प्रत्यभिज्ञादर्शन के प्रकृष्ट प्रतीक :: श्री हनुमानजी


 

प्रत्यभिज्ञादर्शन के प्रकृष्ट प्रतीक :: श्री हनुमानजी

            प्रत्यभिज्ञादर्शन कश्मीरी शैवदर्शन की ही एक शाखा है, जो मुख्यतया अद्वैतवादी दर्शन है। किन्तु यहाँ उस दर्शन का दिग्दर्शन मेरा अभीष्ट नहीं है, प्रत्युत देखने-परखने-जाँचने की सूक्ष्मातिसूक्ष्मशक्ति पर किंचित विचार करना मात्र है।  

प्रति और अभिज्ञा के योग से पद बना प्रत्यभिज्ञा, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है—पहले से देखे हुए या पहचाने हुए को देखना-पहचानना-समझना। पहले से देखी हुयी वस्तु-व्यक्ति की तरह ही किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति को देखते ही जान-समझ लेना भी इसी गुण के अन्तर्गत आता है।

ध्यातव्य है कि ये सूक्ष्मातिसूक्ष्म शक्ति है, जो विशिष्ट दैवी कृपा से ही किसी को प्राप्त हो सकती है। सामान्य जाँच-परख तो प्रायः हरकोई अपनी योग्यता के अनुसार कर ही लेता है, किन्तु जहाँ विशेष परख की बात आती है, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, यहाँ तक देवता भी चूक जाते हैं।

भक्तप्रवर महाराज अम्बरीष को ठीक से परखने में रुद्रावतार महर्षि दुर्वासा की चूक पुराण-अध्येताओं के लिए अति रोचक प्रसंग है, जिन्हें दण्डित करने के लिए भगवदायुध - सुदर्शनचक्र ने पूरे त्रिलोकी में दौड़ा दिया उन्हें और अन्त में उसी अम्बरीष की शरण में जाना पड़ा, जिसे भस्मसात करने हेतु उन्होंने स्व-योगबल से कृत्या उत्पन्न किया था।

वृत्रासुर के साथ युद्धक्रम में देवराज इन्द्र से भी इस गूढ़ कला में भारी चूक हुयी है। तमसकाय वृत्रासुर में उच्चकोटि की नैष्ठिक भक्ति भी है—देवराज इन्द्र कल्पना भी न कर पाये होंगे। ऐसे में इन्द्रपुत्र जयन्त की भला कौन गिनती, जिसने काकरुप धारण कर देवी सीता पर प्रहार किया।

थोड़ी देर के लिए, महामाया का लीलाविलास मात्र मान कर चुप न रहना चाहें, तो फिर स्वीकारना ही पड़ेगा कि शिवांगी माता सती भी वन-विहारी विरही श्रीराम को पहचानने में चूक गयी हैं, जिसके परिणामस्वरुप भूतभावन भोलेनाथ ने छल-छद्म एवं मिथ्याचार का अभियोग लगाकर, उनका परित्याग कर दिया ।

ये सारी घटनायें एक ओर और दूसरी ओर श्रीरामभक्त एकादशरुद्रावतार पवनसुत अञ्जनानन्दन महाबली हनुमानजी की विलक्षण प्रतिभा, जिसका समग्र वर्णन करने में सम्भवतः सहस्रफणी और शारदा भी हाथ खड़े कर दें।  यूँ ही नहीं उन्हें बुद्धिमतां वरिष्ठम् और  ज्ञानिनामग्रगण्यम् कहा गया। बल और बुद्धि ही नहीं ज्ञान, कर्म और भक्ति की भी पराकाष्ठा पर अडिग, अवस्थित हैं— श्रीमारुतिनन्दन। इन सद्गुणों में किसकी वरीयता और किसकी कनीयता— कहना कठिन है। और कठिन इसलिए है, क्योंकि सबके सब उतनी ही मात्रा में हैं—  अमात्रेय कहना अधिक उपयुक्त होगा।

सम्पूर्ण रामकथा में अनेक पात्र हैं, जिनमें विदेह जनक भी हैं, जानकी भी। माता कौशल्या भी हैं , भ्राता लक्ष्मण भी । उस क्रम में हनुमान का पदार्पण तो बहुत बाद में हुआ, कहा जा सकता है, किन्तु प्रत्यभिज्ञाशक्ति के सन्दर्भ में आञ्जनेय का कोई ही जोड़ नहीं है। श्रीराम के इतने निकट होकर आधारशक्ति, शेषावतार—लक्ष्मण भी श्रीराम को ठीक से समझने में कई बार चूक गए हैं।  किन्तु रामदूत श्रीहनुमान की चूक की चर्चा ढूढ़े नहीं मिलती।

प्रत्यक्षतः श्रीराम-लक्ष्मण से श्रीहनुमान की पहली भेंट किष्किन्धा में पम्पासरोवर पर हुयी है, जब सर्वविध भयभीत-त्रस्त सुग्रीव द्वारा भेजा जाता है हनुमानजी को, ये पता लगाने के लिए कि ये अति विशिष्ट प्रतीत हो रहे वनचारी कौन हैं—कहीं बालि-प्रेषित छद्मभेषी शत्रु तो नहीं हैं !  विप्रवेषी हनुमान वहाँ जिस रुप में अपना परिचय देते हैं, उसे सुन कर श्रीराम के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता है—बहुव्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम् — हे लक्ष्मण ! कितनी अर्थभाववती, किन्तु शब्दतः अत्यल्पीयसी वाणी में हनुमान ने अपना परिचय और अभिप्राय व्यक्त कर दिया, जिसमें अक्षरमात्र भी निष्प्रयोजन वा व्यर्थ नहीं प्रतीत हुआ।)  इन्हीं भावों की विशद अभिव्यक्ति पुनः सुग्रीवादि के पास वापस पहुँचने पर भी होती है। सुग्रीव की सारी शंकाओं का समाधान क्षणभर में ही मिल जाता है। सभी वानरयूथ आश्वस्त हो जाते हैं। अग्नि की साक्षी में मैत्री-शपथ ग्रहण होता है और फिर सीतान्वेषण की योजना बनने लगती है।

