पौरोहित्यकर्म से निज हानी कैसे ?

 

    पौरोहित्यकर्म से निज हानी कैसे ?

 

उक्त प्रश्न के उत्तर निम्नांकित पाँच विन्दुओं में स्पष्ट किए जा रहे हैं—  

१.     पाप-पुण्य-संक्रमण

२.     सृष्टि-विधान में हस्तक्षेप

३.     जानी-अनजानी गलतियाँ

४.     संस्कारहीनता

५.     आत्मरक्षा कवच का अभाव

 

पौरोहित्य कर्म-रत ब्राह्मण के संचित संस्कारों का निरन्तर ह्रास होते रहता है और उसे स्पष्ट रुप से पता भी नहीं चलता, क्योंकि ये कार्य बहुत धीरे-धीरे होता है। विशेष साधक ही इस ह्रास का अंकन कर सकते हैं। आम ब्राह्मण के वश की बात नहीं है। किन्तु हाँ, यदि आप योगमार्ग के किंचित अनुयायी हैं, तो सहज ही स्वल्पांश अनुभूति अवश्य होगी।

 

आपका शरीर और मन जितना शुद्ध होगा आपकी अनुभूति उतनी गहरी होगी। साधनपथ के पथिकों को ज्ञात है कि मात्र छः सोपान ही तय करने हैं—शरीर शुद्धि, विचार शुद्धि, भाव शुद्धि । शरीर शून्यता, विचार शून्यता, भाव शून्यता ।

किन्तु इन छः सोपानों को ही तय करने में कई जन्म लग जा सकते हैं। संयोग से विप्रकुल में जन्मे हैं। ये बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। निश्चित ही कोई महान सुकर्म ही ले आया है यहाँ । और यदि इतना मानते हैं कि सुकर्म के कारण यहाँ लाया गया है आपको, तो फिर पौरोहित्य जैसे निकृष्ट कर्म के लिए क्यों उतावले हो रहे हैं !

विदित हो कि चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है और मनुष्यों में विप्र-कुल-जात काया सर्वश्रेष्ठ है। भूमियों में भारतभूमि सर्वश्रेष्ठ है। ऐसे में इन सारी श्रेष्ठताओं को पाकर भी ब्रह्मणत्व विहीन रहना, कितने दुःख, चिन्ता और अज्ञानता की बात है—आप स्वयं विचार कर देखें।

 

पौरोहित्यकर्म में हमें बारबार यजमान और उसके घर-परिवार के सम्पर्क में जाना पड़ता है। जितनी देर हम उस परिसर में, उस संसर्ग में रहते हैं, उतनी देर वहाँ की शुभ वा अशुभ ऊर्जा (अदृष्ट शक्ति) हमें प्रभावित करती है। कार्य सम्पन्न करके, हम अपने घर-परिवार में आ जाते हैं। शुभ वा अशुभ जो भी कर्म कराके आए हों, स्नान या वस्त्र परिवर्तन भी आदतन नहीं करते। परिणामतः साथ लाये ऊर्जा से अपने घर-परिवार को भी प्रभावित (संक्रमित) कर देते हैं।

यजमान से प्राप्त अन्न-वस्त्रादि पदार्थ का सपरिवार सेवन करते हैं। उन सामग्रियों का अपना अलग प्रभाव है। धातव्य है कि हर पदार्थ की अपनी ऊर्जा होती है। सृष्टि-संरचना की तरह ऊर्जा भी त्रिगुणात्मका होती है—सात्त्विक, राजस, तामस; जिनका गुणानुसार प्रभाव पड़ता है।

