श्रीहनुमानज्योतिषःसरल-सुगम प्रयोग प्रथम भाग

 


             श्रीहनुमानज्योतिषःसरल-सुगम प्रयोग

ज्ञानिनामग्रगण्यम्,बुद्धिमतां वरिष्ठम् आदि विशेषण श्रीआञ्जनेय के लिए सुप्रसिद्ध हैं। इन विशेषणात्मक सम्बोधनों के अनेक कारण हैं। आदिकाव्य के अनुसार ब्रह्मा प्रेरित सूर्यदेव ने बालक हनुमान को अपने अमित तेज का शतांश प्रदान करते हुए वरदान दिया था— मैं इसे ऐसा शास्त्रज्ञान दूँगा, जिसकी समता करने वाला कोई नहीं होगा— तदास्य शास्त्रं दास्यामि येन वाग्मि भविष्यति । न चास्य भविता कश्चित् सदृशः शास्त्रदर्शने ।। (वा.रा.३६१४) इन बातों की पुष्टि पद्मादि पुराणों से भी होती है— सिद्धविद्यः प्रभाढ्यो विनयज्ञो महाबलाः । सर्वशास्त्रार्थ कुशलः परोपकृतिदक्षिणः ।।

इस रोचक कथा से भी जग अवगत है— बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ  लोक भयो अन्धियारो  एवं  जुग सहस्त्र जोजन पर भानू लील्यो ताहि मधुर फल जानू । इनके हनुमान (हनूमान) नाम की सार्थकता इसी घटनाक्रम  से सिद्ध होती है। कथान्तर से ये वही समय सिद्ध होता है, जब सूर्यदेव ने साशीष वचन दिया था हनुमान को शिष्यत्व प्रदान करने का।

समुचित समय आने पर पिता केसरी और माता अञ्जना प्रेरित हनुमान ,  सूर्य के समीप पहुँचे और उक्त आशीष का स्मरण दिलाए, तब सूर्य ने किंचित विवशता व्यक्त की, अपने निरन्तर कर्त्तव्य को लेकर। क्योंकि शिक्षा ग्रहण करने हेतु गुरु-शिष्य की आसनासीन अवस्थिति अनिवार्य है और ऐसा करने से सृष्टि-व्यवस्था में भयानक संकट उपस्थित हो जायेगा।

किन्तु बुद्धिवरिष्ठ हनुमान मनोजवं मारुततुल्यवेगंभी हैं—सम्भवतः इस ओर सूर्य का ध्यान नहीं गया या शिष्यत्व की परीक्षा हेतु उन्होंने ऐसा कहा, जो भी हो। मन की गति और वायु का वेग जहाँ एकत्र विद्यमान हो, वहाँ सूर्य के रथचक्रगति की क्या गणना ! हालाँकि सूर्य के लिए भी मनोजवो जितक्रोधो... (आदित्यहृदयस्तोत्र-१२०) आदि विशेषण प्रयुक्त होते हैं। सूर्य की गति को भविष्योत्तरपुराणान्तर्गत, आदित्यहृदय स्तोत्र, श्लोक संख्या १२९ में स्पष्ट किया गया है— नवतिर्योजनं लक्षं सहस्राणि शतानि च । यावद्घटीप्रमाणेन तावच्चरति भास्करः ।।  

सृष्टितन्त्र को वाधित किए बिना सूर्य का सप्ताश्वचालित एकचक्रीय रथ चलता रहा और उसके आगे-आगे हनुमानजी विपरीत गति से (गुरु-सूर्य-सन्मुख) तब तक चलायमान रहे, जबतक सूर्य से सारी विद्यायें लब्ध न हो गयी उन्हें।

सूर्य-प्रदत्त उन्हीं विद्याओं में श्रीहनुमानज्योतिष भी एक है, जो मुख्यतः शकुनशास्त्र है। कलिकाल की अल्पज्ञता का ध्यान रखते हुए, लोककल्याणार्थ इस सुगम पद्धति का प्रणयन हुआ । ग्रहलाघव, सूर्यसिद्धान्त, केतकरीया , मकरन्दीया आदि के ज्ञान के बिना भी सामान्य जन इससे लाभान्वित हो सकते हैं, क्योंकि गणितज्योतिष की जटिलतायें इसमें किंचितमात्र भी नहीं है। विस्तृत संहिता और सिद्धान्तों का मनन-चिन्तन भी आवश्यक नहीं है इसके उपयोग हेतु । जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए सामान्य मनुष्य के सहज प्रश्नों और जिज्ञासाओं का सटीक समाधान सरल रुप से इस ज्योतिषशास्त्र द्वारा पाया जा सकता है।

विस्तार की दृष्टि से भी अति लघु आकार वाला है। इसके अन्तर्गत विषयवस्तु को उपयोगिता क्रम से तीन खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रथम खण्ड में शकुन- विचारार्थ किंचित यन्त्रों (आकृतियों) और उसके परिणाम का वर्णन है। द्वितीय खण्ड में सतयुग, त्रेता, द्वापर के विभिन्न महानुभावों से लेकर गुरु गोरखनाथ पर्यन्त पूर्वखण्ड की भाँति ही फलकथन हैं तथा तृतीयखण्ड में काक-वचन-परीक्षण, दिवारात्रि दण्डप्रमाण, अंगस्फुरण फल, गर्भप्रश्न आदि का समावेश है। श्रीरामचरितमानस में जिस प्रकार रामशलाका प्रश्नावली है, उसी भाँति यहाँ हनुमान प्रश्नावली भी संकलित है, जिसमें अकादि वर्णों के माध्यम से फलकथन की चर्चा है।  

अनेक प्रकाशकों की पुस्तकें सहज प्राप्त हैं। प्राचीन अनेकानेक ग्रन्थों के साथ जिस प्रकार स्वार्थपरक एवं अज्ञानपरक छेड़-छाड़ हुए हैं, इससे हनुमानज्योतिष भी अछूता नहीं रहा है।  विभिन्न प्रकाशकों-सम्पादकों ने  अपने-अपने ढंग से विषय वस्तु की उठा-पटक की है। भाषा-शैली और विषयवस्तु पर विचार करने पर आधुनिक दृष्टि-धारकों के मन में कई प्रश्न उपज सकते हैं। सनातनी सिद्धान्तों को आधुनिक तार्किक बुद्धि सहज स्वीकार नहीं कर पाता। फलतः विशेष शंकायें उपस्थित होती हैं। किन्तु जो बातें प्रयोगात्मक हैं, उसपर तो विचार करना ही होगा।  हाँ, इतनी बात बिलकुल स्पष्ट है कि बीच की कुछ कड़ियाँ स्खलित हैं, भग्न हैं, विस्मृत हैं । इन्हें गुरु-परम्परा में उतर कर ढूढ़ना होगा, समझना होगा।

ईश्वर की कृपा और पूर्वजों के आशीष स्वरुप प्राप्त परम्परागत ज्ञानानुभव के मुक्ता-प्रवाल को किंचित यत्नपूर्वक यहाँ सजाने का प्रयास है। ऐसा हो सकता है कि सन्त-समागम परम्परा में चले आ रहे लोकोपयोगी विषयों को सनातनी महानुभावों के नाम से लिपिवद्ध कर दिया गया हो।  

अतः, वृक्ष का विचार करने से कहीं अच्छा है, रसाल का रसास्वादन करना । वही मैं कर रहा हूँ।  

क्रमशः...

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