समुद्रलंघन से लेकर लंकादहन तक की सारी लीलाएँ बड़े सुनियोजित ढंग से श्रीहनुमान द्वारा सम्पन्न होती हैं। जहाँ पग-पग पर इस रामभक्त की प्रत्यभिज्ञाशक्ति का अनुपमेय प्रमाण मिलता है। विभीषण के भवन को देखकर लंका निसिचर निकर निवासा के क्षणिक संशय का अगले ही क्षण समाधान मिल जाता है। राक्षसराजमहीषियों का निरीक्षण-अवलोकन नैष्ठिक ब्रह्मचारी-मर्यादा के अन्तर्गत करते हुए, स्वामी-कार्य-संकल्पित आञ्जनेय आगे बढ़ते हैं।

अशोकवाटिका में पहुँचने पर उनकी भावस्थिति को आदिकवि वाल्मीकि ने बड़ी ही सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। उनकी विलक्षण प्रत्यभिज्ञाशक्ति का उत्कृष्ट प्रमाण यहाँ भी मिलता है— तां विलोक्य विशालाक्षीमधिकं मलिनं क्रियाम् । तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादिभिः।। पूर्व अदर्शित माता सीता का परिचय उन्हें किसी और से पूछना-जानना नहीं पड़ा, प्रत्युत अपनी सूक्ष्म विचारणाशक्ति ने ही स्पष्ट कर दिया ।

युद्ध के बीच रावण तिरष्कृत विभीषण की रामदल में हठात उपस्थिति प्रथमतया तो वानरयूथ सहित भ्राता लक्षण को भी सशंकित कर दिया था। किन्तु एकमात्र श्रीहनुमान की पारखी-दृष्टि और शास्त्रसम्मत तर्कणा ने ही राजद्रोही घोषित विभीषण को अंगीकार किया। श्रीहनुमान की अनुशंसा पर ही श्रीराम आश्वस्त हुए ।

श्रीहनुमान की विलक्षण प्रतिभा और ज्ञान से सभी सदा आश्चर्चचकित रहे। माता जानकी प्रदत्त अष्टसिद्धिनवनिधि के दाता का आशीष ही नहीं, प्रत्युत वाणी-नियामक अष्टव्याकरण के साथ-साथ तन्त्र और ज्योतिष के भी अद्भुत ज्ञाता हैं श्रीहनुमानजी। हनुमानज्योतिष नामक लघु ग्रन्थ एक ऐसा अद्भुत और उपयोगी ग्रन्थ है, जिसमें विविध यन्त्रों (आकृतियों) के सहारे अल्पज्ञ भी सूक्ष्म ज्योतीषीय फलादेश करने में सक्षम हो जाते हैं।

इसी भाँति तन्त्रशास्त्रों में एक बहुश्रुत ग्रन्थ है—वृहत्साबरतन्त्रम् । प्रसंग है कि कलिकाल जनित घोर अज्ञान, असहिष्णुता, उदण्डता, यम-नियमों का सर्वाधिक अभाव आदि त्रुटियों के भविष्यद्रष्टा मन्त्रेश्वर शिव ने समग्र तन्त्रशास्त्र को कीलित कर दिया। किन्तु माता पार्वती के विशेष आग्रह पर एकमात्र साबरतन्त्र को निष्कीलित छोड़ दिया—कलि विलोकि जनहित हर गिरिजा । साबर तन्त्रजाल जिन्ह सिरिजा । अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रकट प्रभाव महेस प्रतापू ।। साबरतन्त्र में मन्त्रों की वर्णयोजना बड़ी विचित्र होती है। प्रथम दृष्ट्या ये मात्र मिथ्या प्रलाप प्रतीत होता है, किन्तु विश्वास पूर्वक प्रयोग करने पर अद्भुत सिद्धिदायक है। इन मन्त्रों के लिए विशेष साधना-संचय की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। सामान्य क्रियासम्पन्नता से ही कार्यसिद्ध होने लगता है। इन साबर मन्त्रों में बार-बार हनुमान की दुहाई दी जाती है। यानी बार-बार हनुमान की चर्चा आती है। यथा— बाँधो भूत जहाँ तु उपजो छाड़ो गिरे पर्वत चढ़ाई सर्ग दुहेली तुजभि झिलमिलाहि हुँकारे हनुमन्त पचारह भीमा जरि जारि जारि जारि भस्म करे जौं चापें सिव— ये एक साबरमन्त्र है जिसे भूत-प्रेत भगाने और बाँधने में ओझा-गुनियों द्वारा काफी प्रयोग किया जाता है। ऐसे ही हजारो मन्त्र हैं, जिनमें हनुमान की चर्चा है।  इष्ट-अनिष्ट, सही-गलत, उचित-अनुचित, उपयोगी-अनुपयोगी की सम्यक् प्रतीति है श्री हनुमान को।

अतः रामकाज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम की जगह मोहे काज कीन्हें बिना तोहि कहाँ विश्राम का अनमेल विन्यास करके हनुमदानुरागी सदा विजय दुम्दुबी-वादन कर सकता है सांसारिक जीवन में—इसमें कोई दो राय नहीं। अस्तु।

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