ध्यातव्य है कि अन्न सर्वाधिक प्रभावकारी होता है। कच्चे अन्न की तुलना में  पकाया हुआ, लवणादि मिश्रित अन्न सद्य घातक है। जल, दुग्ध, घृतादि पदार्थ उत्तरोत्तर कम घातक हैं। दुग्ध-घृतादि के पश्चात् फलादि का स्थान है। वस्त्र, शैय्या, स्वर्णादि आभूषण उत्तरोत्तर कम घातक हैं। किन्तु ध्यान रहे - यहाँ नवीन की बात कही जा रही है। उपयोग में आ चुके ये सामग्री तो अन्न से भी अधिक हानिकारक होंगे। रत्नों का प्रभाव सबसे अधिक घातक है। जैसे कोई यजमान रत्न जड़ित सोने की अँगूठी दान करता है, तो यह भात-रोटी से भी अधिक खतरनाक है। धातु का तो शोधन-संस्कार हो जाता है, किन्तु रत्नों का कोई भरोसा नहीं कि वे नवीन हैं ही। तराशने के पश्चात् भी रत्नों का पूर्ण शोधन नहीं हो पाता। अन्य पदार्थों की तुलना में द्रव्य (रुपया-पैसा) अपेक्षाकृत कम दोषपूर्ण है। यहाँ सिर्फ आय-स्रोत विचारणीय है। चोरी-चण्डाली, भ्रष्टाचार से अर्जित रुपये अधिक दोषपूर्ण होंगे। विदित हो कि टैक्सचोर सबसे ज्यादा दान देते हैं धर्मकार्यों में। इस प्रकार संसर्गज प्रभावों से ब्राह्मणों को बहुत हानि होती है।  

 

विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने दुनिया की आँखें खोल दी हैं। संसर्ग-दोष की बातें अब सबको समझ आने लगी हैं, किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि इन्हीं बातों पर हमारे शास्त्र चीख-चीख कर कहते रहे हैं, परन्तु सुनाई नहीं देती है । छूआछूत, सुचिता, पवित्रता आदि को पुरानी विचारधारा, असामाजिक सोच करार दे देते हैं।

संसर्गजा दोष-गुणाः भवन्ति – विशेष विचारणीय  है। वस्तुतः ये एक संक्रमण की भाँति है।

स्कन्दपुराण (वैष्णवखण्ड) कार्तिकमाहात्म्य प्रसंग में श्रीकृष्ण-सत्यभामा- संवाद है। कहते हैं कि पठन-पाठन (शिक्षण), संभाषण, भोजन, यज्ञ-यागादिकर्म  में सांसर्गिक प्रभाव से परस्पर (एक दूसरे के) पाप-पुण्यादि के चौथाई भाग का अनजाने में ही संक्रमण हो जाता है । इसी भाँति एक आसन पर बैठने, सार्वजनिक सवारियों का उपयोग करने, शारीरिक स्पर्शादि से परस्पर पाप-पुण्यादि के षष्ठांश का संक्रमण अवश्य होता है । इतना ही नहीं, दूर बैठ कर किसी व्यक्ति के गुण-दोष की चर्चा वा चिन्तन करने मात्र से भी दसवें अंश का संक्रमण हो ही जाता है। परोक्ष रुप से निन्दा, चुगली आदि के प्रभाव स्वरुप भी अनजाने में हम अपना पुण्य-क्षय कर लेते हैं । इसी भाँति गुरु-शिष्य, यजमान-पुरोहित, पति-पत्नी, पिता-पुत्रादि के विविध कर्मों का भी षष्ठांश स्थानान्तरण होता है । परिवार के सदस्यों द्वारा किये गये कर्म का आंशिक प्रभाव सभी सदस्यों पर पड़ता है ।

सत्संग, संगति, संकीर्तन आदि की बातें, जो हमारे यहाँ बड़ी गम्भीरता से की जाती है, उसका यही रहस्य है । तीर्थाटन आदि का भी यही उद्देश्य है । हम जहाँ जाते हैं, जिस व्यक्ति के समीप बैठते हैं, संभाषण करते हैं, श्रवण करते हैं... वहाँ की ऊर्जा का स्थानान्तरण हमारे भीतर अनजाने में ही होने लगता है । मन्दिरों या संतो के सेवन का यही रहस्य है। अतः कर्म करते समय यथासम्भव सावधान रहने की आवश्यकता है । इसी बात की ओर कृष्ण ने ध्यानाकर्षित किया है— योगः कर्मषु कौशलम् कह कर

