धनतेरस का कड़वा सच

 


धनतेरस का कड़वा सच

 

काज़ी जी दुबले क्यों ? दुनिया की फिकर से ” - पुरानी कहावत है । बेचारे भोंचूशास्त्री भी उन्हीं में एक हैं । आए दिन कुछ न कुछ समस्या लिए चले आते हैं ।

            जानते हो गुरु ! , दुनिया की फिकर रखोगे तो चैन की नींद नसीब नहीं होगी । यही कारण है कि ज्यादातर लोग सिर्फ अपनी चिन्ता करते हैं- कैसे चेहरे पर रौनक आये, कैसे तोंद का घेरा बढ़े, बगलगीर के मकान से अपना मकान ज्यादा अट्रैक्टिव कैसे हो, सेलटैक्स-इन्कमटैक्स में घपला कैसे मारा जाये...आदि-आदि अनेक चिन्तायें हैं । और ये सब इतना बड़ा होमवर्क है कि आसपास ताक-झांक करने का मौका ही नहीं देता । हाँ , इत्तफाकन यदि सुन्दर पड़ोसन दीख जाये तो उधर गिद्ध दृष्टि डालने की कोई शपथ थोड़े लिए बैठे हैं भीष्मपितामह की तरह... । ” – इसी टॉपिक के साथ शास्त्री जी आज शाम की चाय पर पधारे । आते ही एक गिलास पानी के लिए फरमाइश किये ।

            पानी पीकर इत्मिनान से मोढ़े पर बैठते हुए बोले— “ धनवन्तरि को जानते हो ? ”

            मैंने मुस्कुराते हुए कहाअमृतकलशधारी, समुद्रमन्थन के परिपक्व फल भगवान धनवन्तरि को भला कौन नहीं जानता ! वो नहीं होते तो जीवन ही नहीं होता ।

            मेरा जवाब सुन तपाक से बोल पड़े— “ अपनी ही समझ से लोग दुनिया को समझता है न- यही तो समस्या है दुनिया की । तुम जानते हो, तो क्या समझते हो कि सभी जानते ही हैं ? यदि जानते होते तो क्या ये दुर्गति होती उनकी ? ”

            सो कैसे?

वो ऐसे कि स्वास्थ्य विज्ञान के आदि स्रोत सिर्फ आयुर्वेदज्ञों तक ही सिमट कर रह गए और अब तो आयुर्वेद वाले भी खुद को डॉक्टर कहलाकर गौरवान्वित हो रहे हैं । वैद्यजी कह दो मुंह नोच लेंगे । खूब हुआ तो साल में एक दिन दिवस मना लिए । जयन्ति मना लिए । और जब आयुर्वेद वालों की ही ये गति है, फिर औरों का क्या कहना ! बहुतों को तो पता भी नहीं होता कि धनवन्तरि किस जन्तु का नाम है । आदि सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर होवे माया,तीजा सुख सुशीला नारी, चौथा सुख सुत आज्ञाकारी वाली बात तो बहुत पुरानी हो गयी । जीवन का सबसे अहम सुख हैशरीर का स्वस्थ होना, इसके बाद ही धन, फिर परिवार की बात आती है । उस आद्य सुख-प्रदाता की ही जयन्ती है- धनवन्तरि जयन्ति, किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि कुटिल बाजारवाद की भेंट चढ़ चुकी है ये । इसका नाम भी बदल गया है । विष्णु के पवित्र कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाने वाला स्वास्थ्य-रक्षण-पर्व अब धनतेरस के नाम से जाना जाने लगा है । तेरहवीं तिथि का तेरस बन गया और धनवन्तरि से धन निकाल लिया । दोनों मिलकर हो गया धनतेरस - लक्ष्मी का पर्व । अरे मूर्ख ! फिरंगियों के दुम !! धन बटोर कर क्या करोगे ! शरीर ही नहीं रहेगा स्वस्थ तो क्या पाओगे सुख ? फ्रिज में मिठाइयाँ भरी रहेंगी और तुम्हारा सूगरलेबल हाई रहेगा । घर में घी का कन्टेनर पड़ा रहेगा और तुम्हारा कॉलेस्ट्रोललेबल सीमा लांघ रहा होगा, आँत से लेकर दांत तक का कैंसर हो जायेगा, ब्रेन हैमरेज हो जायेगा, लकवा मार देगा...वेडशोर भी झेलना पड़ेगा । पाप संचित धन का सिर्फ यही उपयोग होगा न - कुछ डॉक्टर के यहां जायेगा, कुछ वकील ले जायेंगे । उलूकवाहिनी की सेवा करोगे तो उल्लू ही बनोगे न । पद्मासना लक्ष्मी के बारे में तुम्हें पता ही क्या है? पिछले कुछ दशकों से धनतेरस का ऐसा दुष्प्रचार-प्रसार हुआ है बाजारवादियों द्वारा कि मत पूछो । धनवन्तरि को भुला दिए इस बात का उतना खेद नहीं है, किन्तु लक्ष्मी की कामना से ज्यादा तर अलक्ष्मी (दरिद्रा- लक्ष्मी की बड़ी बहन) और साथ में राहु, केतु, शनि को बटोर लाते हो इस बात की चिन्ता और दुःख तो जरुर होता है । इन पढ़े-लिखे, खुद को बुद्धिमान समझने वालों की बुद्धि में भांग घोल दिया है व्यापारियों ने । अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में पूरे समाज को उल्लू बना रखा है । धन ही इकट्ठा करना है उस दिन तो सोना, चाँदी खरीदो । इतना औकाद नहीं है तो तांबा, पीतल, फूल खरीदो । लोहा-लक्कड़, प्लास्टिक, इलेक्ट्रोनिक खरीदने का क्या तुक है? क्या किसी टीवीबाबा ने ये नहीं बताया कि ये सभी चीजें किस-किस ग्रह का प्रतिनिधित्व करती हैं? करोड़ो-करोड़ का व्यापार हो जाता है इस दिन । तुम्हारे जेब ढीले हो जाते हैं और व्यापारियों की तिजोरियाँ भर जाती हैं । ये कैसा पागलपन है- जरा सोचो ! अब ये मत कह देना कि ये सब कह कर मैं व्यापारियों का विरोध कर रहा हूँ । या खुद को ज्यादा बुद्धिमान साबित कर रहा हूँ । मैं जानता हूँ कि तुम वही करोगे, जो तुम्हें भायेगा । किन्तु परमात्मा ने बुद्धि दी है- विचारने के लिए । इस बेतुकी गलत परम्परा पर तो विचार होना ही चाहिए- यदि खुद को बुद्धिमान समझते हो तो ।

शास्त्रीजी की बातें झकझोर गयी मुझे अन्दर तक । सच में हम कितने पागल हो रहे हैं- देखादेखी के चक्कर में । अपने इतिहास, अपने धर्मशास्त्र, अपनी परम्परायें विसारते जा रहे हैं- माँ ममी हो गयी, पिताजी डेड । दोनों मुर्दे, तभी तो अकल मारी जा रही है । सिखाने वाला कोई रहा नहीं । और सीखने को भी हम राजी नहीं । तभी तो धनवन्तरिजयन्ति का हो गया धनतेरस ।।

                                       ---()---


Comments