए पौरोहित्य-कर्म ही जीविका का साधन बना हुआ है। यदि यह निन्दित
है और त्याज्य है, तो ब्राह्मण करें क्या?
किन्तु इसी प्रश्न में छिपा
हुआ एक और प्रश्न भी है—क्या हम अपने कर्म के प्रति सचेष्ट, कर्मठ, निष्ठावान और ईमानदार
हैं?
कहने-बतलाने की आवश्यकता
नहीं । अपने आप से सवाल करें और अपने आप को ही ईमानदारी से जवाब दें। बात स्पष्ट
हो जायेगी—हम ईमानदार नहीं हैं। निष्ठावान नहीं हैं। कर्मठ नहीं है। सचेष्ट भी
नहीं हैं।
क्यों कि यदि ये सारे गुण होते,
तो आज हमारी ये दुर्गति नहीं होती। औरों को धोखा देते-देते, औरों के साथ छल
करते-करते, हम स्वयं को भी छल ही रहे हैं इतने दिनों से। और अब तो स्थिति ये है कि
हम पूरे तौर पर स्वयं को भुला चुके हैं।
हीरा भूल चुका है कि हम हीरा
हैं, कोयला नहीं।
हाँ, ये बात अलग है कि
दादाजी वाली सांकल अभी भी है कुछेक के पास, जिसे झंकारते हुए कहते फिरते हैं कि
मेरे दादाजी हाथी रखते थे।
अरे भाई !
वो हाथी तो दादाजी के पास थी। आपके पास तो बकरी भी नहीं है।
कोई कहता है— हम सूर्यांश
हैं। कोई कहता है हम ब्रह्मकल्पित दिव्य ब्राह्मण हैं। कोई कहता है हम भूदेव हैं।
ये
सारे के सारे ‘हैं’ ‘थे’
हो गया है अब ।
राख
अग्नि नहीं है। राख तो राख है।
हाँ,
थोड़ी चिनगारियाँ छिपी हो सकती हैं अन्दर। जिसे कुरेद कर निकालने की जरुरत है। नए
सिरे से नये ईंधन का प्रबन्ध करना होगा। अग्नि फिर प्रज्ज्वलित हो जा सकती है, उसी
राख के ढेर पर।
जो शास्त्र-पुराण आपको
सूर्यांश कहता है, ब्रह्मकल्पित दिव्य ब्राह्मण कहता है, भूदेव कहता है—वही
शास्त्र तो ये भी कहता है कि दसविध भूदेवों को महर्षि गौतम ने शापित कर दिया था
उनके तात्कालिक दुष्कर्म के कारण और ब्रह्मकल्पित दिव्य ब्राह्मणों को ब्रह्मा ने
ही शापित कर दिया था— असन्तुष्ट रहने को। (पौराणिक कथा बड़ी लम्बी है)
असन्तुष्टा
द्विजाः नष्टाः, सन्तुष्टा गणिका यथा। (असन्तोषी ब्राह्मण
शनैः-शनैः ब्रह्मणत्व-विहीन होने लगता है और सन्तोषी गणिका श्रीहीन हो जाती है।)
भूदेवों में ब्रह्मणत्व का
अभाव देख कर ही तो द्वापर के अन्त में श्रीकृष्णपुत्र साम्ब के सूर्ययाग हेतु शाकद्वीप
से कुछ सूर्यांशों को लाना पड़ा था।
तेजोदीप्त सूर्यांशों को आए
हुए भी ५१२२ वर्षों
से भी अधिक हो गए। औरों की तरह इन पर भी भूलोकीय परिवेश का प्रचुर प्रभाव पड़ा।
शनैः-शनैः संस्कारहीनता आती गयी। प्रचण्ड सूर्यतन्त्र के साधक, महागायत्री के
उपासक को अपना इतिहास भी ठीक से नहीं मालूम है आज। (हालाँकि सिर्फ इतिहास रट
लेने से दिव्यत्व नहीं आ सकता।) जम्बूद्वीप में रहते हुए अपना खान-पान, रहन-सहन सब
गवाँ चुके हैं। जैसे हम भारतीय अपनी विरासत, अपनी परम्परा, अपना लोकाचार, अपनी
संस्कृति को पुरानपंथी कहकर, पाश्चात्य सभ्यता में दिनों दिन पगते चले जा रहे हैं।
पुनः मूल समस्या और प्रश्न
पर आते हैं, किन्तु उसके समाधान और समुचित उत्तर के लिए फिर से मनु और श्रीकृष्ण
के संदेशों-निर्देशों पर विचार करते हैं। क्योंकि रास्ता तो वहीं से मिलेगा। हम
जहाँ से भटके हैं। वहाँ लौट कर एक बार जाना ही होगा—
(क) मनुस्मृति १-८८
में कहा गया है— अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहं चैव
ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥
स्पष्ट है कि अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, दान-प्रतिग्रह — ब्राह्मणों के लिए ये छः विहित कर्म निर्दिष्ट हैं। बात बिलकुल साफ है कि अध्ययन करो, तब अध्यापन करो।
स्वयं यज्ञादि कर्मकाण्ड करो, साथ ही यजमानों का
कर्मकाण्ड भी कराओ । दान ग्रहण करो और तदनुसार स्वयं भी दान करो ।
(ख) श्रीमद्भगवद्गीता १८-४२ में श्रीकृष्ण ने कहा है—शमो दमस्तपः शौचं