पुनः पौरोहित्यकर्म की बात पर आते हैं। किन्तु इससे पहले कर्म और भोग की थोड़ी समझ जरुरी है। हम जो कुछ भी सुख वा दुःख पा रहे हैं, वो सब मेरे अपने ही पूर्व कर्मों के परिपाक और परिणाम हैं। जन्मकुण्डली के ग्रह सुख-दुःख के कारक नहीं है, बल्कि सूचक हैं। अतः अज्ञान वश हम ग्रहों को दोष न दें। कोर्ट का वारन्ट लेकर, दरवाजे पर दस्तक देते सिपाही की कोई गलती नहीं होती, वो तो अपनी ड्यूटी कर रहा है। आप कह सकते हैं कि ग्रह यदि घटनाओं के सूचक मात्र हैं, तो ग्रह-शान्ति से क्या लाभ? जी नहीं, ग्रह-शान्ति-उपचार से तात्कालिक लाभ अवश्य मिलता है। किन्तु ये वैसा ही  लाभ  है, जैसे आप उस सिपाही को विनती करके लौटा दें कि बाद में आ जाना कभी ।

कृष्ण कहते हैं—अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभम्, फिर कर्म से छुटकारा कहाँ है !

इस प्रकार पौरोहित्य कर्म में हम अनजाने ही विधि के विधान में हस्तक्षेप करने लग जाते हैं। किसी के निजी कर्म-व्यवस्था (प्रारब्ध) में हस्तक्षेप करने लगते हैं, जिसका दुष्परिणाम हमें अवश्य-अवश्य भोगना पड़ता है - कभी न कभी ।

पौरोहत्यकर्म में आएदिन कुछ न कुछ निर्णय देना होता है, सुझाव देना होता है। इनमें जाने-अनजाने त्रुटियाँ होंगी ही,जिनका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है।

यजमान के लिए हम किसी कार्य का संकल्प लेते हैं। संकल्पित क्रिया में जाने-अनजाने, प्रमाद-आलस्यवश किसी प्रकार की गलती होती है, न्यूनाधिकदोष आता है, तो इनके दुष्परिणाम भी भुगतने ही पड़ते हैं।

 अपनी अयोग्यता को छिपा कर, स्वार्थवश झूठ बोलकर, यजमान के सामने आडम्बर रचकर, कर्मकाण्ड में अशास्त्रीय, अशुद्ध मन्त्रोच्चार आदि  का दुष्परिणाम तो भुगतना ही भुगतना है । चुँकि ये जानबूझ कर किया जा रहा है, इसलिए इसमें दोष ज्यादा होता है।

पुरोहित की भूमिका सीमा पर डटे सैनिक जैसी है, जिसे स्वयं की रक्षा करते हुए, शत्रु को परास्त करना है। आत्मरक्षा हेतु अपने शौचाचार और यम-नियमादि जनित संस्कार ही कारगर हो सकते हैं।  

यम-नियम संस्कारों से चुँकि वंचित रहते हैं, इस कारण पौरोहित्यकर्म करने वाले विशेष पाप के भागी होते हैं। हमारे ऋषि-मुनि इस बात से अवगत थे कि कलिकाल में लोग शौचाचार से विरत रहेंगे, यम-नियमादि संस्कार जनित गुणों से भी हीन होंगे।

इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए पौरोहित्य कर्म को निन्दित कहा गया है।

ध्यान रहे—यदि सुरक्षाकवच आपके पास है, तो युद्धभूमि में उतरें, अन्यता दूर रहने में ही भलाई है। अस्तु।

 

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