क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। (मन का निग्रह करना, इन्द्रियों को वश में रखना, धर्मपालन हेतु कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा
करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद-शास्त्रादि का ज्ञान
होना, यज्ञविधि का ज्ञान व अनुभव, परमात्मा, वेदादि में आस्तिक
भाव रखना—ये सब के सब ब्राह्मण के
स्वाभाविक कर्म हैं।)
उक्त निर्देशों में करणीय कार्यों को करने-साधने की
आवश्यकता है। यथासम्भव वेद, पुराण, धर्मशास्त्र आदि का अध्ययन-मनन-चिन्तन तो करना
ही होगा।
हीरे के ऊपर लिपटी गन्दगी को तो धोना ही होगा। वेदमाता गायत्री को छोड़कर,
ब्रह्माण्डनायक सूर्य की उपासना को भुला कर हम कुछ भी नहीं पा सकते—जो पाना चाहिए
ब्राह्मणों को।
हमारा हर सम्भव प्रयास हो कि हम समग्र रुपेण ब्राह्मण बनें । अभी तो सिर्फ
ब्राह्मण कुल में जन्मे हैं। ब्राह्मण कुल में जन्म लेना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि
ब्रह्मणत्व लाने की आवश्यकता है।
(बिना सिमकार्ड का मोबाइल या
डिस्चार्ज बैट्री किसी काम का नहीं होता।) हमारी भी यही स्थिति है। अतः स्वयं को
चार्ज करें।
धर्म को व्यवसाय न बनावें। जीविका के नाम पर कुकृत्य न करें। ठगी न करें।
यजमान को धोखा न दें।
पौरोहित्य करना ही विवशता है यदि, तो विधिवत पौरोहित्य की शिक्षा लें। आवश्यक
कर्मकाण्ड सीखें। ज्योतिषी बनना है तो ज्योतिष सीखें।
ध्यान रहे—पौरोहित्य-कर्म के भी कई प्रकार हैं। पुरोहित, वृत्तेश्वर,
पौराणिक, याज्ञिक, आचार्य, गुरु, होता इत्यादि कई पद हैं। अपनी योग्यता के अनुसार ही इसे अपनायें।
आँखिर हम नहीं करेंगे तो ये काम कौन करेगा—ये बचकानी दलील न
दें और निम्नांकित बातों पर ध्यान दें—
१)
समसामयिक-समुचित शिक्षा
ग्रहण करें। तदनुसार अर्थोपार्जन के विविध स्रोत अवश्य बनेंगे। किन्तु आधुनिकता की आँधी में बहें नहीं।
२)
तामसी आहार-विहार कदापि न
करें। विशेषकर वे, जिनके कुल में पहले से ये परम्परा नहीं है।
३)
कल्याण चाहते हैं तो किंचित
निकृष्ट कर्मों से अवश्य बचें— श्राद्ध भोजन, श्राद्धीय वस्तु दान, तुलादान,
छायादान, ग्रहदान आदि सद्यः ब्रह्मणत्व का हरण करते हैं। अतः इनसे अवश्य-अवश्य
बचें।
४)
सामान्य दान भी यदि ग्रहण करते
हैं, तो उसका बीस प्रतिशत (पाँचवा हिस्सा) पुनः दान कर दें। (वस्तु को घर में लाने
से पूर्व ही)
५)
खाने-पीने के मामले में बहुत
सावधान रहें—कहाँ,क्या,किसके साथ,किसके पैसे से खा रहे हैं ! (होटली सभ्यता से सख्त परहेज करें)
६)
सही समय पर यज्ञोपवीत
संस्कार ग्रहण हो।
७)
अपनी ऊर्जा को नियमित जागृत
करते रहें (जैसे मोबाइल को रोज चार्ज करते हैं) — संध्योपासन और गायत्री को किसी
भी हाल में न त्यागें। (ध्यातव्य है कि अशौच संध्योपासन का अलग विधान है)
८)
सूर्यकवच या गायत्रीकवच को
विधिवत साध लें। (ये लम्बी प्रक्रिया है)
९)
अपने इष्टदेव का नाम-जप
जितना हो सके निरन्तर करते रहें।
१०) आत्मशुद्धि हेतु कोई भी प्रिय व्रत-उपवास करें।
यथा— एकादशी, रविवार, मास त्रयोदशी, संकष्ठी गणेश चतुर्थी, सूर्यषष्ठी, सूर्यसप्तमी,
नवरात्र आदि। व्रतोपवास में गरिष्ठ खाद्य पदार्थों का सेवन न करें। ध्यान रहे—सिर्फ
अन्न न खाना ही उपवास नहीं है। उपवास का असली अर्थ होता है—अपने प्रिय देवता के
अधिकाधिक समीप रहना—यानी तन-मन से स्वयं को समर्पित करते हुए मन्त्र-जप-ध्यानादि
में समय व्यतीत करना।
११) लाचारी में यदि श्राद्धान्न ग्रहण करना हो तो
ग्रहण से पूर्व और पश्चात् दस-दस हजार गायत्री जपकर लेना चाहिए।
क्या करें, क्या न करें के विषय में और भी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें लघु
आलेख में समाविष्ठ करना सम्भव नहीं। अस्तु।
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